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रिक्‍शे वाला बना ब्‍लॉगर

वैसे थोड़ा पागल तो मैं शुरू से ही रहा हूं. और यक़ीन मानिए, ये अपने-आप में एक पूरा जवाब है कि आखिर मैं एक रिक्शावाला क्यों बना. लेकिन अगर आप इससे ही संतुष्ट नहीं हैं तो आइए मिलकर कोशिश करते हैं जवाब ढूंढने की, क्योंकि शायद इससे पहले मैंने भी कभी इतनी गहराई से इस बारे में नहीं सोचा! ज़्यादातर जन कल्याण योजनाओं के आलोचक अक्सर ये तर्क देते हैं कि "सरकार ज़मीन से जुड़ी नहीं है". वो कहते हैं कि कि लोगों की क्या ज़रूरते हैं, ये एसी कमरों में बैठने वाले मंत्रियों और नौकरशाहों को पता ही नहीं है. जिस तरह की विवादास्पद नीतियां सरकार और योजना आयोग द्वारा बीते कुछ सालों में लाई गई हैं, उनसे इस तर्क को और भी बल मिलता है. तो मुझे कहीं-न-कहीं ये लगा कि अगर मुझे अपने लोगों को बेहतर तरीके से जानना है और ये समझना है कि ग़रीबी क्या होती है, तो एक दर्शक की तरह इसे समझ पाना थोड़ा मुश्किल होगा. इसके लिए मुझे वो ज़िंदगी जीनी होगी. मगर ग़रीबी के तो कई रूप हैं और एक रिक्शे वाले से कहीं ज़्यादा भयावह. लेकिन शायद एक रिक्शा वाला बनना मुझे सबसे ज़्यादा सहज और व्यावहारिक लगा. वो इसलिए क्योंकि साइकिल चलान

आरटीआई का उपयोग और आपकी छवि

सूचना का अधिकार कानून का यदि आप उपयोग नहीं करते हैं तो समझ लीजिये कि आप इस संसार के सबसे अच्छे लोगों में हैं और इसका उपयोग करते हैं तो आप उन लोगों के बीच खलनायक के तौर पर माने जाएंगे जिनका आपके हस्तक्षेप से कुछ नुकसान होने की आशंका है। पहले तो आपको समझाया जाएगा कि आप भले आदमी हैं। आपकी ऐसी छवि नहीं है और जब आप इन बातों में नहीं आएंगे तो वे कहेंगे आखिर आप भी वैसे ही निकले। लब्बोलुआब यह है सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगने वाले किसी भी उस व्यक्ति की जो आमतौर पर किसी विवादों में नहीं पड़ता है। मुझे पता नहीं कि आपने आरटीआई अर्थात सूचना के अधिकार के तहत कोई जानकारी मांगने का कभी कोई प्रयास किया या नहीं और यदि इस कानून का उपयोग आप कर रहे हैं तो आपके अनुभव की भी मुझे कोई जानकारी नहीं। इस मामले में मैं अपना अनुभव जरूर आज आपसे बांटना चाहूंगा। आरटीआई है क्या, यह तो अब लोगों, खासतौर पर इलिट क्लास को बताने की जरूरत नहीं है। इसका उपयोग कहां और कैसे करना, यह भी उन्हें मालूम है और यह भी कि इसके उपयोग से उनके हितों पर क्या असर पड़ सकता है। कभी इस कानून का सच जानना है तो आप सीधे न सही, उस व्यक्

