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द वरुण-घटिया सोच, जहरीली जुबां

'नफरती ठाकरे' के बाद घटिया सोच की उपज इसकी अगली कड़ी है 'द वरुण-घटिया सोच, जहरीली जुबां, इस फिल्म को बड़े पर्दे पर नहीं बल्कि छोटे पर्दे पर पेश किया जा रहा है। इसका नायक राज ठाकरे की वंश का नहीं, लेकिन उसकी सोच एवं उसके शब्द उसका कनेक्शन राज ठाकरे से जोड़ते हैं. इसका जन्म तो एक गांधी परिवार में हुआ, लेकिन गांधी होने के नाते महात्मा गांधी के बताए हुए रास्ते पर चलना इसको स्वीकार नहीं, जहां महात्मा कहते थे कि अगर कोई एक थप्पड़ मारे तो दूसरी गाल आगे कर दो, लेकिन ये न समझ मियां कहते हैं कि उस हाथ को काट दो॥वो किसी ओर पर भी उठने लायक न रहे. इस फिल्म के नायक का ये बयान सुनकर तो हर कोई दंग रह गया होगा, कहां मानव-जीव हित के लेख लिखने वाली मेनका गांधी और कहां ये जुबां से नफरत का जहर फेंकने वाला वरुण, वरुण के ऐसे 'फूट डालो, राज करो' वाले बयान सुनकर तो लगता है कि मेनका गांधी लिखने में इतना व्यस्त हो गई कि वो अपने बेटे को राजनीति के दांवपेच सिखाने एवं भारतीय संसकार देने ही भूल गई. आज से पहले तो हिंदुस्तान की सरकारी शिक्षा प्रणाली पर क्लर्क पैदा करने का आरोप लगता था, लेकिन विदेश पढ़ाई

क्रिकेटरों पर हमला-एक चेतावनी

एक तरफ यहां भारतीय क्रिकेट टीम के न्यूजीलैंड की पिच पर निरंतर विकेट गिर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान से खबर आई कि श्रीलंकाई टीम पर कुछ हथियारबंद हमलावरों ने गोलीबारी कर दी, जिसमें तकरीबन आठ पुलिसकर्मी चल बसे जबकि श्रीलंका की आधी से ज्यादा टीम बुरी तरह घायल हो गई. इस खबर के एकाएक आने से मुझे इमरान खान का एक बयान याद आ गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान में क्रिकेटरों को आतंकवादियों से कोई खतरा नहीं, वो पाकिस्तान की सरजमीं पर बिल्कुल सुरक्षित हैं, लेकिन जब ये ख़बर आज इमरान ने सुनी होगी तो उनको पता चल गया होगा कि देश से दूर बैठकर बयान देना कितना सरल एवं आसान. आज के हमले में महेला जयवर्धने भी घायल हुए, जिन्होंने कभी कहा था कि पाकिस्तान की सरजमीं पर खेलने से वो पाकिस्तान का अहसान लौटा देंगे, जो पाकिस्तान की टीम ने श्रीलंका में बुरे वक्त पर खेलकर उनपर किया था. मगर महेला जयवर्धने को इस बात की बिल्कुल भनक तक न थी कि हमलावर इस तरह उन पर कहर बनकर टूटेगें. आज जो कुछ लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम के समीप घटित हुआ, वो पाकिस्तान की जनता के असुरक्षित होने के अहसास के अलावा भारत के लिए किसी चेताव

कहां छुपा गया फिजा का चांद ?

