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अपनों के खून से सनते हाथ

अपनों के खून से सनते हाथ, आदम से इंसान तक का सफर अभी अधूरा है को दर्शाते हैं। झूठे सम्मान की खातिर अपनों को ही मौत के घाट उतार देता है आज का आदमी। पैसे एवं झूठे सम्मान की दौड़ में उलझे व्यक्तियों ने दिल में पनपने वाले भावनाओं एवं जज्बातों के अमृत को जहर बनाकर रख दिया है, और वो जहर कई जिन्दगियों को एक साथ खत्म कर देता है। पाकिस्तान की तरह हिन्दुस्तान में भी ऑनर किलिंग के मामले निरंतर सामने आ रहे हैं, ऐसा नहीं कि भारत में ऑनर किलिंग का रुझान आज के दौर का है, ऑनर किलिंग हो तो सालों से रही है, लेकिन सुर्खियों में अब आने लगी है, शायद अब पाकिस्तान की तरह हिन्दुस्तानी हुक्मरानों को भी चाहिए कि वो भी मर्दों के लिए ऐसे कानून बनाए, जो उनको ऐसे शर्मनाक कृत्य करने की आजादी मुहैया करवाए। पाकिस्तानी मर्दों की तरह हिन्दुस्तानी मर्द भी औरतों को बड़ी आसानी से मौत की नींद सुला सके, वो अपना पुरुष एकाधिकार कायम कर सकें। वोट का चारा खाने में मशगूल सरकारें मूक हैं और खाप पंचायतें अपनी दादागिरी कर रही हैं। इन्हीं पंचायतों के दबाव में आकर माँ बाप अपने बच्चों को मौत की नींद सुला देते हैं, जिनको जन्म देने ए

क्या देखते हैं वो फिल्में...

मंगलवार को एक काम से चंडीगढ़ जाना हुआ, बठिंडा से चंडीगढ़ तक का सफर बेहद सुखद रहा, क्योंकि बठिंडा से चंडीगढ़ तक एसी कोच बसों की शुरूआत जो हो चुकी है, बसें भी ऐसी जो रेलवे विभाग के चेयर कार अपार्टमेंट को मात देती हैं। इन बसों में सुखद सीटों के अलावा फिल्म देखने की भी अद्भुत व्यवस्था है। इसी व्यवस्था के चलते सफर के दौरान कुछ समय पहले रिलीज हुई पंजाबी फिल्म मिट्टी देखने का मौका मिल गया, जिसके कारण तीन चार घंटे का लम्बा सफर बिल्कुल पकाऊ नहीं लगा। पिछले कुछ सालों से पुन:जीवित हुए पंजाबी फिल्म जगत प्रतिभाओं की कमी नहीं, इस फिल्म को देखकर लगा। फिल्म सरकार द्वारा किसानों की जमीनों को अपने हितों के लिए सस्ते दामों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले करने जैसी करतूतों से रूबरू करवाते हुए किसानों की टूटती चुप्पी के बाद होने वाले साईड अफेक्टों से अवगत करवाती है। फिल्म की कहानी चार बिगड़े हुए दोस्तों से शुरू होती है, जो नेताओं के लिए गुंदागर्दी करते हैं, और एक दिन उनको अहसास होता है कि वो सही अर्थों में गुंडे नहीं, बल्कि सरदार के कुत्ते हैं, जो उसके इशारे पर दुम हिलाते हैं। वो इस जिन्दगी से निजा

किसान एवं टुकड़े दो रचनाएं

किसान फटे पुराने मटमैले से कपड़े टूटे जूते मटमैले से जख्मी पैर कंधे पर रखा परना ढही सी पगड़ी अकेले ही खुद से बातें करता जा रहा है शायद मेरे देश का कोई किसान होगा। परना- डेढ़ मीटर लम्बा कपड़ा टुकड़े बचपन में जब एक रोटी थी, तो माँ ने दो टुकड़े कर दिए, एक मेरा, और एक भाई का लेकिन जब हम जवान हुए, तो हमने घर के दो टुकड़े कर दिए एक पिता का, और एक माई का। नोट :- उत्सव परिकल्पना 2010 में पूर्व प्रकाशित रचनाएं।

कितने और हैं पैसे और शहीदी ताज?