जसपाल भट्टी वन मैन आर्मी अगेंस्ट करप्शन

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जसपाल भट्टी को कॉमेडी किंग भी कहा जाता रहा है और वे भारतीय टेलीविजन और सिने जगत का एक जाना-पहचाना नाम रहे हैं। भट्टी को आम-आदमी को दिन-प्रतिदिन होने वाली परेशानियों को हल्के-फुल्के अंदाज में पेश करने के लिए जाना जाता रहेगा। उनका जन्म 3 मार्च 1955 को अमृतसर, पंजाब में हुआ था। उनकी पत्नी, सविता भट्टी हमेशा उनके कार्यों में उनका सहयोग करती थी। दूरदर्शन पर प्रसारित उनके सबसे लोकप्रिय शो – फ्लॉप शो में उनकी पत्नी सविता भट्टी ने अभिनय करने के साथ ही उसका प्रोडक्शन भी किया। भट्टी ने पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज से इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री ली लेकिन उनका मन इंजीनियिंग में नहीं रमा और वे धीरे-धीरे हास्य-व्यंग्य और कार्टून की दुनिया में रमने लगे। कॉलेज के दिनों में ही वे अपने नुक्कड़ नाटकों से लोगों में काफी लोकप्रिय हो गए थे। फिल्मों एवं टेलीविजन की दुनिया में आने से पहले वे ट्रिब्यून में कार्टून बनाते थे। कार्टूनों के माध्यम से वे व्यवस्था में मौजूद खामियों को बखूबी उजागर करते थे, जनता उनके कार्टूनों को बहुत पसंद करती थी और चटकारे लेकर पढ़ती थी। भट्टी की मौजूदगी से फिल्मों एव

खुर्शीद और कांग्रेसी ता ता थैय्या

वाकई, अब तो यकीन हो गया है कि कांग्रेस महासचिव दि‍ग्विजय सिंह की दिमागी हालत ठीक नहीं है. उन्हें स्पेशल ट्रीटमेंट दिए जाने की दरकार है. वे कहते हैं कि सलमान खुर्शीद और उनकी पत्नी ने शालीनता से  सारे सवालों का जवाब दे दिया है ऐसे में खुर्शीद के खिलाफ कुछ करने को बचता ही नहीं है. गलत केजरीवाल हैं खुर्शीद नहीं. (लाल रंग के शब्दों पर ख़ास ध्यान दें.) इसी को कहते हैं, पहले चोरी फिर सीना ज़ोरी. चोरों को यह ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि अब माना बदल गया है. अब 'सीसीटीवी कैमरा' है, जो चोर को पकड़वाने में बड़ा मददगार है. पर... चोर हैं कि पुराने ढर्रे पर चोरी किए चले जा रहे हैं. सिनेमा भी नहीं देखते. धूम और धूम 2 देखी होती तो चोरी का कोई नया तरीका इज़ाद करते. खैर.. हाल ही में एक रिपोर्ट सामने आई है. इसमें कहा गया है कि डॉ. ज़ाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट ने ऐसे गांवों में भी कैंप लगा दिए जो वास्तव में हैं ही नहीं. वाह क्या बात है. यहां दो संभावनाएं नज़र आती हैं - एक संभावना यह है कि वे गांव हैं और भारत सरकार अभी तक उन तक पहुंच नहीं पाई है, उन्हें पहचान नहीं पाई है. हो सकता है कि सल

“Engलिश ग्रंथि से ग्रसित हिन्‍दी फिल्‍म”

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फिल्‍म “इंग्‍लिश-विंग्‍लिश” का नाम सुनते ही ऐसा लगता है, मानों फिल्‍म की कहानी समाज में छाए अंग्रेजी के जादुई छद्म प्रभाव को कुछ हद तक कम करने वाली और इंग्‍लिश नहीं जानने वालों की हीनग्रंथि में आत्‍मविश्‍वास का रस घोलने वाली होगी, लेकिन इस फिल्‍म को देखने के बाद पता चलता है कि यह फिल्‍म इंग्‍लिश नहीं जानने वालों को बडी ही कुशल संवेदना के साथ उनकी औकात दिखा देती है, वहीं चालाकी के साथ अंग्रेजी सीखने के लिए मन में हवा भी भर देती है. व“इंग्‍लिश-विंग्‍लिश” देखने में बडी ही बढिया, शानदार और मनोरंजन प्रधान पारवारिक फिल्‍म है. इसका स्‍वस्‍थ परिवेश किसी भी दर्शक को बडी कुशलता के साथ अंग्रेजी सीखने के लिए ललचा सकता है, इस बात को ध्‍यान में रखते हुए कि अंग्रेजी नहीं सीखने पर इस बाजारवादी समाज में उसकी हालत, घबराई, डरी, सहमी और सबसे छिपती-फिरती “शशि” की तरह ही हो सकती है. दरअसल, यह फिल्म पूंजीवादी मानसिकता से ग्रसित एक ऐसी फिल्‍म है, जिसमें अंग्रेजी को हमारे परिवेश में रिश्‍तों की अहमियत, आपसी स्‍नेह, सम्‍मान और आत्‍मीयता का नया मानक बनाकर उभारा गया है. फिल्‍म में “शशि” उर्फ श्रीदेवी जब अपनी ब

