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बहुत बहुत शुक्रिया...

गत दिवस मेरा जन्मदिवस था, मुझे बेहद खुशी हुई कि मेरे जन्मदिवस पर इस बार भी मुझे ब्‍लॉग जगत से जन्मदिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं मिली। मुझे नहीं लगता था कि ऐसा होगा, क्‍योंकि पिछले लम्‍बे समय से मैंने ब्‍लॉग जगत से दूरी जो बना ली थी। मेरे जन्मदिवस की खुशी को दुगुना करने के लिए मैं ब्‍लॉग जगत का सदैव ऋणि रहूंगा, खास जन्मदिन डॉट ब्‍लॉगस्पॉट डॉट कॉम का व बीएस पाबला जी का। मैंने ब्‍लॉग से दूरी क्‍यों की.... ऐसा नहीं कि ब्‍लॉग जगत से मन ऊब गया था, ऐसा भी नहीं कि मैं लिखना नहीं चाहता, बस जिन्दगी केञ् कुञ्छ ड्डेञ्रबदल ऐसे होते हैं, जो कुञ्छ चीजों से अचानक दूरी बनाने पर बाध्य कर देते हैं, लेकिन दूरी से कोई रिश्ता खत्म नहीं होता, विछोह तो मिलन की ललक को ज्यादा बढ़ाता है। ब्‍लॉग जगत से एक बार फिर पहले जैसे जुडऩे की कोशिश में हूं, और उम्‍मीद है कि ब्‍लॉग में एक बार फिर से अपना योगदान अदा करूंगा। चलते चलते.... लेखिका अरुंधित रॉय, जिनके नाम के आगे अब विवादित शब्‍द जुड़ चुका है, से निवेदन है कि जो आप कहती हैं, उससे देश का कितना भला होने वाला है, और कितना नुकसान, इस बात को ध्यान में रखकर कहें तो

शहीदे आजम व उसकी छवि

जब दिल्ली में बैठे हुक्मरान कहते हैं कि शहीदे आजम भगत सिंह हिंसक सोच के व्यक्ति थे, तो भगत सिंह को चाहने वाले, उनको आदर्श मानने वाले लोग दिल्ली के शासकों कोसने लगते हैं, लेकिन क्या यह सत्य नहीं कि शहीदेआजम की छवि को उनके चाहने वाले ही बिगाड़ रहे हैं। अभी कल की ही बात है, एक स्कूटर की स्पिटनी वाली जगह पर लगे एक टूल बॉक्स पर भगत सिंह की तस्वीर देखी, जो भगत सिंह के हिंसक होने का सबूत दे रही थी। यह तस्वीर हिन्दी फिल्म अभिनेता सन्नी दिओल के माफिक हाथ में पिस्टल थामे भगत सिंह को प्रदर्शित कर रही थी। इस तस्वीर में भगत सिंह को निशाना साधते हुए दिखाया गया, जबकि इससे पहले शहर में ऐसी तमाम तस्वीरें आपने देखी होंगी, जिसमें भगत सिंह एक अधखुले दरवाजे में पिस्टल लिए खड़ा है, जो शहीदे आजम की उदारवादी सोच पर सवालिया निशान लगती है। जब महात्मा गांधी जैसी शख्सियत भगत सिंह जैसे देश भगत पर उंगली उठाती है तो कुछ सामाजिक तत्व हिंसक हो उठते हैं, तलवारें खींच लेते हैं, लेकिन उनकी निगाह में यह तस्वीर क्यों नहीं आती, जो भगत सिंह की छवि को उग्र साबित करने के लिए शहर में आम वाहनों पर लगी देखी जा सकती हैं। यहां तक