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कुलवंत हैप्पी कितने शहीदी ताज और मुआवजा देने के लिए पैसे हैं, शायद सरकार के लेखाकार और नीतिकार सोच रहे होंगे? साथ में यह भी सोच रहे होंगे कि बड़ी मुश्किल से हवाई हादसे की ख़बर के कारण जनता का ध्यान बस्तर से हटा था, नक्सलवाद से हटा था। चलो अफजल गुरू को फाँसी भले ही अब तक नहीं दे सके, लेकिन कसाब को फाँसी की सजा सुनाकर जनता की आँख में धूल तो झोंक ही दी, जो आँखें बंद कर जीवन जीने में व्यस्त है। आजकल तो हमारे पास कोई नेता भी नहीं बचा, जो मीडिया में गलत सलत बयानबाजी कर निरंतर हो रहे नक्सली हमलों से मीडिया का और जनता का ध्यान दूर खींच सके। देखो न कितना कुछ है सोचने के लिए सरकार के सलाहकारों के पास। आप सोच रहे होंगे क्या सलाहकार सलाहकार लगा रखी है, बार बार क्यों लिख रहा हूँ सलाहकार। लेकिन क्या करूं, देश के उच्च पदों पर बैठे हुए नेतागण भी फैसला लेने से पहले अपने सलाहकारों से बात करते हैं, सलाहकार भी नेताओं से चालू हैं, वो भी वहाँ बैठे बैठे ही टेबल स्टोरी जर्नलिस्ट की तरह बैठे बैठे लम्बी चौड़ी स्टोरियों सी सलाहें नेताओं के दे डालते हैं, जो वास्तविकता से कोसों दूर होती हैं। जनता की आँख में धूल

बुजुर्ग की खुशी का रहस्य

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मैं कभी नहीं भूल सकता, एक बड़ा सा घर, और वो बुजुर्ग, जो सुबह सुबह मुझे गैलरी में खड़ा मिलता है। मैं उसको देखता हूँ, वो मुझे देखता है। हल्की सी मुस्कान का आदान प्रदान होता है दोनों में, और फिर मैं आगे बढ़ जाता हूँ, बिना कुछ बोले। इस तरह की वार्तालाप कई दिनों तक चलती है हम दोनों में, लेकिन एक दिन होठों की मुस्कान छोटे से बोलते संवाद में बदलती है, और मैं पूछ बैठता हूँ, आपकी खुशी का राज क्या है? मैं जानना चाहता हूँ, दुनिया में मुझे हर शख्स दुखी मिलता है, लेकिन आपका चेहरा देखते ही दुनिया भर के दुखी लोग मेरी आँख से ओझल हो जाते हैं, क्यों?। जवाब में वो बुजुर्ग उंगली का इशारा सामने की ओर करता है, यहाँ पर सरकारी जमीं पर एक झुग्गी बनी हुई है, जिसमें कम से कम पाँच लोग रहते हैं मुर्गे मुर्गियों (कॉक एंड हैनकॉक) के साथ।

हैप्पी अभिनंदन में दीपक "मशाल"

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हैप्पी अभिनंदन में आज आप जिस ब्लॉगर हस्ती से मिलने जा रहे हैं, वो शख्सियत अपनी माटी से शारीरिक तौर पर तो दूर है, लेकिन रूह से जुड़ी हुई है। यही जुड़ाव तो है, जो कोंच छोड़ने और बेलफास्ट, उत्तरी आयरलैंड पहुंचने के बाद भी हिन्दी ब्लॉग जगत के दीपक "दीपक मशाल' को अपने देश एवं अपनी बोली से जोड़े हुए है। इस दीपक के प्रकाश से हम सब हर रोज मसि कागद पर रूबरू होते हैं। आओ जानते हैं कि दीपक से मशाल का रूप ले रहे युवा कवि एवं ब्लॉगर दीपक मशाल से वो क्या कहते हैं, खुद के एवं ब्लॉग जगत के बारे में।