कार्टूनिस्‍ट असीम त्रिवेदी को सलाह

जनसत्ता के संपादक एवं लेखक ओम थानवी  कार्टूनिस्‍ट असीम त्रिवेदी के बारे में लिखते हैं "असीम त्रिवेदी को टीवी चैनलों पर बोलते और अपनी ही बिरादरी के लोगों यानी कार्टूनकारों से उलझते देखकर रसूल हमज़ातोव की एक सूक्ति याद आई: मनुष्य को बोलना सीखने में तीन साल लगते हैं, मगर क्या बोला जाए यह सीखने में उम्र लग जाती है!! बहादुर असीम, इस प्रसिद्धि और सहानुभूति को पहले पचाओ. कार्टून की कला अंततः विवेक और संयम से निखरती है. शब्द हों, चाहे रेखाएं. कलाकार अपने काम से पहचाना जाएगा, क्या बोलता है इससे नहीं. देशद्रोह का खेल सरकार हार गयी. पर अपनी कला की बाज़ी तुम्हें अभी जीतनी है. आकस्मिक ख्याति उसमें रोड़ा न बने. यही शुभाशंसा है।" न्‍यूज 24 मैनेजिंग एडिटर,अजीत अंजुम   कार्टूनिस्‍ट असीम के शब्‍दों का विश्‍लेषण करते हुए कुछ यूं लिखते हैं, "असीम त्रिवेदी देशद्रोह के आरोप में जेल क्या हो आए ....मीडिया में तीन दिनों तक छाए क्या रहे ....अपने को हीरो मानने लगे हैं ...अब उन्हें लगने लगा है कि दुनिया भर के कार्टूनिस्ट एक तरफ और वो एक तरफ ....आज शाम न्यूज 24 पर एक कार्यक्रम में असीम हमारे साथ थे.

शादी पर पापा का बेटे को पत्र

तुमने 'दु:खी शादीशुदा लोगों' और आलोचकों द्वारा बनाए गए सारे चुटकले सुने होंगे। अब, अगर किसी और ने तुम्‍हें यह न सुझाया हो, तो यह दूसरा नजरिया है। तुम मानव जिन्‍दगी के सबसे सार्थक रिश्‍ते में बंध रहे हो। इस रिश्‍ते को तुम जैसा बनाना चाहो वैसा बना सकते हो। कुछ लोग सोचते हैं कि उनकी मर्दानगी तभी साबित होगी, जब वे लॉकर रूम में सुनी सारी कहानियों को जिन्‍दगी में उतारेंगे। वे निश्‍िचंत रहते हैं कि जो बात पत्‍नी को पता ही नहीं उससे वह दुखी नहीं होगी। सच्‍चाई ये है कि किसी तरह, कहीं अंदर से, उसके द्वारा कॉलर पर लिपस्‍टिक का निशान पाए जाने या तीन बजे तक कहां थे, के लचर बहानों के पकड़े जाने के बिना ही पत्‍नी को पता चल जाता है और इसी जानकारी के साथ, इस रिश्‍ते की गहराई में कुछ कमी आ जाती है। ऐसे पति जो अपनी शादी का रोना रोते हैं, जबकि उन्‍होंने खुद ही रिश्‍ता खराब किया है, कहीं ज्‍यादा हैं, उन पत्‍नियों से, जिन पर यह इल्‍जाम लगाया जाता है। भौतिक विज्ञान का एक पुराना नियम है कि तुम एक चीज से उतना ही निकाल सकते हो, जितना तुम उसके अंदर डालते हो। जो व्‍यक्‍ित अपने हिस्‍से का आधा ही शादी पर न

क्‍यूं महान है टाइम पत्रिका एवं विदेशी मीडिया ?