बेशकीमती गाड़ियां व प्रेस लेबल

शहर में बहुसंख्या में घूम रही हैं बेशकीमती गाड़ियां, जिन पर लिखा है प्रेस। हैरत की बात तो यह है कि संवाददाता वर्ग खुद भी असमंजस में है कि आखिर इतनी बेशकीमती गाड़ियां आखिर किस मीडिया ग्रुप की हैं। शीशों पर आल इंडिया परमिट की तरह प्रेस का लेबल चस्पाकर घूमने वाली गाड़ियां, मीडिया में काम करने वालों के लिए कई सालों से अनसुलझी पहेली की तरह हैं। जी हां, शहर में घूम रही हैं ऐसी दर्जनों बेशकीमती गाड़ियां, जिन पर लिखा है प्रेस, और कोई नहीं जानता प्रेस का लेबल लगा घूम रही इन बेशकीमती गाड़ियों के काले शीशों के उस पार आखिर है कौन। यह कौन पिछले कई सालों से मीडिया कर्मियों के लिए गणित का सवाल बन चुका है। सूत्र बताते हैं कि मीडिया जगत तो इस लिए स्तम्ब है, क्योंकि मीडिया कर्मी अच्छी तरह जानते हैं, बठिंडा के इक्का दुक्का मीडियाकर्मियों को छोड़कर बठिंडा के किसी भी मीडिया कर्मी के पास ऐसे वाहन नहीं, जिनकी कीमत सात आठ लाख के आंकड़ों को पार करती हो। इस तरह कुछ अज्ञात लोगों का प्रेस लेवल लगाकर घूमना, शहर वासियों के लिए भी किसी मुसीबत का कारण बन सकता है, क्योंकि ट्रैफिक पुलिस कर्मी गाड़ी पर प्रेस लिखा देकर

आज सफल है, मंथली गुरूमंत्र

सुबह सुबह आम आदमी एनपी अपने दूध वाले पर रौब झाड़ते हुए कहता है कि आजकल दूध काफी पतला आ रहा है और कुछ मिले होने का भी शक है। एनपी की बात को ठेंगा दिखाते हुए दूध वाला कहता है, आपको दूध लेना है तो लो, वरना किसी ओर से लगवा लो, दूध तो ऐसा ही मिलेगा। एनपी सिंह कहां कम था उसने दूध वाले के पैर निकाले के लिए कहा, तुमको पता नहीं, मैं सेहत विभाग में हूँ, तेरे दूध का सैंपल भरवा दूंगा। सेर को सवा सेर मिल गया, दूध वाला बोला...तेरे सेहत विभाग को हर महीने पैसे भेजता हूँ, मंथली देते हूँ, किसकी हिम्मत है, जो मेरे दूध का सैंपल भरे। दूध वाले के पैरों तले से तो जमीं नहीं सरकी, लेकिन एनपी के होश छू मंत्र हो गए। आज मंथली का जमाना है, आज के युग में सही काम करने वाले को भी मंथली भेजनी पड़ती है। मंथली लेने में सेहत विभाग ही नहीं, अन्य विभाग भी कम नहीं। जैसे मोबाइल के बिन आज व्यक्ति खुद को अधूरा समझता है, वैसे ही ज्यादातर सरकारी उच्च पदों पर बैठे अधिकारी खुद को मंथली बिना अधूरा सा महूसस करते हैं। बुरा काम करने वाले तो मंथली देते ही हैं, लेकिन यहां तो अच्छा उत्पाद बनाने वालों को भी मंथली देनी पड़ती है। शहर के एक

शायद उलझन में इंद्रदेव

जब वो मल्हार राग में शिव स्तुति गाती है तो इंद्रदेव इतने खुश होते हैं कि पूरे क्षेत्र को जलमग्न कर देते हैं। उसका जन्म गजियाबाद के एक अमीर परिवार में हुआ था और उसका ब्याह भी एक अमीर घर में, लेकिन वो सादगी भरा जीवन जीने में विश्वास करती थी, वो आज जिन्दा है या नहीं पता नहीं, लेकिन जब इंद्रदेव को खुश करना होता तो लोग उसके द्वार जाते थे। कुछ ऐसा ही किस्सा बता रहा था संकट मोचन मंदिर के निकट एक बिजली की दुकान पर एक भद्र पुरुष। आज से पहले तानसेन के बारे में तो सुना था कि वो दीपक राग गाकर दीए जला देते थे, लेकिन उक्त किस्सा पहली दफा सुनने में आया, हो सकता है सच भी हो और काल्पनिक भी। मगर हम इंद्रदेव को मनाने के लिए तरह तरह के ढंग तो अपनाते ही हैं। मुझे याद है जब हम गांव में रहते थे, सावन का महीना बीतते वाला होता, और गांव में एक बूंद पानी तक न टपकता, तब लोग इंद्र देव को खुश करने के लिए डेरा बाबा भगवान दास में पहुंचकर चावलों का यज्ञ करते, और इंद्रदेव खुश हो भी जाता था। इस डेरे का इतिहास भी तो बारिश से जुड़ा हुआ है। एक बार की बात है कि गांव में बारिश नहीं हो रही थी, और लोग इंद्र देव को मनाने के लिए