दिलों में नहीं आई दरारें

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लेखक : कुलवंत हैप्पी पिछले कई दिनों से मेरी निगाह में पाकिस्तान से जुड़ी कुछ खबरें आ रही हैं, वैसे भी मुझे अपने पड़ोसी मुल्कों की खबरों से विशेष लगाव है, केवल बम्ब धमाके वाली ख़बरों को छोड़कर। सच कहूँ तो मुझे पड़ोसी देशों से आने वाली खुशखबरें बेहद प्रभावित करती हैं। जब पड़ोसी देशों से जुड़ी किसी खुशख़बर को पढ़ता हूँ तो ऐसा लगता है कि अलग हुए भाई के बच्चों की पाती किसी ने अखबार के मार्फत मुझ तक पहुंचा दी। इन खुशख़बरों ने ऐसा प्रभावित किया कि शुक्रवार की सुबह अचानक लबों पर कुछ पंक्तियाँ आ गई। दिल्ली से इस्लामाबाद के बीच जो है फासला मिटा दे, मेरे मौला, नफरत की वादियों में फिर से, मोहब्बत गुल खिला दे, मेरे मौला, सच कहूँ, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच अगर कोई फासला है तो वो है दिल्ली से इस्लामाबाद के बीच, मतलब राजनीतिक स्तर का फासला, दिलों में तो दूरियाँ आई ही नहीं। रिश्ते वो ही कमजोर पड़ते हैं, यहाँ दिलों में दूरियाँ आ जाएं, लेकिन यहाँ दूरियाँ राजनीतिज्ञों ने बनाई है। साहित्यकारों ने तो दोनों मुल्कों को एक करने के लिए अपनी पूरी जान लगा दी है। अगर दिलों में भी मोहब्बत मर गई होती तो शायद श्री

वरना, रहने दे लिखने को

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रचनाकार : कुलवंत हैप्पी तुम्हें बिकना है, यहाँ टिकना है, तो दर्द से दिल लगा ले दर्द की ज्योत जगा ले लिख डाल दुनिया का दर्द, बढ़ा चढ़ाकर रख दे हर हँसती आँख रुलाकर हर तमाशबीन, दर्द देखने को उतावला है बात खुशी की करता तू, तू तो बावला है मुकेश, शिव, राजकपूर हैं देन दर्द की दर्द है दवा असफलता जैसे मर्ज की साहित्य भरा दर्द से, यहाँ मकबूल है बाकी सब तो बस धूल ही धूल है, संवेदना के समुद्र में डूबना होगा, गम का माथा तुम्हें चूमना होगा, बिकेगा तू भी गली बाजार दर्द है सफलता का हथियार सच कह रहा हूँ हैप्पी यार माँ की आँख से आँसू टपका, शब्दों में बेबस का दर्द दिखा रक्तरंजित कोई मंजर दिखा खून से सना खंजर दिखा दफन है तो उखाड़, आज कोई पंजर दिखा प्रेयसी का बिरह दिखा, होती घरों में पति पत्नि की जिरह दिखा हँसी का मोल सिर्फ दो आने, दर्द के लिए मिलेंगे बारह आने फिर क्यूं करे बहाने, लिखना है तो लिख दर्द जमाने का वरना, रहने दे लिखने को

20 साल का संताप, सजा सिर्फ दो साल!

