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भारत का एक आदर्श गाँव "कपासी"

चप्पे चप्पे कोने कोने की ख़बर देने का दावा करते हुए भारतीय ख़बरिया टैलीविजन थकते नहीं, लेकिन सच तो यह है कि मसाला ख़बरों के दायरे से बाहर निकलते ही नहीं। वरना, भारत के जिस आदर्श गाँव के बारे में, अब मैं बताने जा रहा हूँ, उसका जिक्र कब का कर चुके होते टैलीविजन वाले। इस गाँव को मैंने खुद तो देखा नहीं, लेकिन पत्रकार एवं लेखक स्वयं प्रकाश द्वारा लिखित किताब "जीना सिखा दिया" से उसके बारे में पढ़ा जरूर है। श्री स्वयं प्रकाश द्वारा लिखित किताब जीना सिखाया दिया में इस गाँव के बारे में पढ़ने के बाद इसको भारत को आदर्श गाँव कहना कोई अतिशोक्ति न होगी, जो पूने से 120 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। और इस गाँव का नाम कपासी है। किताब में लिखे अनुसार कपासी पूरी तरह नशामुक्त गाँव है, भारत में शायद ही कोई गाँव नशे की लपेट में आने से बचा हो। लेखक बताते हैं कि इस गाँव में चौबीस घंटे बिजली रहती है, क्योंकि यहाँ बिजली चोरी की आदत नहीं लोगों को, जबकि आम तौर पर भारतीय गाँवों में बिजली बामुश्किल 8 घंटे मिलती है, चाहे वहाँ बिजली चोरी होती हो या न, उनको गाँवों को छोड़कर जो आज भी बिजली से महरूम हैं। इस गा

राजू बन गया 'दी एंग्री यंग मैन'

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"शाहरुख खान और अमिताभ बच्चन" हिन्दी फिल्म जगत के वो नाम बन गए, जो सदियों तक याद किए जाएंगे। आपसी कशमकश के लिए या फिर बेहतरीन अभिनय के लिए। दोनों में उम्र का बहुत फासला है, लेकिन किस्मत देखो कि चाहे वो रुपहला पर्दा हो या असल जिन्दगी का रंगमंच। दोनों की दिशाएं हमेशा ही अलग रही हैं, विज्ञापनों को छोड़कर। रुपहले पर्दे पर अमिताभ बच्चन के साथ जितनी बार शाहरुख खान ने काम किया, हर बार दोनों में ठनी है। चाहे गुरूकुल के भीतर एक प्रधानाचार्य एवं आजाद खयालात के शिक्षक के बीच युद्ध, चाहे फिर घर में बाप बेटे के बीच की कलह। अक्सर दोनों किरदारों में ठनी है। असल जिन्दगी में भी दोनों के बीच रिश्ते साधारण नहीं हैं, ये बात तो जगजाहिर है। रुपहले पर्दे पर तो शाहरुख खान का किरदार हमेशा ही अमिताभ के किरदार पर भारी पड़ता रहा है, लेकिन मराठी समाज को बहकाने वाले ठाकरे परिवार को करार जवाब देकर शाहरुख खान ने असल जिन्दगी में भी बाजी मार ली है। इन्हें भी पढ़ें : जुनून...अंधेरे मकां का खौफ़ नहीं मुझको कहने को तो अमिताभ बच्चन के नाम के साथ "दी एंग्री यंग मैन" का टैग लगा हुआ है, लेकिन असल जिन्दगी में