हल स्थाई हो, अस्थाई नहीं

कुछ महीने पहले देश की एक अदालत ने केंद्र से राय मांगी थी कि क्या वेश्यावृत्ति को मान्यता दे दी जाए, यानि इसको अपराध के दायरे से बाहर कर दिया जाए, क्योंकि देश में वेश्यावृत्ति बढ़ती जा रही है। इस मुद्दे पर अदालत द्वारा केंद्र से राय मांगने का सीधा अर्थ है, अगर किसी चीज को कानून रोकने में असफल हो रहा है तो उसको मान्य दे दी जाए, ताकि अदालत का भी कीमत समय बच जाए। किसी मुश्किल का कितना साधारण हल है, कि उसको वैध करार दे दिया जाए, जिसको रोकने में कानून असफल है। कोर्ट ने एक बार भी केंद्र से नहीं कहा कि वेश्यावृत्ति की पीछे के कारणों का पता लगाने के लिए एक टीम का गठन किया जाए। कोर्ट ने सवाल नहीं उठाया कि क्यों कभी पुलिस प्रशासन ने कोर्ट में वेश्यावृत्ति में लिप्त महिलाओं के दूसरे पक्ष को उजागर नहीं किया। आखिर वेश्यावृत्ति हो क्यों रही है? आखिर क्यों देश की महिलाएं अपने जिस्म की नुमाईश लगा रही हैं?। अगर कोर्ट इन सवालों में से एक भी सवाल को केंद्र से पूछती तो केंद्र अदालती कटघरे में आ खड़ा नजर आता, क्योंकि वेश्यावृत्ति के बढ़ते रुझान के लिए हमारी सरकारें भी जिम्मेदार हैं, जो निम्न वर्ग को केवल वो

रक्षक से भक्षक तक

सर जी, वो कहता है कि उसको एसी चाहिए घर के लिए। वो का मतलब था डॉक्टर, क्योंकि मोबाइल पर किसी से संवाद करने वाला व्यक्ति एक उच्च दवा कंपनी का प्रतिनिधि था, जो शहर में उस कंपनी का कारोबार देखता था। इस बात को आज कई साल हो गए, शायद आज उसके संवाद में एसी की जगह एक नैनो कार आ गई होगी या फिर से भी ज्यादा महंगी कोई वस्तु आ गई होगी, क्योंकि शहर में लगातार खुल रहे अस्पताल बता रहे हैं कि शहर में मरीजों की संख्या बढ़ चुकी है, जिसके चलते दवा कारोबार में इजाफा तो लाजमी हुआ होगा। आप सोच रहें होंगे कि मैं क्या पहेली बुझा रहा हूँ, लेकिन यह किस्सा आम आदमी की जिन्दगी को बेहद प्रभावित करता है, क्योंकि इस किस्सा में भगवान को खरीदा जा रहा है। चौंकिए मत! आम आदमी की भाषा में डॉक्टर भी तो भगवान का रूप है, और उक्त किस्सा एक डॉक्टर को लालच देकर खरीदने का ही तो है। कितनी हैरानी की बात है कि पैसे मोह से बीमार डॉक्टर शारीरिक तौर पर बीमार व्यक्तियों का इलाज कर रहे हैं। इस में कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि दवा कंपनियों के पैसे से एशोआराम की जिन्दगी गुजारने वाले ज्यादातर डॉक्टर अपनी पसंदीदा कंपनियों की दवाईयाँ ही ल