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देश का कानून तो कानून, सजा की माँग करने वाले भी अद्भुत हैं। बीस साल का संताप भोगने पर सजा माँगी तो बस सिर्फ दो साल। जी हाँ, हरियाणा के बहु चर्चित रूचिका गिरहोत्रा छेड़छाड़ मामले जिरह खत्म हो चुकी है, और फैसला 20 मई को आना मुकर्रर किया गया है, लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि सीबीआई एवं गिरहोत्रा परिवार ने मामले के मुख्य आरोपी को दोषी पाए जाने पर सजा अधिकतम दो साल माँगी। बीस साल का संताप भोगने के बाद जब इंसाफ मिलने की आशा दिखाई दी तो दोषी के लिए सजा दो साल माँगना, ऊंट के मुँह में जीरे जैसा लगता है। - कुलवंत हैप्पी उल्लेखनीय है कि रूचिका के साथ 12 अगस्त, 1990 को तत्कालीन आईजी व लोन टेनिस एसोसिएशन के अध्यक्ष एसपीएस राठौर ने छेड़छाड़ की थी। आज उस बात को दो दशक होने जा रहे हैं। इन दो दशकों में गिरहोत्रा परिवार ने अपनी लॉन टेनिस खिलाड़ी बेटी खोई, अपना सुख चैन गँवाया, गिरहोत्रा परिवार के बेटे ने चोरी के कथित मामलों में अवैध कैद काटी, पुलिस का जुल्म ओ सितम झेला, लेकिन जिसके कारण गिरहोत्रा परिवार को इतना कुछ झेलना पड़ा वो आजाद घूमता रहा बीस साल, अब जब उसके सलाखों के पीछे जाने का वक्त आया तो सज

हैप्पी अभिनंदन में शिवम मिश्रा

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ब्लॉग ने पूरे हिन्दुस्तान को एक मंच पर ला खड़ा किया है, ब्लॉगिंग के बहाने हमको देश के कोने कोने का हाल जानने को मिल जाता है। देश का कितना बड़ा भी न्यूज पेपर हो, लेकिन आज वो ब्लॉग जगत के मुकाबले बहुत छोटा है। अखबार गली कूचों में बांट कर रह गया है, कारोबार ने उसकी सीमाएं बहुत छोटी कर दी। अखबार का दायरा जितना छोटा हुआ है, ब्लॉग जगत का दायरा उतना ही बड़ा हुआ है। जम्मू कश्मीर से मदरास तक और असम से गुजरात तक ही नहीं बल्कि हिन्दी ब्लॉगिंग का नेटवर्क तो सरहद पार विदेशों तक फैला हुआ है। इस नेटवर्क को एक एक ब्लॉगर ने बनाया है, ब्लॉग नेटवर्क एक माला की तरह है, जो एक एक मोती से बनती है। इस ब्लॉग रूपी माला में बहुत से मोती हैं, उन्हीं मोतियों में से एक मोती शिवम मिश्रा के साथ आज हैप्पी अभिनंदन में आप सबको रूबरू करवाने जा रहा हूँ, जो उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले से बुरा भला एवं जागो सोने वालों ब्लॉग को संचालित करते हैं। आओ आगे पढ़ें, कुलवंत हैप्पी   के सवाल और शिवम मिश्रा के जवाब। कुलवंत हैप्पी : सबसे पहले जानना चाहेंगे कि आपकी जन्मस्थली कौन सी है और आपका जन्म कब हुआ? शिवम मिश्रा : मेरा जन्म 15

आज भी हीर कहाँ खड़ी है?