बसंत पंचमी के बहाने कुछ बातें

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चारों ओर कोहरा ही कोहरा...एक कदम दूर खड़े व्यक्ति का चेहरा न पहचाना जाए इतना कोहरा। ठंड बाप रे बाप, रजाई और बंद कमरों में भी शरीर काँपता जाए। फिर भी सुबह के चार बजे हर दिशा से आवाजें आनी शुरू हो जाती..मानो सूर्य निकल आया हो और ठंड व कोहरा डरे हुए कुत्ते की तरह पूंछ टाँगों में लिए हुए भाग गया हो। कुछ ऐसा ही जोश होता है..बसंत पंचमी के दिन पंजाब में। बसंत पंचमी के मौके लोग बिस्तरों से निकल घने कोहरे और धुंध की परवाह किए बगैर सुबह चार बजे छत्तों पर आ जाते हैं, और अपनी गर्म साँसों से वातावरण को गर्म करते हैं। इस दृश्य को पिछले कई सालों से मिस कर रहा हूं, इस बार बसंत पर पंजाब जाने की तैयारी थी, लेकिन किस्मत में गुजरात की उतरायन लिखी थी, जो गत चौदह जनवरी को गुजरात में मनाकर आया। गुजरात में पहली बार कोई त्यौहार मनाया, जबकि गुजरात से रिश्ता जुड़े तो तीन साल हो गए दोस्तों और पत्नि के कारण। गुजरात में उतरायन पर खूब पतंगबाजी की, पतंगबाजी करते करते शाम तो ऐसा हाल हो गया था कि जैसे ही छत्त से उतर नीचे हाल में पड़े सोफे पर बैठा तो आँख लग गई, पता ही नहीं चला कब नींद आ गई। ऐसा आज से कुछ साल पहले होता थ

आओ बनाएं "ऑल इंडिया एंटी-रेप फ्रंट"

टेनिस खिलाडी रुचिका गिरहोत्रा हत्या प्रकरण पर एक लेख पढ़ने के बाद मन में खयाल आया कि रुचिका जैसी हजारों बच्चियों को इंसाफ दिलाने के लिए क्यों न एक "ऑल इंडिया एंटी-रेप फ्रंट" बनाया जाए। इस कार्य को शिखर तक केवल ब्लॉगर जगत ही लेकर जा सकता है, क्योंकि आज भारत में से ही नहीं विदेशों में बैठे हुए भारतीय भी ब्लॉगिंग के कारण एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ब्लॉगर एकता ही बलात्कार पीड़ित महिलाओं को इंसाफ दिला सकती है और उनको जिन्दगी जीने का फिर से एक मौका दे सकती हैं, ताकि रुचिका जैसे लड़कियां अपनी जिन्दगी से हाथ न धोएं। इनके हक में कलम घसीटने के अलावा इनके के लिए जमीनी स्तर पर भी काम किया जाना चाहिए। दिल्ली, मुम्बई, छतीसगढ़, गुजरात, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, असम, पश्चिमी बंगाल भारत के हर कोने में ब्लॉगर बैठे हुए हैं, जो ऐसी घटनाओं को देखते हुए ही कलम उठा लेते हैं। इतना ही नहीं, इन ब्लॉगरों में बहुत सारे डॉक्टर, बिजनसमैन, वकील, पत्रकार आदि पेशों से जुड़े हुए हैं, जो बलात्कार पीड़ित महिलाओं को इंसाफ दिला सकते हैं, मेरी आप सब से गुजारिश है कि कहीं से भी चुनो बस एक समाज सेवक चुनो, नेता नहीं और चल

शौचालय से सोचालय तक

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कल शाम श्रीमती वर्मा जी का अचानक फोन आया "आप जल्दी से हमारे घर आओ"। मैं उसकी वक्त सोचते हुए दौड़ा कि आखिर ऐसी कौन सी आफत आन खड़ी हुई कि उनको मुझे फोन लगाकर बुलाना पड़ा। मेरे घर से पाँच मिनट की दूरी पर श्रीमान वर्मा जी का घर है, मैंने अपने पैरों की चाल बढ़ाते हुए शीघ्रता के साथ उनके घर की तरफ बढ़ने की कोशिश की। दरवाजा खटखटाने की जरूरत न पड़ी, क्योंकि श्रीमती वर्मा ने दरवाजा खोलकर ही रखा था। मैंने देखा उनका रंग उड़ा हुआ था, जैसे कोई बड़ी वारदात हो गई हो। घर में फैले सन्नाटे को तोड़ते हुए मेरे स्वर श्रीमती वर्मा के कानों तक गए आखिर बात क्या हुई"। मेरी तरफ देखते हुए काँपते होठों से श्रीमति वर्मा बोली "मुझे बोले चाय बनाओ, मैं अभी आया"। "आखिर गए कहां, और कुछ बताकर गए कि नहीं" मैंने बात काटते हुए झट से कहा। श्रीमति वर्मा तुरंत बोली "कहीं नहीं गए"। "अगर कहीं गए ही नहीं तो टेंशन कैसी" मैंने कहा। "टेंशन इस बात की है कि वो पिछले दो घंटों से शौचालय में घुसे हुए हैं, मैंने कई दफा दरवाजा खटखटाया, लेकिन अंदर से कोई जवाब नहीं आ रहा" अपनी आवाज क