पंजाबी भाषा और कुछ बातें

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अपने ही राज्य में बेगानी सी होती जा रही है पंजाबी भाषा, केवल बोलचाल की भाषा बनकर रह गई पंजाबी, कुछ ऐसा ही महसूस होता है, जब सरकारी स्कूलों के बाहर लिखे 'पंजाबी पढ़ो, पंजाबी लिखो, पंजाबी बोलो' संदेश को देखता हूँ। आजकल पंजाब के ज्यादातर सरकारी स्कूलों के बाहर दीवार पर उक्त संदेश लिखा आम मिल जाएगा, जो अपने ही राज्य में कम होती पंजाबी की लोकप्रियता को उजागर कर रहा है, वरना किसी को प्रेरित करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। पंजाबी भाषा केवल बोलचाल की भाषा बनती जा रही है, हो सकता है कि कुछ लोगों को मेरे तर्क पर विश्वास न हो, लेकिन सत्य तो आखिर सत्य है, जिस से मुँह फेर कर खड़े हो जाना मूर्खता होगी, या फिर निरी मूढ़ता होगी। पिछले दिनों पटिआला के बस स्टॉप पर बस का इंतजार करते हुए मेरी निगाह वहाँ लगे कुछ बोर्डों पर पड़ी, जो पंजाबी भाषा की धज्जियाँ उड़ा रहे थे, उनको पढ़ने के बाद लग रहा था कि पंजाबी को धक्के से लागू करने से बेहतर है कि न किया जाए, जो चल रहा है उसको चलने दिया जाए। अभी पिछले दिनों की ही तो बात है, जब एक समारोह में संबोधित कर रहे राज्य के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को अचा

विशाल रक्तदान शिविर...आंकड़ों की दौड़

"आप रक्तदान न करें, तो बेहतर होगा" एक चौबी पच्चीस साल का युवक एक दम्पति को निवेदन कर रहा था, जिसके चेहरे पर चिंता स्पष्ट नजर आ रही थी, क्योंकि वो जिस रक्तदाता के साथ आया था, वो एक कुर्सी पर बैठा निरंतर उल्टियाँ कर रहा था, जिसको बार बार एक व्यक्ति जमीन पर लेट के लिए निवेदन कर रहा था। युवक की बात सुनते ही महिला के साथ आया उसका पति छपाक से बोला, यह तो बड़े उत्साह के साथ खून दान करने के लिए आई है। महिला के चेहरे पर उत्साह देखने लायक था, उस उत्साह को बरकरार रखने के लिए मैंने तुरंत कहा, अगर आप निश्चय कर घर से निकले हो तो रक्तदान जरूर करो, लेकिन यहाँ का कु-प्रबंधन देखने के बाद मैं आप से एक बात कहना चाहता हूँ, अगर पहली बार रक्तदान करने पहुंचे हैं तो कृप्या रक्तदान की पूरी प्रक्रिया समझकर ही खूनदान के लिए बाजू आगे बढ़ाना, वरना किसी छोटे कैंप से शुरूआत करें। वो रजिस्ट्रेशन फॉर्म के बारे में पूछते हुए आगे निकल गए, लेकिन मेरे कानों में अभी भी एक आवाज निरंतर घुस रही थी, वो आवाज थी एक सरदार जी की, जो निरंतर उल्टी कर रहे व्यक्ति को लेट के लिए निवेदन किए जा रहा था, लेकिन कुर्सी पर बैठा आदमी