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कुलवंत हैप्पी समय कितना आगे निकल आया, जहाँ साइंस मंगल ग्रह पर पानी मिलने का दावा कर रही, जहाँ फिल्म का बज़ट करोड़ों की सीमाओं का पार कर रहा है, जहाँ लोहा (विमान) आसमाँ को छूकर गुजर रहा है, लेकिन फिर भी हीर कहाँ खड़ी है? रांझे की हीर। समाज आज भी हीर की मुहब्बत को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। भले ही हीर के पैदा होने पर मातम अब जश्नों में तब्दील होने लगा है, लेकिन उसके ख़ाब देखने पर आज भी समाज को एतराज है। जी हाँ, बात कर रहा हूँ निरुपमा पाठक। जिसको अपनी जान से केवल इसलिए हाथ धोना पड़ा, क्योंकि उसने आज के आधुनिक जमाने में भी हीर वाली गलती कर डाली थी, एक लड़के से प्यार करने की, खुद के लिए खुद जीवन साथी चुनने की, शायद उसको लगा था कि डीडीएल की सिमरन की तरह उसके माँ बाप भी अंत में कह ही डालेंगे जाओ जाओ खुश रहो..लेकिन ऐसा न हुआ निरुपमा के साथ। वारिस शाह की हीर ने अपने घर में भैंसों गायों को संभालने वाले रांझे से मुहब्बत कर ली थी, जो तख्त हजारा छोड़कर उसके गाँव सयाल आ गया था। दोनों की मुहब्बत चौदह साल तक जमाने की निगाह से दूर रही, लेकिन जैसे ही मुहब्बत बेपर्दा हुई कि हीर के माँ बाप ने उसकी शा

माँ दिवस पर "युवा सोच युवा खयालात" का विशेषांक

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अगर आसमाँ कागद बन जाए, और समुद्र का पानी स्याही, तो भी माँ की ममता का वर्णन पूरा न लिख होगा, लेकिन फिर शायरों एवं कवियों ने समय समय पर माँ की शान में जितना हो सका, उतना लिखा। शायरों और कवियों ने ही नहीं महात्माओं, ऋषियों व अवतारों ने भी माँ को भगवान से ऊंचा दर्जा दिया है। आज माँ दिवस है, ऐसे शुभ अवसर पर विश्व की हर माँ को तहेदिल से इस दिवस की शुभकामनाएं देते एवं उनके चरण स्पर्श करते हुए उनकी शान में कवियों शायरों द्वारा लिखी रचनाओं से भरा एक पन्ना उनको समर्पित करता हूँ, एक छोटे से तोहफे के तौर पर। खट्टी चटनी जैसी माँ।-निदा फाज़ली बेसन की सौंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ। याद आती है चौका बासन, चिमटा फूँकनी जैसी माँ। बाँस की खुर्री खाट के ऊपर, हर आहट पर कान धरे। आगे पढ़ें चार दीवार-इक देहरी माँ - सुधीर आज़ाद चार दीवार-इक देहरी माँ इक उलझी हुई पहेली माँ। सारे रिश्ते उस पर रक्खे, क्या क्या ढोए अकेली माँ। सर्द रातों का ठंडा पानी, जून की दोपहरी माँ। आगे पढ़ें  आलोक श्रीवास्तव की रचना-अम्मा धूप हुई तो आंचल बन कर कोने-कोने छाई अम्मा, सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन तनहाई अम्मा। सारे रिश्ते- ज

हैप्पी अभिनंदन में यशवंत महेता "फकीरा"

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क्षमा चाहता हूँ, पिछले मंगलवार को मैं आपके सामने किसी भी ब्लॉगर हस्ती को पेश नहीं कर पाया। समय नहीं था कहना तो केवल बहाना होगा, इसलिए खेद ही प्रकट करता हूँ। हैप्पी अभिनंदन में आज आप जिस ब्लॉगर हस्ती से मिलने जा रहे हैं, उनको अनुभवी जनों और बुद्धिजीवियो का साथ, चाय पीना, खेतों की हरियाली, बच्चन की मधुशाला को बार-बार पढना, बच्चों से बातें करना और बच्चों के संग बच्चा बन जाना बेहद अच्छा लगता है। इंदौर से दिल्ली तक का सफर तय करने वाली इस ब्लॉगर हस्ती को हम सब युग क्रांति ब्लॉग पर यशवंत महेता 'फकीरा' के नाम से पढ़ते हैं। जी हाँ, इस बार हमारे साथ यशवंत महेता फकीरा हैं, जिनके विचारों के धागों से बुनी हुई कविताएं रूपी चादरें फकीरा का कोना ब्लॉग पर भी सजी हुई हैं। आओ जानते हैं ब्लॉग जगत और खुद के बारे में यशवंत महेता "फकीरा" क्या कहते हैं? कुलवंत हैप्पी : आप यशवंत महेता से फकीरा कैसे बने? फकीरा : यह तो बहुत ही खतरनाक सवाल है। बस एक दिन किसी से प्यार हो गया था। उसके दर पर गए जब तो उसने फकीरा बोल दिया और उस दिन से यशवंत महेता फकीरा बन गया। कुलवंत हैप्पी : आपकी जन्मस्थली