सच्चा प्यार हर किसी को नहीं मिलता और जिसे यह मिलता है वह खुशनसीब होता है. ये शब्द किसी और के नहीं थे, बल्कि फिजा के चांद के थे, जो आजकल मीडिया और अपनी फिजा से दूर कहीं जाकर छुप गया. आलम ये है कि इधर दिसम्बर महीने में फिजा की मोहब्बत को सीना ठोककर स्वीकार करने वाले चांद मोहम्मद पता नहीं आजकल किन बादलों की ओड़ में जाकर छुप गया. उधर, प्यार में मिली बेवफाई से दुखी चांद की फिजा ने नींद की ज्यादा गोलियां खाकर आत्महत्या करने का प्रयास किया. आखिर किस मोड़ पर पहुंच गई चांद फिजा की प्रेम कहानी. इस प्रेम कहानी पर तो एक फिल्म बनने वाली थी, जिसका नाम था 'फिजा पर फिदा चांद', इस फिल्म का तो पता नहीं लेकिन ऐसा लगता है कि इस प्रेम कहानी में आए मोड़ के कारण बॉलीवुड में जरूर कोई फिल्म बने गई. ये वो ही फिजा है, जिसके लिए हरियाणा के पूर्व डिप्टी सीएम चंद्रमोहन से चांद मोहम्मद में बदल गए थे. चांद तो नजर नहीं आ रहा, लेकिन उसके डूबने के बाद फिजा ने मौत को गले लगाने की कोशिश की. यहां पर मैं एक बात तो कहूंगा कि जो अपने मां बाप का नहीं हुआ, अपने बीवी बच्चों का नहीं हुआ एवं अपने धर्म का नहीं हुआ तो वो चांद फ

नहीं चाहिए ऐसी सेना

हिन्दुस्तान को गांधी का देश कहा जाता है, जो अहिंसा के पुजारी के रूप में पूरे विश्वभर में प्रसिद्ध हैं. इस धरती पर भगवान श्री राम, रामभगत हनुमान, श्री कृष्ण एवं गुरू नानक देव जैसे महापुरुषों ने जन्म लिया, जिन्होंने समय समय पर जनता का कल्याण किया. लेकिन उस वक्त बहुत दुख होता है, जब कुछ घटिया मानसिकता एवं गंदी सोच के मालिक इन महान शख्सियतों को अपना आदर्श बताकर उसकी आढ़ में बुरे एवं निंदनीय कृत्यों को अंजाम देते हैं.पिछले दिनों मंगलूर के एक पब में जो कुछ श्रीराम सेना के वर्करों ने किया, उसको देखकर लगता है कि वो राम की सेना नहीं बल्कि किसी रावण की सेना है, जो राम के नाम का मखौटा पहनकर राम के नाम को कलंकित कर रही है. जैसे कुछ अन्य हिन्दुवादी संगठन हिन्दुत्व को बदनाम कर रहे हैं. ओशो ने सही कहा था कि किसी महात्मा को भय अपने आलोचकों से नहीं बल्कि अपने उन कुछ न-समझ भगतों एवं मानने वालों से होता है, जो उसको मारने के लिए तत्पर्य रहते हैं। अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी को किसी गोडसे ने नहीं बल्कि उनको मानने वालों ने तिल तिलकर मारा है. गोडसे ने तो केवल गांधी के शरीर की हत्या की, लेकिन कुछ घटिया किस्

ओबामामय हुआ अमेरिका

बेशक ये शीर्षक केवल अमेरिका के ओबामामय होने की बात कर रहा हो, लेकिन हकीकत तो ये है कि ब्लॉग से लेकर न्यूज पोर्टल एवं प्रिंट मीडिया से लेकर इलैक्ट्रोनिक मीडिया तक ओबामा छाए हुए हैं. ओबामा अमेरिकावासियों के लिए उम्मीद की एक किरन नहीं बल्कि उम्मीद का सूर्य है. अमेरिकावासियों के अलावा भी बड़े बड़े राजनीतिक विशेषज्ञों का भी ये मानना है कि ओबामा रूपी सूर्य की रोशनी से अमेरिका एक बार फिर से चमक उठेगा. वहीं कुछ लोग इस को ओबामा के लिए कांटों भरा ताज भी मान रहे हैं क्योंकि ओबामा के आगे बहुत गंभीर चुनौतियां हैं, जिन पर पार पाने का मादा उनमें है कि नहीं ये तो आने वाले साल ही बताएंगे, फिलहाल तो अमेरिका वासी खुशी से इस तरह लबालब हैं जैसे उनको आजादी मिल गई हो या फिर किसी नए अवतार ने इस धरती पर जन्म ले लिया हो.वैसे भी ओबामा को किसी अवतार से कम नहीं आंका जा रहा. अब देखना तो ये दिलचस्प होगा कि विश्वशक्ति की हॉट सीट पर बैठने वाला ओबामा चुनौतियों पर विजय कैसे पाता है. ओबामा के लिए चुनौतियों अमेरिका को मंदी की मार से उभरना, इराक से अमेरिकी सैना की वापसी, अफगानिस्तान में शांति लाना, आतंकवाद के विरुद्ध जंग,