एनडी तिवारी के नाम खुला पत्र

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भारत का मीडिया रूसी मीडिया से बहुत अलग है। अब तक इस बात का अहसास तो श्रीमान नारायण दत्त तिवारी जी आपको हो ही गया होगा। भारतीय मीडिया ऐसी खबरों के लिए तो उतावला रहता है, वैसे तो आप भी कम नहीं हैं, सुर्खियां बटोरने के लिए क्या क्या हथकंडे नहीं अपनाते। आपका किस्सा आज पहली बार थोड़ी सार्वजनिक हुआ है, इससे पहले तो सुनना है कि मशहूर गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने भी आप पर गीत फिल्माया था, जिसके कारण उसको गाने बजाने के लिए सरकारी प्रोग्राम मिलने बंद हो गए थे। भले ही आपकी वजह से राजनेताओं की छवि धूमिल हो रही हो, लेकिन गर्भनिरोधक गोलियां बनाने वाली और कंडोम बनाने वाली कंपनियों को अच्छी कमाई हो रही है, क्या इन कंपनियों से आपको पैसा बगैरह आता है या फिर इस तरह की घटनाओं से चर्चा में आकर किसी सेक्स शक्ति बढ़ाने वाले तेल की कंपनी एवं दवाई की कंपनी के लिए ब्रांड दूत बनाने का इरादा है। अगर उक्त दोनों बातें नहीं तो यकीनन आपकी शर्त रूसी प्रधानमंत्री ब्लादिमीर पुतिन से लगी होगी, सबसे ज्यादा अपने देश में कौन बदनाम होता है। मुझे जहां तक मालूम पड़ता है उसकी राजनीतिक पहुंच आप से कुछ ज्यादा है, क्योंकि उन्होंने

माँ

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ईश्वर नहीं देखा और देखने की इच्छा भी न रही, माँ देखने बाद। सच में अगर किसी ने गौर से माँ को देखा हो, वो ताउम्र किसी भगवान के इंतजार में बर्बाद नहीं करता। अफसोस है कि ईश्वर के चक्कर में मनुष्य माँ को याद नहीं करता। जहां भी माँ शब्द आ गया, कसम खुद की, खुदा की नहीं, जो देखा नहीं उसकी कसम खाना बेफजूला लगता है मुझे, वो हर पंक्ति अमर हो गई। माँ के बारे में मशहूर शायर मनुव्वर राणा कुछ इस तरह लिखते हैं। इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है। घेर लेने को मुझे जब भी बलाएँ आ गयीं ढाल बनकर सामने माँ की दुआएँ आ गयीं जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है मैंने कल शब "रात" चाहतों की सब किताबें फाड़ दी सिर्फ इक कागज पर लिक्खा लफ्ज-ए-मां रहने दिया। मुझे माँ शब्द से इतना प्यार है कि कुछ महीने पहले मैं एक किताबों की दुकान पर गया कुछ किताबों पर सरसरी निगाह मारने के लिए, लेकिन नजर दौड़ाते मेरी नजर पुरानी सी बारिश के कारण शायद नमी लगने से खराब हो चुकी एक किताब पर पड़ी, जो कई किताबों के तले दबी हुई थी, जिसका

विचलित होना छोड़ दो

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तुम विचलित होना छोड़ दो। सफलता तुम्हारे कदम चुम्मेगी। कुछ ऐसा ही मेरा मानना है। तुम्हारा विचलित होना, किसी और के लिए नहीं केवल स्वयं तुम्हारे के लिए नुक्सानदेह है, जैसे कि क्रोध। विचलित होना तो क्रोध से भी बुरा है। विचलित मन तुम्हारे मनोबल को खत्म करता है। जब मनोबल न बचेगा, तो तुम भी न बचोगे। खुद के अस्तित्व को बचाने के लिए तुम को विचलित होना छोड़ना होगा, तभी तुम सफलता को अर्जित पर पाओगे। आए दिन नए नए ब्लॉगर्स को बड़े जोश खरोश के साथ आते देखता हूं, लेकिन फिर वो ऐसे गायब हो जाते हैं, जैसे कि मौसमी मेंढ़क। इसके पीछे ठोस कारण उनके मन का अस्थिर अवस्था में चले जाना है। वो ब्लॉग ही इस धारणा से शुरू करते हैं कि हमसे अच्छा कोई नहीं। वो जैसे ही कोई पोस्ट डालेंगे तो टिप्पणियां ऐसे आएंगी, जैसे कि सावन मास में पानी की बूंदें। लेकिन ऐसा नहीं होता तो विचलित हो जाते हैं, और वहीं ब्लॉग अध्याय को बंद कर देते हैं। अगर उनका मन स्थिर हो जाए, और वो निरंतर ब्लॉगिंग करें तो शायद उनको सफलता मिल जाए, लेकिन पथ छोड़ने से कभी किसी को मंजिल मिली है, जो उनको मिलेगी। कई मित्र मेरे पास आते हैं, और कहते हैं कि ब्लॉग शुर