अपनों के खून से सनते हाथ

अपनों के खून से सनते हाथ, आदम से इंसान तक का सफर अभी अधूरा है को दर्शाते हैं। झूठे सम्मान की खातिर अपनों को ही मौत के घाट उतार देता है आज का आदमी। पैसे एवं झूठे सम्मान की दौड़ में उलझे व्यक्तियों ने दिल में पनपने वाले भावनाओं एवं जज्बातों के अमृत को जहर बनाकर रख दिया है, और वो जहर कई जिन्दगियों को एक साथ खत्म कर देता है। पाकिस्तान की तरह हिन्दुस्तान में भी ऑनर किलिंग के मामले निरंतर सामने आ रहे हैं, ऐसा नहीं कि भारत में ऑनर किलिंग का रुझान आज के दौर का है, ऑनर किलिंग हो तो सालों से रही है, लेकिन सुर्खियों में अब आने लगी है, शायद अब पाकिस्तान की तरह हिन्दुस्तानी हुक्मरानों को भी चाहिए कि वो भी मर्दों के लिए ऐसे कानून बनाए, जो उनको ऐसे शर्मनाक कृत्य करने की आजादी मुहैया करवाए। पाकिस्तानी मर्दों की तरह हिन्दुस्तानी मर्द भी औरतों को बड़ी आसानी से मौत की नींद सुला सके, वो अपना पुरुष एकाधिकार कायम कर सकें। वोट का चारा खाने में मशगूल सरकारें मूक हैं और खाप पंचायतें अपनी दादागिरी कर रही हैं। इन्हीं पंचायतों के दबाव में आकर माँ बाप अपने बच्चों को मौत की नींद सुला देते हैं, जिनको जन्म देने ए

एक खत कुमार जलजला व ब्लॉगरों को

कुमार जलजला को वापिस आना चाहिए, जो विवादों में घिरने के बाद लापता हो गए, सुना है वो दिल्ली भी गए थे, ब्लॉग सम्मेलन में शिरकत करने, लेकिन किसी ढाबे पर दाल रोटी खाकर अपनी काली कार में लेपटॉप समेत वापिस चले गए, वो ब्लॉगर सम्मेलन में भले ही वापिस न जाए, लेकिन ब्लॉगवुड में वापसी करें।

दिलों में नहीं आई दरारें

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लेखक : कुलवंत हैप्पी पिछले कई दिनों से मेरी निगाह में पाकिस्तान से जुड़ी कुछ खबरें आ रही हैं, वैसे भी मुझे अपने पड़ोसी मुल्कों की खबरों से विशेष लगाव है, केवल बम्ब धमाके वाली ख़बरों को छोड़कर। सच कहूँ तो मुझे पड़ोसी देशों से आने वाली खुशखबरें बेहद प्रभावित करती हैं। जब पड़ोसी देशों से जुड़ी किसी खुशख़बर को पढ़ता हूँ तो ऐसा लगता है कि अलग हुए भाई के बच्चों की पाती किसी ने अखबार के मार्फत मुझ तक पहुंचा दी। इन खुशख़बरों ने ऐसा प्रभावित किया कि शुक्रवार की सुबह अचानक लबों पर कुछ पंक्तियाँ आ गई। दिल्ली से इस्लामाबाद के बीच जो है फासला मिटा दे, मेरे मौला, नफरत की वादियों में फिर से, मोहब्बत गुल खिला दे, मेरे मौला, सच कहूँ, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच अगर कोई फासला है तो वो है दिल्ली से इस्लामाबाद के बीच, मतलब राजनीतिक स्तर का फासला, दिलों में तो दूरियाँ आई ही नहीं। रिश्ते वो ही कमजोर पड़ते हैं, यहाँ दिलों में दूरियाँ आ जाएं, लेकिन यहाँ दूरियाँ राजनीतिज्ञों ने बनाई है। साहित्यकारों ने तो दोनों मुल्कों को एक करने के लिए अपनी पूरी जान लगा दी है। अगर दिलों में भी मोहब्बत मर गई होती तो शायद श्री

20 साल का संताप, सजा सिर्फ दो साल!

