संदेश

क्या लौटेगी बॉलीवुड की रंगत !

फिल्म निर्माता और मल्टीप्लेक्स वालों के बीच समझौता होने की संभावनाएं बन चुकी है, लगता है जल्द ही बॉलीवुड के लिए खुल जाएंगे मल्टीप्लेक्सों के दरवाजे, और दर्शक पहले की तरह दस्तक देंगे, इस साल के छ: महीने गुजर चुके हैं, और अभी छ: बाकी हैं। पहले छ: महीनों में बॉलीवुड कोई करिश्मा नहीं दिखा सका, बॉक्स ऑफिस पर अक्षय कुमार दो एवं शाहरुख खान एक फ्लॉप दे चुके हैं, अगर इस हफ्ते के दौरान मल्टीप्लेक्सों के कपाट खुलते हैं तो बॉलीवुड से दस्तक देने वालों की लम्बी कतार है, जिनमें सबसे पहले अक्षय कुमार, रितिक रोशन, शाहिद कपूर, जॉन इब्राहिम दस्तक देंगे। अक्षय कुमार ने साल की शुरूआत जनवरी में फिल्म 'चांदनी चौक टू चाइना' से की, लेकिन सफर बिल्कुल उबाऊ था, अक्षय कुमार और दीपिका पादुकोण को चांदनी चौक से चाइना तक सफर करवाने वाली फिल्म निर्माता कंपनी को मोटा नुक्सान झेलना पड़ा, जबकि शाहरुख खान की होम प्रोडक्शन कंपनी रेड चिलीज़ को भी बिल्लू ने तगड़ा झट्टका दिया है। अगर कोई कमाऊ फिल्म निकली तो वो थी अनुराग बासु की कम बजट में जर्बदस्त था फिल्म, जिसने बॉक्स ऑफिस पर मोटी कमाई की और अभय दिओल के डूबते कैरियर तो स

कविता-सड़क

टहल रहा था, एक पुरानी सड़क पर सुबह का वक्त था सूर्य उग रहा था, पंछी घोंसलों को छोड़ निकल रहे थे दूर किसी की ओर इस दौरां एक आवाज सुनी मेरे कानों ने सड़क कुछ कह रही थी ये बोल थे उसके कोई पूछता नहीं मेरे हाल को कोई समझता नहीं मेरे हाल को आते हैं, जाते हैं हर रोज नए नए राहगीर ओवरलोड़ ट्रकों ने, बसों ने दिया जिस्म मेरा चीर सिस्कती हूं, चिल्लाती हूं, बहाती हूं, अत्यंत नीर फिर भी नहीं समझता कोई मेरी पीर

नहीं चखी चार दिन से सब्जी

मैं बठिंडा के लिए निकला और नागदा से मुझे फिरोजपुर जनता पकड़नी थी, लेकिन वो गाड़ी रात को दस बजे के करीब आती है, मैंने सात बजे नागदा पहुँच गया, सोचा क्यों न, नागदा की सैर कर ली जाये, मैं बाज़ार घूमते घूमते बाज़ार के बीचों बीच पहुँच गया, यहाँ कुछ महिलाऐं एवं पुरुष धरने पर बैठे हुए, वहां पर लगे बोर्ड पढने के बाद पता चला के वो सब्जी भाजी वाले हैं, जिनकी जगह छीन ली गयी है, कहो तो उनकी रोजीरोटी छीन ली, वो अपनी मांग को लेकर पिछले सोमवार से बैठे हुए हैं, दिलचस्प बात तो ये है के पिछले सोमवार से जयादातर नागदा वासिओं ने सब्जी का स्वाद चखकर नहीं देखा, क्योंकि वो सब्जी नहीं ला रहे, पता नहीं ये कब तक चलेगी, पर मैं तो इस पोस्ट के साथ बठिंडा के लिए रवाना हो जऊंगा, बस दुआ करता हूँ, नागदा वासिओं को सब्जी मिले और सब्जी वालों को उनकी जगह, तब तक के लिए इजाजत चाहूँगा, मैं गूगल की गूगल इंडिक ट्रांस्लितेरेशन लब्स का अति आभारी हूँ, जो हिंदी लिखने में हर जगह सही हो रही है.

18 वर्ष बाद भी नहीं मिला इंसाफ

राजीव गांधी की पुण्यतिधि पर 18 की उम्र में कदम रखते ही एक भारतीय को मताधिकार हासिल हो जाता है, इंसान किशोरावस्था पार कर यौवन में कदम रखता है, 18 साल का सफर कोई कम नहीं होता, इस दौरान इंसान जिन्दगी में कई उतार चढ़ाव देख लेता है, लेकिन अफसोस की बात है कि 18 साल बाद भी कांग्रेस स्व.राजीव गांधी को केवल एक श्रृद्धांजलि भेंट कर रही है, इन 18 सालों में हिंदुस्तान की सरकारें उस साजिश का पर्दाफाश नहीं कर पाई, जिसके तहत आज से डेढ़ दशक पहले 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में एक जनसभा के दौरान लिट्टे के एक आत्मघाती हमलावर ने राजीव गांधी की सांसें छीन ली थी. वो हमला एक नेता पर नहीं था, बल्कि पूरे देश के सुरक्षातंत्र को ठेंगा दिखाना था, मगर हिंदुस्तानी सरकारें आई और चली गई, मगर राजीव गांधी की हत्या के पीछे कौन लोग थे, आज भी एक रहस्य है. सच सामने भी आ जाता लेकिन राजीव गांधी की 18वीं पुण्यतिथि से पहले ही श्रीलंकाई सेनाओं ने कुख्यात हिंसक आंदोलन के नेतृत्वकर्ता लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) प्रमुख वेलुपिल्लई प्रभाकरण को सदा के लिए चुप करवा दिया.हत्या के पीछे जिसका सबसे ज्यादा हाथ मानना ज

काले चिट्ठे खोलती 'पत्रकार की मौत'

पिछली बार जब बठिंडा गया था, तो कुछ पंजाबी किताबें खरीदने का मन हुआ, ताकि अपनी जन्मभूमि से दूर कर्मभूमि पर कुछ तो होगा, जो मातृभाषा से मुझे जोड़े रखेगा। बस फिर क्या था, पहुंच गया रेलवे स्टेशन के स्थित एक किताबों वाली दुकान पर, जहां से अक्सर हिन्दी पत्रिकाएं खरीदा करता था, और कभी कभार किताबें, लेकिन इस बार किताबे लेने का मन बनाकर दुकान के भीतर घुसा था। मैंने कई किताबें देखी, लेकिन हाथ में दो किताबें आई, जिसमें एक थी 'पत्रकार दी मौत' हिन्दी में कहूं तो 'संवाददाता की हत्या'। इस किताब का शीर्षक पढ़ते एक बार तो ऐसा लगता है, जैसे ये कोई नावल हो, जिसका नायक कोई पत्रकार, जिसकी किसी ने निजी रंजिश के चलते हत्या कर दी हो, मगर किताब खोलते ही हमारा ये भ्रम दूर हो जाता है, क्योंकि पूरी किताब में कहीं भी पत्रकार की शारीरिक हत्या नहीं होती, हां जब भी होती है तो उसके आदर्शों की हत्या, पत्रकारिता के आदर्शों की हत्या. 'पत्रकार दी हत्या' को शब्दों में बयान करने वाला लेखक गुरनाम सिंह अकीदा खुद भी पत्रकारिता की गलियों से गुजर चुका है. उसने इस किताब में अपने आस पास घटित हुई घटनाओं का उल्