महिला दिवस - बराबरी की दौड़ में दोहरापन क्यों ?
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर पहले तो देश विदेश की हर महिला को बधाई हो। और उनको भी जो महिला हितैषी का मॉस्क लगाकर व्यावसायिक लाभ ले रहे हैं।
भारत में महिलाओं के हकों के लिए लड़ने वाले हमेशा चीख चीख कहते हैं, महिलाओं को बराबरी के अधिकार नहीं हैं। उनको बराबरी के अधिकार मिलने चाहिए। मैं ही नहीं, देश के बहुत सारे युवा सोचते होंगे, महिलाओं को ही नहीं, बल्कि देश के हर नागरिक को बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए।
मगर, सवाल तो यह है कि क्या दोहरी सोच समाज में इस तरह का हो पाना संभव है। वीआईपी संस्कृति से लेकर महिलाओं को विशेष अधिकार देने तक की प्रथा ही बराबरी के राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। पिछले दिनों मुझे किसी काम से इंदौर जाना था। मैंने अहमदबाद के बस स्टैंड तक जाने के लिए बीआरटीएस को चुना। बीआरटीएस के स्टैंड पर मैं बस का इंतजार कर रहा था। मेरी मंजिल तक जाने वाली बस आई, जो खाली थी, मगर जैसे ही उसके भीतर बैठने के लिए कदम आगे बढ़ाए तो अंदर से महिला चीखी, ये महिला बस है। ऐसा एक नहीं तीन बार हुआ, थोड़े थोड़े अंतराल पर।
इतना ही नहीं, एक लड़की अपने पुरुष दोस्त के साथ खड़ी थी। जब वे भी बस में चढ़ने लगी तो उसको भी चढ़ने को नहीं मिला, क्योंकि उसका साथी पुरुष था। मैंने पुरुष विशेष बस नहीं देखी। महिला विशेष बस देखी। उन 20 मिनटों के दौरान 4 महिला बसें देखी, जो भीतर से खाली थी। इतना ही नहीं, सामान्य बस में भी महिलाओं के लिए कुछ सीटें रिजर्व कर दी जाती हैं। उन सीटों पर पुरुष जाकर बैठ जाए तो महिलाएं ऐसे देखती हैं, जैसे पुरुष ने कोई गुनाह कर दिया। जबकि बस की महिला अरक्षित सीटें भरी हों, वे ही महिलाएं पुरुषों की सीटों पर कब्जा जमाकर बैठ जाती हैं।
रेलवे में भी महिलाओं के लिए विशेष कोटा। कहीं किसी कतार में लगें तो भी महिलाओं के लिए विशेष कोटा। बराबरी का रोना तो झूठा है, सच तो यह है कि हर कोई यहां अधिक की उम्मीद लिए घूमता है। हर कोई अपने लिए विशेष सुविधाएं चाहता है।
दिल्ली सरकार सम विषम ट्रैफिक नियम लागू करती है तो महिलाओं को विशेष छूट दे दी जाती है। ट्रैफिक नियमों में भी महिलाओं को पुरुषों से अधिक छूट मिल जाती है, भावनात्मक रूप से या कानूनी रूप से। देश की अदालतों में करोड़ों ऐसे केस हैं, जहां केवल महिला होना फायदेमंद हुआ।
बराबरी का अधिकार कानूनों से नहीं, बल्कि सोच में बड़े बदलाव से आएगा। जब तक सोच में बदलाव नहीं आएंगे, तब तक बराबरी का ख्वाब बेईमानी है। सोच में बदलाव केवल महिलाएं करें ऐसा नहीं पुरुषों को भी करना होगा।
मुझे याद है कि एक दिन इसी तरह के मामले पर एक परिचित महिला से संवाद हो रहा था। उसने बोला, मैं बस सफर में खड़ी रहती हूं, महिला हुई तो क्या ? मैं नहीं चाहती कोई जगह ये सोच कर दे कि मैं महिला हूं ? मैं जानती हूं कि महिलाएं पुरुषों से अधिक मजबूत होती हैं, विशेषकर सहनशीलता के मामले में।
मगर, वहां एक दूसरी दिक्कत खड़ी हुई, वे सोच की। यदि महिला पुरुषों की भीड़ में अकेली खड़ी हो जाए तो पुरुषों के दिमाग में पहले विचार चलने लगते हैं कि इसको पुरुषों में रहकर अधिक मजा आता है। इस तरह के ख्याली पुलाव बनाने वाले पुरुष महिलाओं को विशेष अधिकार की तरफ दौड़ा देते हैं।
इसलिए यदि बराबरी के अधिकार लागू करने हैं तो सोच में परिवर्तन भी जरूरी होगा। महिलाएं भी विशेषाधिकारों को छोड़कर सही तरीके से बराबरी का मार्ग चुनें। यकीनन मुश्किल है क्योंकि महिलाओं और पुरुषों की लाइन एक हो जाएगी। महिला के लिए स्पेशल बस, स्पेशल लाइन, स्पेशल रूल नहीं होंगे।