क्या आप भी तरसे हैं प्याली चाय को

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पिछले दिनों एक लम्बी यात्रा के बाद इंदौर फिर वापिस आया, लेकिन इस तीन हजार किलोमीटर लम्बी रेलयात्रा में एक स्वादृष्टि चाय की प्याली को मेरे होंठ तरस गए। अगर आप चाय पीने के शौकीन हैं तो रेल सफर आपके लिए खुशनुमा नहीं हो सकता, हर रेलवे स्टेशन के आने से पहले मन खुश होता था, शायद इस रेलवे स्टेशन पर देसी चाय मिल जाएगी, जो स्टॉव या गैस पर चायपत्ती, असली दूध और चीनी डालकर बनाई गई होगी। मगर इस सफर दौरान सैंकड़ों स्टेशन इस उम्मीद के साथ गुजर गए, लेकिन एक स्वादृष्टि चाय की प्याली नहीं मिली। ये वाक्य उन राज्यों में घटित हुआ, जो दूध के पक्ष से तो बहुत मजबूत है, पहला गुजरात, दूसरा राजस्थान, तीसरा हरियाणा और चौथा पंजाब। लेकिन इन राज्यों के रेलवे स्टेशनों पर केतलियों में भरी मसाला चाय ही मिली, जिसको पीना मैंने एक साल पहले ही छोड़ा है, जिस मसाला चाय को छोड़ा वो तो कंपनी की मशीन से कर्मचारियों के लिए मुफ्त में मिलती है, अगर वो मुफ्त की अच्छी नहीं लगती तो पांच रुपए खर्च वो घटिया चाय पीने को कैसे मन करेगा। भगवान की दुआ से, इस तीन हजार किलोमीटर की लम्बी यात्रा में दो जगह रुकना हुआ, एक तो ससुराल गुजरात में और

चलो, ओबामा की तो आंख खुली

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कल तक अन्य देशों की तरह बराक ओबामा को भी पाकिस्तान की ताकत पर विश्वास था, ओबामा की सुर में सुर मिलाते हुए अमेरिकी नेता एक बात पर अटल थे कि पाकिस्तान अपने प्रमाणु हथियारों की रक्षा कर सकता था। यहां तक कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री श्री गिलानी ने भी दो दिन पहले भारतीय सेना प्रमुख के बयान को गैर-जिम्मेदारना ठहरा दिया था, लेकिन आज भारतीय सेना प्रमुख से दो कदम आगे बढ़ते हुए ओबामा ने कह दिया कि पाकिस्तान साजिशों का गढ़ है, वहां के प्रमाणु हथियार सुरक्षित नहीं है। क्या आज फिर श्री गिलानी अपना पुराना बयान जारी करने वाले हैं, जो दो दिन पहले भारतीय सेना प्रमुख के आए बयान के बाद किया था? सत्य तो ये है कि अमेरिका ने इस बात को देर से स्वीकार किया है, अमेरिका ने इस बात को तब स्वीकार किया, जब कल इस्लामाबाद स्थित नौसेना के मुख्य दफ्तर को आतंकवादियों द्वारा निशाना बनाया गया। इससे पहले तो अमेरिका के नेताओं को पाकिस्तान पर विश्वास था, जहां तक कि भारत के भी कई नेता अमेरिकी सुर में सुर मिलाते हुए नजर आए। असल में, बराक ओबामा का जो बयान आज आया है, वो विगत 23 अक्टूबर को आना चाहिए था, जब आतंकवादियों ने न्यूकलियर