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देश का कानून तो कानून, सजा की माँग करने वाले भी अद्भुत हैं। बीस साल का संताप भोगने पर सजा माँगी तो बस सिर्फ दो साल। जी हाँ, हरियाणा के बहु चर्चित रूचिका गिरहोत्रा छेड़छाड़ मामले जिरह खत्म हो चुकी है, और फैसला 20 मई को आना मुकर्रर किया गया है, लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि सीबीआई एवं गिरहोत्रा परिवार ने मामले के मुख्य आरोपी को दोषी पाए जाने पर सजा अधिकतम दो साल माँगी। बीस साल का संताप भोगने के बाद जब इंसाफ मिलने की आशा दिखाई दी तो दोषी के लिए सजा दो साल माँगना, ऊंट के मुँह में जीरे जैसा लगता है। - कुलवंत हैप्पी उल्लेखनीय है कि रूचिका के साथ 12 अगस्त, 1990 को तत्कालीन आईजी व लोन टेनिस एसोसिएशन के अध्यक्ष एसपीएस राठौर ने छेड़छाड़ की थी। आज उस बात को दो दशक होने जा रहे हैं। इन दो दशकों में गिरहोत्रा परिवार ने अपनी लॉन टेनिस खिलाड़ी बेटी खोई, अपना सुख चैन गँवाया, गिरहोत्रा परिवार के बेटे ने चोरी के कथित मामलों में अवैध कैद काटी, पुलिस का जुल्म ओ सितम झेला, लेकिन जिसके कारण गिरहोत्रा परिवार को इतना कुछ झेलना पड़ा वो आजाद घूमता रहा बीस साल, अब जब उसके सलाखों के पीछे जाने का वक्त आया तो सज

जीत है डर के आगे

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लेखक कुलवंत हैप्पी ड्यू के टीवी विज्ञापन की टैग-लाईन 'डर के आगे जीत है' मुझे बेहद प्रभावित करती है, नि:संदेह औरों को भी करती होगी। सच कहूँ तो डर के आगे ही जीत है, जीत को हासिल करने के लिए डर को मारना ही पड़ेगा, वरना डर तुम को खा जाएगा। पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म "माई नेम इज खान" में एक संवाद है 'डर को इतना मत बढ़ने दो कि डर तुम्हें खा जाए'। असलियत तो यही है कि डर ने मनुष्य को खा ही लिया है, वरना मनुष्य जैसी अद्भुत वस्तु दुनिया में और कोई नहीं। मौत का डर, पड़ोसी की सफलता का डर, असफल होने का डर, भगवान द्वारा शापित कर देने का डर, जॉब चली जाने का डर, गरीब होने का डर, बीमार होने का डर। सारा ध्यान डर पर केंद्रित कर दिया, जो नहीं करना चाहिए था। एक बार मौत के डर को छोड़कर जिन्दगी को गले लगाने की सोचो। एक बार मंदिर ना जाकर किसी भूखे को खाना खिलाकर देखो। एक बार असफलता का डर निकालकर प्रयास करके देखो। असफलता नामक की कोई चीज ही नहीं दुनिया में, लोग जिसे असफलता कहते हैं वो तो केवल अनुभव। अगर थॉमस अलवा एडीसन असफलता को देखता, तो वो हजारों बार कोशिश ना करता और कभी बल्ब

ओशो सेक्स का पक्षधर नहीं

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लेखक कुलवंत हैप्पी खेतों को पानी दे रहा था, और खेतों के बीचोबीच एक डेरा है, वैसे पंजाब के हर गाँव में एकाध डेरा तो आम ही मिल जाएगा। मेरे गाँव में तो फिर भी चार चार डेरे हैं, रोडू पीर, बाबा टिल्ले वाला, डेरा बाबा गंगाराम, जिनको मैंने पौष के महीने में बर्फ जैसे पानी से जलधारा करवाया था, रोज कई घड़े डाले जाते थे उनके सिर पर, और जो डेरा मेरे खेतों के बीचोबीच था, उसका नाम था डेरा बाबा भगवान दास। गाँव वाले बताते हैं कि काफी समय पहले की बात है, गाँव में बारिश नहीं हो रही थी, लोग इंद्र देव को खुश करने के लिए हर तरह से प्रयास कर रहे थे, लेकिन इंद्रदेव बरसने को तैयार ही नहीं था। दुखी हुए लोग गाँव में आए एक रमते साधु भगवान दास के पास चले गए। उन्होंने उनसे बेनती बगैरह किया।