भारत में महिलाओं के हकों के लिए लड़ने वाले हमेशा चीख चीख कहते हैं, महिलाओं को बराबरी के अधिकार नहीं हैं। उनको बराबरी के अधिकार मिलने चाहिए। मैं ही नहीं, देश के बहुत सारे युवा सोचते होंगे, महिलाओं को ही नहीं, बल्कि देश के हर नागरिक को बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए।
मगर, सवाल तो यह है कि क्या दोहरी सोच समाज में इस तरह का हो पाना संभव है। वीआईपी संस्कृति से लेकर महिलाओं को विशेष अधिकार देने तक की प्रथा ही बराबरी के राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। पिछले दिनों मुझे किसी काम से इंदौर जाना था। मैंने अहमदबाद के बस स्टैंड तक जाने के लिए बीआरटीएस को चुना। बीआरटीएस के स्टैंड पर मैं बस का इंतजार कर रहा था। मेरी मंजिल तक जाने वाली बस आई, जो खाली थी, मगर जैसे ही उसके भीतर बैठने के लिए कदम आगे बढ़ाए तो अंदर से महिला चीखी, ये महिला बस है। ऐसा एक नहीं तीन बार हुआ, थोड़े थोड़े अंतराल पर।
इतना ही नहीं, एक लड़की अपने पुरुष दोस्त के साथ खड़ी थी। जब वे भी बस में चढ़ने लगी तो उसको भी चढ़ने को नहीं मिला, क्योंकि उसका साथी पुरुष था। मैंने पुरुष विशेष बस नहीं देखी। महिला विशेष बस देखी। उन 20 मिनटों के दौरान 4 महिला बसें देखी, जो भीतर से खाली थी। इतना ही नहीं, सामान्य बस में भी महिलाओं के लिए कुछ सीटें रिजर्व कर दी जाती हैं। उन सीटों पर पुरुष जाकर बैठ जाए तो महिलाएं ऐसे देखती हैं, जैसे पुरुष ने कोई गुनाह कर दिया। जबकि बस की महिला अरक्षित सीटें भरी हों, वे ही महिलाएं पुरुषों की सीटों पर कब्जा जमाकर बैठ जाती हैं।
रेलवे में भी महिलाओं के लिए विशेष कोटा। कहीं किसी कतार में लगें तो भी महिलाओं के लिए विशेष कोटा। बराबरी का रोना तो झूठा है, सच तो यह है कि हर कोई यहां अधिक की उम्मीद लिए घूमता है। हर कोई अपने लिए विशेष सुविधाएं चाहता है।
दिल्ली सरकार सम विषम ट्रैफिक नियम लागू करती है तो महिलाओं को विशेष छूट दे दी जाती है। ट्रैफिक नियमों में भी महिलाओं को पुरुषों से अधिक छूट मिल जाती है, भावनात्मक रूप से या कानूनी रूप से। देश की अदालतों में करोड़ों ऐसे केस हैं, जहां केवल महिला होना फायदेमंद हुआ।
बराबरी का अधिकार कानूनों से नहीं, बल्कि सोच में बड़े बदलाव से आएगा। जब तक सोच में बदलाव नहीं आएंगे, तब तक बराबरी का ख्वाब बेईमानी है। सोच में बदलाव केवल महिलाएं करें ऐसा नहीं पुरुषों को भी करना होगा।
मुझे याद है कि एक दिन इसी तरह के मामले पर एक परिचित महिला से संवाद हो रहा था। उसने बोला, मैं बस सफर में खड़ी रहती हूं, महिला हुई तो क्या ? मैं नहीं चाहती कोई जगह ये सोच कर दे कि मैं महिला हूं ? मैं जानती हूं कि महिलाएं पुरुषों से अधिक मजबूत होती हैं, विशेषकर सहनशीलता के मामले में।
मगर, वहां एक दूसरी दिक्कत खड़ी हुई, वे सोच की। यदि महिला पुरुषों की भीड़ में अकेली खड़ी हो जाए तो पुरुषों के दिमाग में पहले विचार चलने लगते हैं कि इसको पुरुषों में रहकर अधिक मजा आता है। इस तरह के ख्याली पुलाव बनाने वाले पुरुष महिलाओं को विशेष अधिकार की तरफ दौड़ा देते हैं।
इसलिए यदि बराबरी के अधिकार लागू करने हैं तो सोच में परिवर्तन भी जरूरी होगा। महिलाएं भी विशेषाधिकारों को छोड़कर सही तरीके से बराबरी का मार्ग चुनें। यकीनन मुश्किल है क्योंकि महिलाओं और पुरुषों की लाइन एक हो जाएगी। महिला के लिए स्पेशल बस, स्पेशल लाइन, स्पेशल रूल नहीं होंगे।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
हार्दिक निवेदन। अगर आपको लगता है कि इस पोस्ट को किसी और के साथ सांझा किया जा सकता है, तो आप यह कदम अवश्य उठाएं। मैं आपका सदैव ऋणि रहूंगा। बहुत बहुत आभार।