लफ्जों की धूल-6

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लेखक कुलवंत हैप्पी (1) जिन्दगी सफर है दोस्तो, रेस नहीं, रिश्ता मुश्किल टिके, अगर बेस नहीं, वो दिल ही क्या हैप्पी जहाँ ग्रेस नहीं, (2) कभी नहीं किया नाराज जमाने को, फिर भी मुझसे एतराज जमाने को, जब भी भटकेगा रास्ते से हैप्पी, मैं ही दूँगा आवाज जमाने को (3) क्या रिश्ता है उस और मुझ में जो दूर से रूठकर दिखाता है मेरे चेहरे पर हँसी लाने के लिए वो बेवजह भी मुस्कराता है चेहरे तो और भी हैं हैप्पी, मगर ध्यान उसी पर क्यों जाता है (4) कभी कभी श्रृंगार, कभी कभी सादगी भी अच्छी है कभी मान देना, तो कभी नजरंदाजगी भी अच्छी है जैसे हर रिश्ते में थोड़ी थोड़ी नाराजगी भी अच्छी है (5) जरूरी नहीं कि मेरे हर ख़त का जवाब आए वो किताब ले जाए, और उसमें गुलाब आए बस तमन्ना इतनी सी है हैप्पी रुखस्त हूँ जब मैं, उस आँख में आब आए *आब-पानी (6) हाथ मिलाते हैं हैप्पी रुतबा देखकर, दिल मिलाने की रिवायत नहीं तेरे शहर में इसलिए खुदा की इनायत नहीं तेरे शहर में *रिवायत-रिवाज

इससे बड़ी दुर्घटना क्या होगी?

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लेखक कुलवंत हैप्पी जिन्दगी सफर थी, लेकिन लालसाओं ने इसको रेस बनाकर रख दिया। जब सफर रेस बनता है तो रास्ते में आने वाली सुंदर वस्तुओं का हम कभी लुत्फ नहीं उठा पाते, और जब हम दौड़ते दौड़ते थक जाते हैं अथवा एक मुकाम पर पहुंचकर पीछे मुड़कर देखते हैं तो बहुत कुछ छूटा हुआ नजर आता है। उसको देखकर हम फिर पछताने लगते हैं, और हमें हमारी जीत भी अधूरी सी लगती है। अगर जिन्दगी को सफर की तरह लेते और रफतार धीमे रखते तो शायद मंजिल तक पहुंचने में देर होती, लेकिन दुर्घटना न होती। उससे बड़ी दुर्घटना क्या होगी, रूह का दमन हो जाए, और हड्डियों का साँचा बचा रह जाए। जिन्दगी जैसे खूबसूरत सफर को हम दौड़ बनाकर रूह का दमन ही तो करते हैं, जिसका अहसास हमको बहुत देर बाद होता है। जो इस अहसास को देर होने से पहले महसूस कर लेते हैं, वो इस सफर के पूर्ण होने पर खुशी से भरे हुए होते हैं, उनके मन में अतीत के लिए कोई पछतावा नहीं होता। पिछले दिनों बीबीसी की हिन्दी वेबसाईट पर रेणु अगाल का भूटान डायरी सिरलेख से लिखा एक लेख पढ़कर इसलिए अच्छा लगा क्योंकि उन्होंने अपने लेख के मार्फत दुनिया के विकासशील देशों को आईना दिखाने की कोशिश क