सेक्स एजुकेशन से आगे की बात

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देश में सेक्स एजुकेशन को लेकर अनूठी बहस चल रही है, कुछ रूढ़िवादी का विरोध कर रहे हैं और कुछ इसके पक्ष में बोल रहे हैं। लेकिन कितनी हैरानी की बात है कि किसी शिक्षा की बात कर रहे हैं हम सब, जो इस देश में आम है। सचमुच सेक्स शिक्षा इस देश में आम है, वो बात अलहदा है कि वो चोरी छिपे ग्रहण की जा रही है। इस देश में सेक्स शिक्षा आम है, इसका सबूत तो नवविवाहित जोड़ों से लगाया जा सकता है। खुद से सवाल करें, जब उनकी शादी होती है कौन सिखाता है उनको सेक्स करना। हाँ, अगर जरूरत है तो सेक्स से ऊपर उठाने वाली शिक्षा की। इस देश का दुर्भाग्य है कि सेक्स को पाप, पति को परमेश्वर और नारी को नरक का द्वार कहा जाता है। अब सोचो, जब तीनों बातें एक साथ एकत्र होंगी, तो क्या होगा? युद्ध ही होगा और कुछ नहीं। कितनी हैरानी की बात है कि हम उसको युद्ध नहीं बल्कि सात जन्मों का पवित्र बंधन भी कहते हैं। अगर सेक्स पाप है, तो जन्म लेने वाली हर संतान पाप की देन है, अगर वो पाप की देन है तो वो पापमुक्त कैसे हो सकती है? हमने सेक्स को पहले पाप कहा, फिर शादी का बंधन बनाकर उसका परमिट भी बना दिया। हमारी सोच में कितना विरोधाभास है। हमने

नेता, अभिनेता और प्रचार विक्रेता

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जब हम तीनों बहन भाई छोटे थे, तब आम बच्चों की तरह हमको भी टीवी देखने का बहुत शौक था, मुझे सबसे ज्यादा शौक था। मेरे कारण ही घर में कोई टीवी न टिक सका, मैं उसके कान (चैनल ट्यूनर) मोड़ मोड़कर खराब कर देता था। पिता को अक्सर सात बजे वाली क्षेत्रिय ख़बरें सुनी होती थी, वो सात बजे से पहले ही टीवी शुरू कर लेते थे, लेकिन जब कभी हमें टीवी देखते देखते देर रात होने लगती तो बाहर सोने की कोशिश कर रहे पिता की आवाज आती,"कंजरों बंद कर दो, इन्होंने तो पैसे कमाने हैं, तुम्हें बर्बाद कर देंगे टीवी वाले"। तब पिता की बात मुझे बेहद बुरी लगती, लगे भी क्यों न टीवी मनोरंजन के लिए तो होता है, और अगर कोई वो भी न करने दे तो बुरा लगता ही है, लेकिन अब इंदौर में पिछले पाँच माह से अकेला रह रहा हूँ, घर में केबल तार भी है, मगर देखने को मन नहीं करता, क्योंकि पिता की कही हुई वो कड़वी बात आज अहसास दिलाती है कि देश के नेता, अभिनेता और अब प्रचार विक्रेता (न्यूज चैनल) भी देश की जनता को उलझाने में लगे हुए हैं। आज 24 घंटे 7 दिन निरंतर चलने वाले न्यूज चैनल वो सात बजे वाली खबरों सी गरिमा बरकरार नहीं रख पा रहे, पहले जनता को