आतंकियों का मुख्य निशाना

जयपुर, बैंग्लूर, अहमदाबाद, सूरत ( इस शहर में भी धमाके करने की साजिश थी), दिल्ली और अब मुम्बई को आतंकवादियों द्वारा निशाना बनना, इस बात की तरफ इशारा करता है कि आतंकवादी अब देश के लोगों को नहीं बल्कि देश की आर्थिक व्यवस्था में योगदान देने वाले विदेशियों के रौंगटे खड़े कर देश की आर्थिक व्यवस्था को तहस नहस करना चाहते हैं, जिसको वैश्विक आर्थिक मंदी भी प्रभावित नहीं कर पाई. आतंकवादी मुम्बई में एक ऐसी घटनाओं को अंजाम देने के लिए घुसे थे, जिसकी कल्पना कर पाना भी मुश्किल है, मगर आतंकवादियों ने जितना किया वो भी कम नहीं देश की आर्थिक व्यवस्था को बिगाड़ने के लिए, उन्होंने ने लगातार 50 से ज्यादा घंटों तक मुम्बई नगरी को दहश्त के छाए में कैद रखकर पूरे विश्व में भारत की सुरक्षा व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी. हर देश में भारत की नकारा हो चुकी सुरक्षा व्यस्था की बात चल रही है और आतंकवादी भी ये चाहते हैं. आज की तारीख में भारत विश्व के उन देशों में सबसे शिखर पर है, जिस पर वैश्विक आर्थिक मंदी का बहुत कम असर पड़ा है और अमेरिका से भारत की दोस्ती इस्लाम के रखवाले कहलाने वालों को चुभती है, जिनका धर्म से दूर दूर तक क

क्रिकेट पर नस्लीय टिप्पणियों का काला साया

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क्रिकेट खेल मैदान अब धीरे धीरे नस्लीय टिप्पणियों का मैदान बनता जा रहा है. आज खेल मैदान में खिलाड़ी खेल भावना नहीं बल्कि प्रतिशोध की भावना से कदम रखता है. वो अपने मकसद में सफल होने पर सम्मान महसूस करने की बजाय अपने विरोधी के आगे सीना तानकर खड़ने में अधिक विश्वास रखता है. यही बात है कि अब क्रिकेट का मैदान नस्लवादी टिप्पणियों के बदलों तले घुट घुटकर मर रहा है. इसके पीछे केवल खिलाड़ी ही दोषी नहीं बल्कि टीम प्रबंधन और बाहर बैठे दर्शक भी जिम्मेदार हैं. अगर टीम प्रबंधन खिलाड़ियों के मैदान में उतरने से पहले बोले कि खेल को खेल भावना से खेलना और नियमों का उल्लंघन करने पर कड़ी सजा होगी तो शायद ही कोई खिलाड़ी ऐसा करें. लेकिन आज रणनीति कुछ और ही है मेरे दोस्तों. आज की रणनीति 'ईंट का जवाब पत्थर' से देने की है. जिसके चलते आए दिन कोई न कोई खिलाड़ी नस्लवादी टिप्पणी का शिकार होता है. यह समस्या केवल भारतीय और आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों की नहीं बल्कि इससे पहले दक्षिण अफ्रीका के खिलाड़ी हर्शल गिब्स ने भी पाकिस्तानी खिलाड़ियों पर टीका टिप्पणी की थी. खेल की बिगड़ती तस्वीर को सुधारने के लिए खेल प्रबंधन को ध्यान