चर्चा विराम का नुस्खा : अधजल गगरी छलकत जाय

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लेखक कुलवंत हैप्पी   यह कहावत तब बहुत काम लगती है, जब खुद को ज्ञानी और दूसरे को मूर्ख साबित करना चाहते हों। अगर आप चर्चा करते हुए थक जाएं तो इस कहावत को बोलकर चर्चा समाप्त भी कर सकते हैं मेरी मकान मालकिन की तरह। जी हाँ, मेरी जब जब भी मेरी मकान मालकिन के साथ किसी मुद्दे पर चर्चा होती है तो वे अक्सर इस कहावत को बोलकर चर्चा को विराम दे देती है। इसलिए अक्सर मैं भी चर्चा से बचता हूँ, खासकर उसके साथ तो चर्चा करने से, क्योंकि वो चर्चा को बहस बना देती है, और आखिर में उक्त कहावत का इस्तेमाल कर चर्चा को समाप्त करने पर मजबूर कर देती है। मुझे लगता है कि चर्चा और बहस में उतना ही फर्क है, जितना जल और पानी में या फिर आईस और स्नो में। कभी किसी ने सोचा है कि सामने वाला अधजल गगरी है, हम कैसे फैसला कर सकते हैं? क्या पता हम ही अधजल गगरी हों? मुझे तो अधजल गगरी में भी कोई बुराई नजर नहीं आती। कुछ लोगों की फिदरत होती है, हमेशा सिक्के के एक पहलू को देखने की। कभी किसी ने विचार किया है कि अधजल गगरी छलकती है तो सारा दोष उसका नहीं होता, कुछ दोष तो हमारे चलने में भी होगा। मुझे याद है, जब खेतों में पानी वाला

नित्यानंद सेक्स स्केंडल के बहाने कुछ और बातें

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लेखक कुलवंत हैप्पी नई दिल्ली से इंदौर तक आने वाली मालवा सुपरफास्ट रेलगाड़ी की यात्रा को मैं कभी नहीं भूल सकता, अगर भूल गया तो दूसरी बार उसमें यात्रा करने की भूल कर बैठूँगा। इस यात्रा को न भूलने का एक और दूसरा भी कारण है। वो है, हमारे वाले कोच में एक देसी साधू और उसकी विदेशी चेली का होना। साधू चिलम सूटे का खाया हुआ 32 साल का लग रहा था, जबकि उसके साथ साधुओं का चोला पहने बैठी वो लड़की करीबन 25-26 की होगी। उन दोनों की जोड़ी पूरे कोच मुसाफिरों का ध्यान खींच रही थी, हर कोई देखकर मेरी तरह शायद हैरत में पड़ा सोच रहा था कि आखिर ऐसी कौन सी नौबत आई होगी कि भरी जवानी में साधुओं का साथ पसंद आ गया, और वो भी चिलमबाज साधु का। मैं एक और बात भी सोच रहा था कि अगर एक महिला साथी ही चाहिए तो गृहस्थ जीवन में क्या बुराई है? जिसको त्यागकर लोग साधु सन्यासी बन जाते हैं। शायद जिम्मेदारियों से भाग खड़े होने का सबसे अच्छा तरीका है साधु बन जाना। स्वर्ग सा गृहस्थ जीवन छोड़कर पहले साधु बनते हैं, फिर समाधि छोड़कर संभोग की तरफ आते हैं, और जन्म देते हैं सेक्स स्केंडल को। स्वामी नित्यानंद जी आजकल सेक्स स्केंडल के कारण ही त