कच्ची सड़क,,,अमृता प्रीतम और मैं

ए क सप्ताह पहले पंजाब गया था, और शनिवार को ही इंदौर लौटा। मुझे किताबें खरीदने का शौक तो बहुत पहले से था, लेकिन पढ़ने का शौक पिछले दो तीन सालों से हुआ है। मैं किताब उसका शीर्षक देखकर खरीदता हूँ, लेखक देखकर नहीं। पता नहीं क्यों?। अब तक ऐसा करने से मुझे कोई नुक्सान नहीं हुआ, हर बार अच्छा ही हाथ लगा है। इस बार जब दिल्ली स्टेशन पर बैठा था, तो मेरी निगाह सामने किताबों वाली दुकान पर गई, जबकि मेरे बैग में पहले से ही मैक्सिम गोर्की की विश्व प्रसिद्ध किताब "माँ" पड़ी थी, जिसको भी मैंने केवल शीर्षक देखकर ही खरीदा था। मैं किताबों की दुकान पर गया, वहाँ सजी हुई किताबों पर नजर दौड़ाई, तो मेरी नजर किताबों के बीचोबीच पड़ी एक किताब "कच्ची सड़क" पर गई। कच्ची सड़क अमृता प्रीतम की थी, मुझे तब पता चला जब वो किताब मेरे हाथों में आई। मैंने लेखक को नहीं देखा, केवल किताब का शीर्षक देखा, शीर्षक अच्छा लगा किताब खरीद ली। शीर्षक इसलिए भी ज्यादा भा गया, जब मैं ब्लॉगस्पॉट पर पहली बार आया था, तब मेरे ब्लॉग का नाम कच्ची सड़क था, जो मेरी गलती के कारण मुझसे नष्ट हो गया था। अमृता प्रीतम महिलाओं को बेहद पसंद ह

मैं था अज्ञानी

1- मेरे काफिले में बहुत समझदार थे, बहुत विद्वान थे, सब चल दिए भगवान की तलाश में जंगल की ओर, और मैं था अज्ञानी बस माँ को ही ताँकता रहा। 2- कहूँ तो क्या कहूँ, चुप रहूँ तो कैसे रहूँ, शब्द आते होठों पर नि:शब्द हो जाते हैं। ढूँढने निकल पड़ता हूँ जो खो जाते हैं। फिर मिलता है एक शब्द अद्बुत वो कमतर सा लगता है तुम ही बतला देना सूर्य को क्या दिखाऊं। 1. समीर लाल समीर के काव्य संग्रह बिखरे मोती से कुछ पंक्तियाँ पढ़ने के बाद जो दिल में आया लिख डाला, 2. खुशदीप सहगल की एक पोस्ट पढ़ने के बाद लिखा था। आ भार कुलवंत हैप्पी

मिल्क नॉट फॉर सेल

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आज गुरूवार को सुबह माताजी के दर्शनों के लिए अम्बाजी गया, वहाँ पर माता जी का बहुत विशाल मंदिर है, इस मंदिर में माता जी के दर्शनों के लिए दूर दूर से भक्त आते हैं। मातृदर्शन के बाद वापसी में जब मैं खेड़ब्रह्मा पहुंचा तो मेरी नजर सामने जा रहे एक दूध वाहन पर पड़ी, जिसके पीछे लिखा हुआ था "मिल्क नॉट फॉर सेल"। जिसका शायद हिन्दी में अर्थ दूध बेचने के लिए नहीं, कुछ ऐसा ही निकलता है। इस पंक्ति को पढ़ते ही जेब से मोबाइल निकाला और फोटो खींच डाली। इस लाइन ने मुझको बारह तेरह साल पीछे धकेल दिया स्कूल के दिनों में। उन दिनों मैंने एक किताब में पढ़ा था कि पाकिस्तान में एक गुजरांवाला नामक गाँव है, जहाँ पर लोग दूध और पूत नहीं बेचते थे। गुजरांवाला के अलावा भी बहुत से ग्रामीण क्षेत्रों में दूध और पूत नहीं बेचे जाते थे, लेकिन आज दूध भी बिकता है और पूत भी। लोग आज अपने घर का सारा दूध डेयरी में डालकर खुद चाय पीते हैं, उस बिके हुए दूध से आज उनके घर चलते हैं। एक समय था जब गाँव में किसी के घर दामाद आता तो आस पड़ोस से दूध के लोटे बिन मंगाए ही आ जाते और विवाह शादियों में दूध खरीदना नहीं पड़ता था, बस एक बार लाउ