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प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम और सीएनएन के लिए काम करने वाले पत्रकार फरीद ज़कारिया को अपने एक कॉलम के लिए दूसरे अखबार की नकल करना महंगा पड़ गया है. टाइम और सीएनएन ने फरीद ज़कारिया को निलंबित कर दिया है. रुपर्ट मर्डॉक की कंपनी फॉक्स न्यूज़ द्वारा फोन हैकिंग में शामिल होने का मामला सामने आने के बाद अमरीकी पत्रकारिया जगत का ये दूसरा सबसे बड़ा विवाद है. भारतीय मूल के फरीद ज़कारिया विदेशी मामलों के विशेषज्ञ पत्रकार हैं और लंबे समय से टाइम और सीएनएन के लिए स्तंभ लिखते रहे हैं. ज़कारिया सीएनएनएन पर 'जीपीएस' नामक एक लोकप्रिय टेलिविज़न शो भी प्रस्तुत करते हैं. फरीद ज़कारिया भारत में इस्लामी मामलों के जाने-माने चिंतक रहे रफ़ीक ज़कारिया के बेटे हैं. कम उम्र में ही वो पढ़ाई के लिए हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय चले गए थे. मात्र 26 साल की उम्र में वो विदेशी मामलों की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘फॉरेन अफेयर्स’ के संपादक हो गए. विदेश मामलों और राजनीति से जुड़े ज़कारिया के लेख और उनकी किताबें आम लोगों और नीति निर्माताओं के बीच ही नहीं बल्कि अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा जैसे नेताओं के बीच भी काफी लोकप्रिय रही

अंजलि गोपालन पर 'नाज़' है

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इनसे मिलिए ये किसी बड़ी पार्टी की मुखिया नहीं है, कोई सेना की अध्यक्षा नहीं है, किसी बड़े आन्दोलन का हिस्सा नहीं है, ये महिला अधिकारों के लिए भी नहीं लड़ रही, ये कोई बड़ी क्रान्ति नहीं कर रही है पर फिर भी टाइम्स की 100 प्रभावशाली महिला में शामिल है कैसे ? सेवा से, वर्षो से अपनी लगन, अपने सेवा भाव से एड्स पीडितो की मदद कर रही अंजलि गोपालन ने त्यज्य एड्स रोगियों पर काम करना शुरू किया जब ये रोग दुनिया में महामारी बनता जा रहा था वे सही मायनों में भारत की फ्लोरेंस नाईटिनगेल है, उनका नाज़ फाउंडेशन आज भी उसी कार्य में जुटा है. वे टीवी पर नहीं दिखती, किताबो के लेबेल पर नहीं छपती, मार्क्स की बात नहीं करती सुकरात की बात नहीं करती. उन्हें सेवा से मतलब है, जिसमे वे कोई कोर कसार नहीं रखती. पत्रकार एवं न्‍यूज एंकर पूजा शुक्‍ला के फेसबुक से

मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं

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मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं गैरों से नहीं अपनों से ही डरता हूं मैं शिकारी बैठे हैं ताक में यहां यही सोच के बहुत ऊँचा उड़ता हूं मैं मुझे है अपनी मंजिल की तलाश उसे ही हर पल ढूंडता हूं मैं वक़्त की परवाह नहीं है मुझको वक़्त से भी तेज़ दौड़ता हूं मैं रास्ता बहुत ही कठिन है मेरा यही सोच सब कुछ करता हूं मैं उम्मीद का दामन थामा है मैंने उम्मीद से ही उम्मीद करता हूं मैं मौत को अपने साथ लिए चलता हूं मैं गैरों से नहीं अपनों से ही डरता हूं मैं अमित राजवंत के फेसबुक खाते के सौजन्‍य से

