और तो कुछ पता नहीं, लेकिन लोकतंत्र ख़तरे में है

जहां लोकतंत्र में सत्‍ता और विपक्ष रेल की पटरी सा होता है। तो वहीं, लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था एक रेल सी होती है। यदि दोनों पटरियों में असंतुलन आ जाए तो पटना इंदौर एक्‍सप्रेस सा हादसा होते देर नहीं लगती, सैंकड़ों जिंदगियां पल भर में खत्‍म हो जाती हैं। और पीछे छोड़ जाती हैं अफसोस कि काश! संकेतों पर गौर कर लिया होता। वक्‍त रहते कदम उठा लिये गए होते।

ये संकेत नहीं तो क्‍या हैं कि देश सिर्फ एक व्‍यक्‍ति पर निर्भर होता जा रहा है। देश में विपक्ष की कोई अहमियत नहीं रह गई। सत्‍ता पक्ष के खिलाफ बोलना अब देशद्रोह माना जाने लगा है। किसी सरकारी नीति की आलोचना करने का साहस करने पर आपको बुरा भला कहा जाता है।

दिलचस्थ तथ्‍य तो देखो कि भारत बंद की घोषणा होने के साथ ही सत्‍ता पक्ष की तरफ से कुछ दुकानों पर एक सरीखे नारे लिखे बोर्ड या बैनर टांग दिये जाते हैं। हर आदमी के गले में कड़वी बात को उतारने के लिए सेना और देशभक्‍ति का शहद की तरह इस्‍तेमाल किया जा रहा है, ताकि कड़वाहट महसूस न हो।

पहले तो ऐसा नहीं होता था, सरकार के खिलाफ भारत बंद भी होते थे। जो लोग आज सत्‍ता में हैं, वो ही लोग लठ लेकर निकला करते थे। कोई प्‍यार से बंद करे तो ठीक, नहीं तो लठवाद जिन्‍दाबाद। सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करने पर कोई किसी को देशद्रोही की संज्ञा तो नहीं देता था।

याद ही होगा, गुजरात के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ से पहले संसद की चौखट पर शीश रखते हुए पूरे देश को भावुक कर दिया था। दरअसल, राजनीति में ऐसा ड्रामा आज तक किसी ने देखा नहीं था। ड्रामा इसलिए कह रहे हैं क्‍योंकि पिछले कई दिनों से उसी मंदिर से आवाज आ रही है कि आओ प्रधान सेवक आओ, जवाब दो हमारे सवालों के, चर्चा करो हमसे, हम भी जन-प्रतिनिधि हैं। लेकिन, प्रधान सेवक रॉक कंसर्ट को संबोधित करने में व्‍यस्‍त हैं, रैलियों में विपक्ष को काले धन का मालक बताने में व्‍यस्‍त हैं।

जो कड़वी दवा जल्‍दबाजी में दे बैठें हैं, कहीं जनता बाहर न निकाल दे, इसलिए आंसुओं व देशभक्‍ति का शहद मिलाकर निगल जाने के लिए प्रेरित करने में व्‍यस्‍त हैं। बड़ी अजीब बात है कि रैलियों से बैंक की कतारों में खड़े लोगों की तुलना सैनिक से तो कर रहे हैं, लेकिन, मन की बात प्रोग्राम में एक भी बैंक की कतार में शहादत पाए गए व्‍यक्‍ति को याद नहीं किया, और दो आंसू तक आंख से नहीं टपकाए।

आंसू टपके तो इस बात पर वो लोग मुझे नहीं छोड़ेंगें, मुझे मार देंगें। मगर, देश के प्रधान सेवक ने सदन में जाकर उन धमकाने वालों का नाम नहीं बताया, जो उनको नहीं छोड़ेंगें, जो उनको मार देंगें। विपक्ष पूछता रहा, यदि ऐसा है तो पूरा भारत आपके साथ है। लेकिन, अफसोस कि सदन में मौन है, देश का पहला बोलने वाला प्रधान मंत्री।

बहुत कम लोगों को याद होगा कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी मार्च 2016 में सदन के अंदर जबरदस्‍त वक्‍तव्‍य में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी के बयान (देश में सरकारें तो आती जाती रहती हैं, लेकिन देश चलना चाहिए) की नकल करते हुए विपक्ष को महानुभवियों की संज्ञा दी थी। मगर, अफसोस कि नवंबर 2016 आते आते प्रधान मंत्री अपने ही बयान को भूल गये और उसी विपक्ष को काले धन के मालिक करार दे दिया।

अब स्‍थिति ऐसी हो चली है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के कार्य पर उंगुली उठाना भी देशद्रोह है। हाल में ही, जब देश की सर्वोच्‍च अदालत ने सरकार से पूछा कि यदि आप भ्रष्‍टाचार के खिलाफ लड़ने को तैयार हो तो अभी तक लोकपाल की नियुक्‍ति क्‍यों नहीं की? तो नरेंद्र मोदी समर्थक न्‍यायपालिका पर टूट पड़े और पूछा डाला कि अभी तक जो इतने केस लंबित पड़े हैं, उनका क्‍या? अजीब लोकतंत्र है कि अदालतों में जजों की नियुक्‍ति को लेकर भी सरकार और न्‍यायपालिका में ठनी हुई है।

देश में स्‍थिति ऐसी हो चुकी है कि जो नरेंद्र मोदी कहें वो ही सही है। कोई किंतु परंतु करने की जरूरत नहीं। हर बात को सेना से जोड़ा दिया जाता है क्‍योंकि पीआर जो नरेंद्र मोदी को कथित तौर पर संचालित करते हैं, वे अच्‍छी तरह जानते हैं कि किसी भी देश का नागरिक अपनी सेना का अपमान नहीं करेगा। भले ही, भारतीय जनता पार्टी के नेता भारतीय करंसी पर पैर रखकर काले धन की स्‍वच्‍छता का अभियान चलाएं, इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

लोकतंत्र में एक व्‍यक्‍ति पर केंद्रित होना और देश के हर मामले में सेना के कंधे का इस्‍तेमाल ख़तरे की घंटियां हैं। इतना ही नहीं, आज विपक्ष बोल नहीं सकता, आज न्‍याय पालिका बोल नहीं सकती, आज मीडिया का एक तबका सरकार के खिलाफ एक शब्‍द लिख नहीं सकता।

चुटकला - 
मैं ट्रेन में सफर कर रहा था। 
मैंने बगल में बैठे व्‍यक्‍ति से कहा, 'यार कितनी ठंड पड़ रही है ना।'
तो अगले डिब्‍बे से आवाज आती है, 'क्‍या कांग्रेस के समय से ठंड नहीं होती थी?'

जब देश में ऐसे चुटकले प्रचलन में आ जाए तो एक बात अच्‍छे से समझ लेनी चाहिये कि लोकतांत्रिक देश यकीनन एक गलत दिशा में अग्रसर हो रहा है।

पहले देश हिन्‍दु मुस्‍लिम के आधार पर दो हिस्‍सों में बंट रहा था। अब देश देशभक्‍त और देशद्रोही के रूप में बंट रहा है। जो कल तक भारत बंद पर लाठियां लेकर निकलते थे, तोड़ फोड़ करते थे, आज उनके हाथों में मिठाईयां थीं। चलो मान लिया हमने कि देश बदल रहा है। जाने अनजाने में ही सही, लेकिन लोकतंत्र की पटरी से उतर रहा है।

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