स्कूल नहीं जाती, क्योंकि उसको एड्स है

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आज नीनू नौ साल की हो गई। आज वो आम बच्चों की तरह खेलती कूदती है, लेकिन स्कूल नहीं जाती, क्योंकि कोई उसको दाखिल नहीं देता, क्योंकि उसको एड्स है। इस बीमारी ने उसको जन्म से ही पकड़ लिया था, क्योंकि उसकी माँ इस बीमारी से पीड़ित थी, जब उसने अस्पताल में दम तोड़ा तो नीना केवल दो साल की थी, उसको नहीं पता था कि जिस बीमारी से उसकी माँ चल बसी, उसी बीमारी से वो भी पीड़ित है। उस दो साल की बच्ची को बठिंडा की समाज सेवी संस्था सहारा जनसेवा के प्रमुख विजय गोयल ने गोद ले लिया, और अपनी बेटी का रुतबा दे दिया। आज वो नीनू आकांक्षा गोयल के रूप में नौ वर्ष की हो गई, वो गोयल परिवार में आम सदस्यों की तरह जिन्दगी बसर कर रही है, लेकिन आम बच्चों की तरह किसी स्कूल में नहीं जाती, क्योंकि कोई दाखिला नहीं देता उसको। एड्स से पीड़ित बहुत से बच्चे हैं, लेकिन सबको विजय गोयल जैसा शख्स नहीं मिलता। विजय गोयल आज हम सबके लिए प्रेरणेता है, विजय गोयल वो शख्स है जो सिखाया है कि मानवता से बढ़कर कुछ नहीं होता। नीनू को माता पिता का प्यार देने वाले गोयल दम्पति एड्स पीड़ित बच्चों से नफरत करने वालों के लिए एक सबक है। एड्स पीड़ित बच्चों को सच म

आज की सबसे बड़ी खबर

आज की सबसे बड़ी ख़बर लेकर हाजिर हूं, मैं "खुसर फुसर", वैसे तो बड़ी खबरों को प्रस्तुत करने के लिए बड़े बड़े न्यूज एंकर होते हैं, लेकिन वेतन न मिलने के कारण सब के सब जेट एयरवेज के पायलटों से प्रेरित होकर अचानक सामूहिक छुट्टी पर चले गए। ऐसे में चैनल को चलाने के लिए मालिक ने मुझे एंकर बना दिया। कहीं जाईएगा मत, क्योंकि हम भी कहीं जाने वाले नहीं, ब्रेक तो तब ही आएगा, जब विज्ञापन होगा। विज्ञापन ही नहीं तो ब्रेक कैसा। हां हां हां... आज की बड़ी खबर है, जो कि है डंके की चोट पर लिखने वाले प्रभाष जोशी नहीं रहे! कलम में सियाही नहीं शब्दी बारूद रखने वाले प्रभाष जोशी लम्बी प्रवास पर चले गए, लेकिन उन्होंने जो अब तक पत्रकारिता को दिया है, वो उनकी मौजूदगी को सदैव जमीन पर कायम रखेगा। और जानकारी लेने के लिए सीधा चलते हैं...उनके घर पर नहीं बल्कि इधर उधर से जानकारी एकत्र करने के लिए, क्योंकि हमारे पास रिपोर्टर भी नहीं, जो सीधा प्रसारण करने में हमारी मदद करें। ऐसे में हमको सहारा लेना पड़ेगा ब्लॉग जगत का..वैसे भी तो हमारे चैनल वालों के पास रह ही क्या गया है? आप बस बने रहें, वरना मुझे न्यू एंकर बनने का जो म