अंत तक नहीं छोड़ा दर्द ने दामन

कोई दर्द कहां तक सहन कर सकता है, इसकी सबसे बड़ी उदाहरण है पिछले दिनों मौत की नींद सोई बेनज़ीर भुट्टो..जो नौ वर्षों के बाद पाकिस्तान लौटी थी..सिर पर कफन बांधकर..उसको पता था कि उसकी मौत उसको बुला रही थी, मगर फिर भी क्यों उसने अपने कदमों को रोका नहीं. इसके पिछे क्या रहा होगा शोहरत का नशा या फिर झुकेंगे नहीं मर जाएंगे के कथन पर खरा उतरने की कोशिश.. कुछ भी हो, असल बात तो ये है कि दर्द ने बेनजीर भुट्टो का दामन ही नहीं छोड़ा. स्व. इंदिरा गांधी की शख्सियत से प्रभावित और अपने पिता जुल्फिकार अली भुट्टो से राजनीतिक हुनर सीखकर राजनीतिक क्षेत्र में उतरी बेनज़ीर भुट्टो बुर्के से चेहरे को बाहर निकालकर देश की सत्ता संभालने वाली पहली महिला थी. बेनज़ीर भुट्टो स्व. इंदिरा गांधी से पहली बार तब मिली थी, जब बांग्लादेश युद्ध के बाद 1972 में जुल्फिकार अली भुट्टो शिमला समझौते के लिए भारत आए थे, इस दौरन भुट्टो भी उनके साथ थी। बेनज़ीर की हँसती खेलती जिन्दगी में दर्द का सफर तब शुरू हुआ, जब 1975 में बेनजीर के पिता को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर दिया गया था और उनके विरुध एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की हत्या मुकदमा

2007 ने किसको क्या दिया, किसी से क्या छीना

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किसी ने ठीक ही कहा है कि समय से बलवान कोई नहीं और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता, ये बात बिल्कुल सत्य है, अगर आप आपने आसपास रहने वाले लोगों या खुद के बीते हुए दिनों का अध्ययन करेंगे तो ये बात खुदबखुद समझ में आ जाएगी. चलो पहले रुख करते हैं बालीवुड की तरफ क्योंकि ये मेरा पसंदीदा क्षेत्र है. जैसे ही 2007 शुरू हुआ छोटे बच्चन यानी अभिषेक के दिन बदल गए, उनकी इस साल की पहली फिल्म 'गुरू' रिलीज हुई, इस फिल्म ने अभिषेक को सफलता ही नहीं बल्कि करोड़ों दिलों की धड़कन 'ऐश' लाकर इसकी झोली में डाल दी, इसके बाद आओ हम चलते खिलाड़ी कुमार की तरफ ये साल उनके लिए बहुत ही भाग्यशाली साबत हुआ क्योंकि उनकी इस साल रिलीज हुई हर फिल्म को दर्शकों ने खूब प्यार दिया, जिसकी बदौलत अक्षय कुमार सफलता की सीढ़ियों को चढ़ते हुए सफलता की शिख़र पर जाकर बैठ गए. इस साल भारी झटका बालीवुड के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली को लगा क्योंकि उनकी पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म को इस साल की सबसे फ्लाप फिल्मों में गिना जा रहा है, बेशक संजय मानते हैं कि उनकी फिल्म बहुत अच्छी थी लेकिन समीक्षाकारां ने फिल्म की आलोचना इ

पंजाब में राजनीति और बाबावाद

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वैसे तो पूरे भारतवर्ष में ही बाबावाद फैला हुआ है, किंतु पंजाब की राजनीति तो चलती ही बाबावाद से, इसमें कोई शक नहीं कि पंजाब की राजनीति में बाबावाद का हस्तक्षेप है, पंजाब में जिनते भी साधू संत प्रसिद्ध हुए वे सब राजनीति में आए और राजनीति में जगह पाने के बदले कई साधू संतों को जान देकर कीमत चुकानी पड़ी है, बेशक वे संत हरचंद सिन्ह लौंगवाल हों, चाहे फिर विश्वप्रसिद्ध जरनैल सिन्ह भिंडरांवाला हों. इसके अलावा पंजाब में जब भी किसी बाबा के खिलाफ दुष्प्रचार होता है तो पंजाब की राजनीतिक पार्टियों को बहुत नुकसान होता है क्योंकि जिन बाबाओं के खिलाफ दुष्प्रचार होता है, उनके बल तो राजनीति चलती है. उदाहरण के तौर पर कुछ महीने पहले पंजाब में हुए डेरा सच्चा सौदा सिरसा और शिरोमणि गुरूद्बारा प्रबंधक कमेटी के बीच हुए संघर्ष को ही लें, इसके पीछे भी तो राजनीति थी. शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस पंजाब में दो बड़े दल हैं, अकाली दल की समर्थक भाजपा है. दोनों पार्टियों के नेताओं का डेरा सच्चा सौदा सिरसा में आना जाना है क्योंकि डेरा सच्चा सौदा के पंजाब में काफी श्रद्धालु हैं, लेकिन अकाली दल का इस बार डेरा के प्रति रोष इस