लफ्जों की धूल-5

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(1) कुलवंत हैप्पी अगर हिन्दु हो तो कृष्ण राम की कसम मुस्लिम हो तो मोहम्मद कुरान की कसम घरों को लौट आओ, हर सवाल का जवाब आएगा हैप्पी हथियारों से नहीं, विचारों से इंकलाब आएगा (2) नजरें चुराते हैं यहाँ से, वहीं क्यों टकराव होता है चोट अक्सर वहीं लगती है हैप्पी यहाँ घाव होता है। (3) तू तू मैं मैं की लड़ाई कब तक दो दिलों में ये जुदाई कब तक खुशी को गले लगा हैप्पी पल्लू में रखेगा तन्हाई कब तक (4) जैसे साहिर के बाद हर अमृता, एक इमरोज ढूँढती है वैसे ही मौत हैप्पी का पता हर रोज ढूँढती है

वत्स, तुम रो क्यों रहे हो : पीएम टू शशि थरूर

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लेखक   कुलवंत हैप्पी एक बार की बात है, एक व्यक्ति रोता हुआ घर जा रहा था, रास्ते में रोककर एक साधु ने उससे पूछा, "वत्स, तुम रो क्यों रहे हो"। तो उसने कहा कि उसका साईकिल चोरी हो गया। साधु ने उसकी बात सुनते ही कहा, "भगवान ने तुमसे साईकिल छीना है, क्योंकि वो साईकिल लेने के बाद ही तो तुमको मोटर साईकिल देगा"। वो व्यक्ति साधु की बात सुनकर खुश हो गया, और इस स्वप्न के साथ घर की तरफ आँखें पौंछता हुआ चल दिया। बहुत से लोगों के साथ यह किस्सा सच साबित हो चुका है, लेकिन शशि थरूर के साथ सच साबित होगा कि नहीं, कुछ भी कह पाना मुश्किल है। लेकिन हाँ यकीनन ट्विटर मास्टर शशि थरूर ने इस कहानी को पहले कहीं सुना जरूर होगा या फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सुना डाला होगा, क्योंकि पंजाब में तो यह किस्सा बेहद लोकप्रिय है, वरना इतनी आसानी से पीएम को अस्तीफा सौंपने का खयाल तो शशि के दिमाग में न आता। शायद पीएम की ओर से ऐसा भरोसा मिल होगा कि इस बार राज्य विदेश मंत्री थे, तो अगली बार तुमको सीधा केंद्रीय विदेश मंत्री बनाया जाएगा, अगर श्री आडवानी की तरह मोदी का जादू भी नेकस्ट इलेक्शन में न चल

जीत है डर के आगे

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लेखक कुलवंत हैप्पी ड्यू के टीवी विज्ञापन की टैग-लाईन 'डर के आगे जीत है' मुझे बेहद प्रभावित करती है, नि:संदेह औरों को भी करती होगी। सच कहूँ तो डर के आगे ही जीत है, जीत को हासिल करने के लिए डर को मारना ही पड़ेगा, वरना डर तुम को खा जाएगा। पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म "माई नेम इज खान" में एक संवाद है 'डर को इतना मत बढ़ने दो कि डर तुम्हें खा जाए'। असलियत तो यही है कि डर ने मनुष्य को खा ही लिया है, वरना मनुष्य जैसी अद्भुत वस्तु दुनिया में और कोई नहीं। मौत का डर, पड़ोसी की सफलता का डर, असफल होने का डर, भगवान द्वारा शापित कर देने का डर, जॉब चली जाने का डर, गरीब होने का डर, बीमार होने का डर। सारा ध्यान डर पर केंद्रित कर दिया, जो नहीं करना चाहिए था। एक बार मौत के डर को छोड़कर जिन्दगी को गले लगाने की सोचो। एक बार मंदिर ना जाकर किसी भूखे को खाना खिलाकर देखो। एक बार असफलता का डर निकालकर प्रयास करके देखो। असफलता नामक की कोई चीज ही नहीं दुनिया में, लोग जिसे असफलता कहते हैं वो तो केवल अनुभव। अगर थॉमस अलवा एडीसन असफलता को देखता, तो वो हजारों बार कोशिश ना करता और कभी बल्ब