सवारी अपने सामान की खुद जिम्मेदार

"सवारी अपने सामान की खुद जिम्मेदार" भारतीय बसों एवं रेलगाड़ियों में लिखा तो सबने पढ़ा ही होगा क्योंकि भारत में 99.9 फीसदी बसों रेलगाड़ियों पर ऐसा लिखा तो आम मिल जाता है। बसों व रेल गाड़ियों में लिखी ये पंक्ति आपको सफर करते वक्त चौकस रहने के लिए प्रेरित करती है और कहती है कि अगर आपका सामान गुम होता है तो उसकी जिम्मेदारी आपके सिर होगी। इस पंक्ति के चलते शायद हम सब चौकस हो जाते हैं, और अपने सामान को बहुत ध्यान के साथ रखते हैं। पिछले दिनों सादगी के चक्कर में राहुल गांधी एवं अन्य सियासतदानों ने रेलगाड़ी में यात्रा की, शायद उन्होंने भी इस पंक्ति को पढ़ लिया है। यकीन नहीं होता तो याद करो गृह मंत्री पी.चिदंबरम के बयां को, याद करो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयां को और कल आए सेना प्रमुख दीपक कपूर के बयां को। इन सभी के बयां एक ही बात कह रहे हैं कि भारत पर फिर से मुम्बई आतंकवादी हमले जैसे हमले हो सकते हैं। बसों एवं रेलगाड़ियों में लिखी पंक्ति भी यही कहती है, लेकिन कहने का ढंग कुछ अलग होता है। वहां पर अगर ऐसा लिख दिया जाए कि आपका सामान चोरी हो सकता है, आपकी जेब कट सकती है, मगर वहां ऐसा नहीं

मां और पत्नी के बीच अंतर

मां बन बिगाड़ती है औरत। पत्नी बन संवारती है औरत॥ सत्य है या कोरा झूठ। मुझे नहीं पता, लेकिन पिछले सालों में जो मैंने देखा और महसूस किया। उसको समझने के बाद मुझे कुछ ऐसा ही लगा। मां भी एक औरत है और पत्नी भी, इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर है, फर्क है। बतियाने से कुछ नहीं होने वाला, चलो फर्क ढूंढने निकलते हैं। एक बच्चे का बाप बोल रहा "ये क्या कर रहे हो, हैप्पी! बस्ता सही जगह रखो" अब मां और एक पत्नी बोली "बच्चा है, कोई बात नहीं जाने दो"। हैप्पी अब जवान हो गया, किसी का पति हो गया। अब फिर एक पत्नी बोली "तुमने ये ऑफिस बैग कहां रखा है, तुमको बिल्कुल समझ नहीं"। याद रहे कि अब वो अकेली पत्नी है। अब हैप्पी सोचता है कि मां तुमने पहले बिगाड़ क्यों था, क्या पत्नी की डाँट खाने के लिए। समीर तुमको कितने बार कहा है कि जूते सही जगह रखा करो और जहां वहां मत फेंका करो। एक पत्नी बोल रही है। अब उसको भी मां की याद आ रही है, जो कहती थी, कोई बात नहीं जब समीर एक जूते को इस कोने में तो दूसरे जूते को किसी ओर कोने में फेंक देता था और सुबह होते ही दोनों जूते एक जगह मिलते थे। क्या ऑफिस ज

क्या है राहुल गांधी का उपनाम?

सुबह उठा तो सिर भारी भारी था, जैसे किसी ने सिर पर पत्थर रख दिया हो। सोचते सोचते रात को सो जाना भी कोई सिर पर रखे पत्थर से कम नहीं होता। रात ये सोचते सोचते सो गया क्यों न राहुल गांधी को खत लिखा जाए कि मैं कांग्रेस में शामिल होना चाहता हूं, मैं राजनीति में नहीं जननीति में आना चाहता हूं और मैं राजनेता नहीं जननेता बनना चाहता हूं। आती 27 तिथि को मैं 26 का हो जाऊंगा, इतने सालों में मैंने क्या किया कुछ नहीं, अब आने वाले सालों में कुछ करना चाहता हूं। ये सोचते सोचते सो गया या जागता रहा कुछ पता नहीं। सुबह उठा तो सिर भारी भारी था जैसे कि शुरूआत में बता चुका हूं। मैंने कम्प्यूटर के टेबल से पानी वाली मोटर की चाबी उठाई और मोटर छोड़ने के लिए नीचे चल गया, वहां पहुंचा तो दैनिक भास्कर पड़ा हुआ था, मेरा नवभारतटाईम्स के बाद दूसरा प्रिय अखबार। मोटर छोड़ने से पहले अखबार उठाया। मुझे खबरें पढ़ने का बिल्कुल शौक नहीं, इसलिए सीधा अखबार के उस पन्ने पर पहुंच जाता हूं, जहां बड़े बड़े लेखक अपनी कलम घसीटते हैं। आज जैसे ही वहां पहुंचा तो देखा कि रात को जो मन में सवाल उठ रहा था, उसका उत्तर तो यहां वेद प्रताप वैदिक ने लिख डाल