क्‍यूंकि कभी पकड़ नहीं गया

@ईमानदारी - एक कंपनी ने अपने आवेदन पत्र में लिखा क्‍या कभी आपको गिरफ्तार किया गया है? आवेदक ने उत्तर दिया नहीं, दूसरा सवाल था, अगर नहीं तो क्‍यूं, आवेदक ने बड़ी मासूमियत से उत्तर दिया, क्‍यूंकि कभी पकड़ नहीं गया। @सोच -  याद रहे कि हम किसी को हराने की तैयारी नहीं कर रहे, क्‍यूंकि हमारा लक्ष्‍य इतना छोटा नहीं। @भरोसा- मुझे पता है, जो हम करने जा रहे हैं वो आसान नहीं, लेकिन असंभव भी तो नहीं। @निर्णय - ओ जे सिम्‍पसन ने कहा था, जिस दिन आप अपने बारे में पूरी जिम्‍मेदारी ले लेते हैं। जिस दिन आप बहाने बनाना बंद कर देते हैं, उसी दिन आप चोटी की ओर की यात्रा शुरू करते हैं। @यादों के झारोखों से -  मुझे लेकर अफवाहों का बाजार हमेशा गर्म रहा, मेरा कार्य क्षेत्र भले कोई भी रहा हो। मैं जिस क्षेत्र में गया, वहां अफवाहें भी मेरे पीछे पीछे चली आई। कभी कभी सोचता हूं, कि कहीं बॉलीवुड जाने का सपना पूरा हो जाता तो यह अफवाहें मुझे हर रोज अख़बारों में स्‍पेस दिलाती। फिर सोचता हूं कि लोग कितने फुर्सत में रहते हैं, जो दूसरों पर निगाह रखकर उनकी बात दूसरों तक पहुंचाते हैं, अफवाहों में पुष्‍टि नामक शब्‍द न

किस तरह हंसते हो

शाबाद अहमद की कलम से किस तरह हंसते हो तुम लोग बता दो यारो मुझको भी हंसने की तरकीब सुझा दो यारो मैं तो जब भी हंसता हूं, तो रूखसार फड़क जाते हैं जिनसे मेरे गेंसु गिले हुए जाते हैं हौंसले जिनसे मेरे ढीले हुए जाते हैं मेरी मुश्‍किल का कोई तो हल बता दो यारो मुझको भी हंसने की तरकीब सुझा दो यारो किस तरह हंसते हो तुम लोग बता दो यारो आज गमगीन हूं, किस्‍मत ने बहुत मारा है और मजलूम को आहों ने भी ललकारा है किस तरह कटेगी जिन्‍दगी, यही गम सारा है गम के म्‍यूजियम में मुझ को सजा दो यारो आज शादाब को गीत गमगीन सुना दो यारो मुझको भी हंसने की तरकीब सुझा दो यारो किस तरह हंसते हो तुम लोग बता दो यारो

वो रुका नहीं, झुका नहीं, और बन गया अत्ताउल्‍ला खान

घर में संगीत बैन था। माता पिता को नरफत थी संगीत से। मगर शिक्षक जानते थे उसकी प्रतिभा को। वो अक्‍सर मुकेश व रफी के गीत उसकी जुबान से सुनते और आगे भी गाते रहने के लिए प्रेरित करते। वो परिवार वालों से चोरी चोरी संगीत की बारीकियों को सीखता गया और कुछ सालों बाद घर परिवार छोड़ कर निकल पड़ा अपने शौक को नया आयाम देने के लिए, और अंत बन गया पाकिस्‍तान का सबसे लोकप्रिय गायक जनाब अताउल्‍ला खान साहिब। अताउल्‍ला खान साहिब की पाकिस्‍तानी इंटरव्‍यू तक मैं सादिक साहिब की बदौलत पहुंचा, जिन्‍होंने 35000 से अधिक गीत लिखे और नुसरत फतेह अली खान साहिब व अत्ताउल्‍ला खान के साथ काम किया। सादिक साहेब ने हिन्‍दी, पंजाबी एवं ऊर्द में बहुत से शानदार गीत लिखे, जो सदियों तक बजाए जाएंगे। बेवफा सनम के गीत सादिक साहेब के लिखे हुए हैं, जो जनाम उत्ताउल्‍ला खान ने पाकिस्‍तान में गाकर खूब धूम बटोरी थी, और उनकी बदौलत ही वो गीत भारत में आए। सादिक साहेब कहते हैं कि खान साहिब ने उनको सौ गीत लिखने के लिए कहा था, और उन्‍होंने करीबन तीन चार घंटों में लिखकर उनके सामने रख दिए, जो बेहद मकबूल हुए पाकिस्‍तान और हिन्‍दुस्‍तान में।