आखिर ये देश है किसका

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1. दूर है मंजिल, और नाजुक हालात हैं हम भी चल रहें ऐसे ही दिन रात हैं फिर आने का वायदा कर सब चले गए न भगत सिंह आया, न श्रीकृष्ण बस इंतजार में हम रेत बन ढले गए जहर का प्याला लबों तक आने दो और मुझे फिर से सुकरात होने दो झूठ का अंधेरा अगर डाल डाल तो रोशनी बन मुझे पात पात होने दो 2. कैसे हो..घर परिवार कैसा है तुम्हारा यार वो प्यार कैसा है भाई बहन की पढ़ाई कैसी है मां बाप की चिंता तन्हाई कैसी है तुम्हारा ऑफिस में काम कैसा चल रहा है ये जीवन तुम्हारा किस सांचे में ढल रहा है 3. महाभारत में पांडवों की अगुवाई करने वाले कृष्णा का या यौवन में हँस हँसकर फांसी चढ़ने वाले भगत का या फिर लाठी ले निकलने वाले महात्मा गांधी का आखिर ये देश है किसका श्री कृष्णा का लगता नहीं ये देश क्योंकि दुश्मन पर वार करने से कतराता है जैसे देख बिल्ली कबूतर आंखें बंद कर जाता है भगत सिंह का भी ये देश नहीं वो क्रांति का सूर्य था, यहां तो अक्रांति की लम्बी रात है ये देश गांधी का भी नहीं बाबरी हो, या 1984 लाशें ही लाशें बिखरी जमीं पर आती हैं नजर आखिर ये देश है किसका

ओबामा को प्राईज नहीं, जिम्मा मिला

अमेरिका राष्ट्रपति बराक ओबामा उस समय हैरत में पड़ गए, जब नोबेल शांति पुरस्कार के लिए उनका नाम घोषित कर दिया गया। ज्यादातर लोग खुश होते हैं, जब उनको सम्मानित किया जाता है, लेकिन ओबामा परेशान थे। शायद उन्होंने सोचा नहीं था कि उनकी राह और मुश्किल हो जाएगी, उनके कंधों पर अमेरिका के अलावा विश्व में शांति कायम करने का जिम्मा भी आ जाएगा। अगर ओबामा को पहले पता चल जाता कि नोबेल शांति पुरस्कार देने के लिए उनके नाम पर विचार किया जा रहा है तो शायद विचार को वो उसी वक्त ही खत्म कर देते, और ये पुरस्कार हर बार की तरह किसी ऐसे व्यक्ति के हाथों में चला जाता, जो काम कर थक चुका था, जो आगे करने की इच्छा नहीं रखता। बस वो थका हुआ, इस पुरस्कार को लेकर खुशी खुशी इस दुनिया से चल बसता। मगर अबकी बार ऐसा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि कमेटी ने पासा ही कुछ ऐसा फेंका है कि अब पुरस्कार की कीमत चुकानी होगी। अब वो करना होगा जो पुरस्कार की कसौटी पर खरा उतरता है। जब ओबामा को पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो हर जगह खलबली सी मच गई, इसको पुरस्कार क्यों दिया जा रहा है। आखिर इसने क्या किया है? ये कैसी पागलभांति है? लेकिन लोग क्यों

आखिर हट गई सोच से रोक

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गुजरात हाईकोर्ट ने जो फैसला जसवंत की किताब को लेकर सुनाया, वो बहुत सारे लेखकों के लिए एक खुशी की बात है, विशेषकर जसवंत सिंह के लिए। अगर गुजरात सरकार द्वारा लगाया गया प्रतिबंध न हटता तो हमको मिले अभिवक्ति के अधिकार का उल्लंघन होता। अपनी बात कहने का लोकतंत्र जब हमें मौका देता है तो उस पर रोक क्यों लगाई जाए? इतना ही नहीं गुजरात सरकार ने तो मूर्खतापूर्ण काम किया था, किताब को पढ़ने के बाद अगर प्रतिबंध लगता तो समझ में आता, लेकिन किताब को बिना पढ़े प्रतिबंध। आखिर कहां की समझदारी है? किताब रिलीज हुई, मीडिया ने बात का बतंगड़ बना दिया, उधर शिमला से हुक्म जारी होते ही इधर गुजरात सरकार ने किताब पर बैन लगा दिया गया वो भी बिना पढ़े। जिन्होंने किताब पढ़ी सबने एक बात कही कि किताब में नया कुछ नहीं था, चाहे अरुण शौरी हो, या फिर हिन्दी में जिन्ना पर पहली किताब लिखने वाला श्री बरनवाल हो। प्रसिद्ध लेखक वेदप्रताप वैदिक तो यहां तक कहते हैं कि किताब में केवल पटेल का नाम सिर्फ छ: बार आया, और किसी भी जगह पटेल को नीचा नहीं दिखाया गया। जिस बात का रोना रोकर गुजरात सरकार ने किताब पर बैन लगाया था। अरुण शौरी ने इंडिय

कौन दिशा में ले चला रे पत्रकारिता

कौने दिशा में चला रे 'बटोहिया'... इस गीत को मैंने और आपने बहुत बार सुना होगा, लेकिन आजकल जब अख़बारों एवं खबरिया चैनलों को देखता हूं तो इस गीत को याद करता हूं। आप सोच रहे होंगे कि बात तो कुछ पल्ले नहीं पड़ी। इसका पत्रकारिता से क्या लेना देना है? पर आजकल की पत्रकारिता ही ऐसी हो गई कि कहना पड़ता है कौन दिशा में ले चला रे पत्रकारिता। पत्रकारिता का अर्थ सूचना देना होता है, न कि सनसनी फैलाना। मगर आज तो हर कोई सनसनी फैलाने पर लगा हुआ है, सूचना की तो कोई बात ही नहीं। पहले तालिबान था और अब स्वाइन फ्लू। टीवी वाले बिना रुकावट निरंतर दिन में कई दफा एक ही बात का प्रचार कर उसको हौवा बना देते हैं । ऐसे में कोई भी कह उठेगा ‘कौन दिशा में ले चला रे पत्रकारिता’, इसमें दोष न्यूज एंकर का नहीं, वो तो मालिक के हाथ की कठपुतली है, उसको तो वो करना है जो मालिक को नफा दे, तभी तो उसकी पगार आएगी। सही में बोलें तो पापी पेट का सवाल है। पत्रकारिता का क्षेत्र अब उन लोगों के लिए नहीं जो आदर्श पत्रकारिता करना चाहते हैं, क्योंकि उनकी यहां चलती है कहां, यहां तो स्थिति फौज वाली है। बस यस सर, बोलो नो का कोई काम नहीं

इमरान हाशमी के नाम एक खुला पत्र

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तुमने तो यू-टर्न ले लिया, लेकिन आज के बाद अगर किसी अन्य व्यक्ति ने आवाज उठाई तो उसका क्या होगा? इमरान हाश्मी। क्या तुम्हारे पास कोई जवाब है? तुम तो मिस-कम्यूनिकेशन की बात कहकर निकल गए, अगर तुम्हारे बयान के बाद शहर की स्थिति तनावपूर्ण हो जाती तो फिर कोई क्या करता। तुमको तो मशहूरी मिल गई, चर्चा मिल गई। तुमने तो सच के खिलाफ उठने वाली आवाजों को भी दबने के लिए मजबूर कर दिया। अगर आज के बाद कोई सच के खिलाफ भी आवाज उठाएगा तो लोग उसको झूठ-मशहूरी का फंडा कहकर नकार देंगे। इमरान हाश्मी तुम तो इस फिल्म जगत में नए हो, लेकिन यहां तो सालों से मुस्लिम भाईचारे के लोग बसे हुए हैं एवं फिल्म जगत पर राज कर रहे हैं। उनके मुम्बई में बड़े बड़े आलीशान महल हैं, यहां तक कि शाहरुख खान के बंगले मन्नत को देखने के लिए सैंकड़ों लोग हर रोज मुम्बई तक आते हैं। वो भी तो मुस्लिम भाईचारे से है, उनको तो किसी ने बाजू पकड़कर बाहर नहीं निकाला। समस्या वो नहीं थी, जो तुमने बताई, मीडिया में जिसका चर्चा किया। समस्या तो ये है कि तुम अभी स्टार बने ही नहीं, तुम तो एक सीरियल किसर हो, जिसको बस वो युवा देखते हैं, जिनको स्क्रीन पर आंखें गर