राजनीति में ''एफडीआई''

भारतीय राजनीति किस तरह गंदगी हो चुकी है। इसका तारोताजा उदाहरण कल उस समय देखने को मिला, जब एफडीआई का विरोध कर रही बसपा एवं सपा, ने अचानक वोटिंग के वक्‍त बॉयकॉट कर दिया, और सरकार को एफडीआई पारित करने का मौका दे दिया, जिसे सत्‍ता अपनी जीत और विपक्ष अपनी नैतिक जीत मानता है, हैरानी की बात है कि यह पहला फिक्‍सिंग मैच है, जहां कोई खुद को पराजित नहीं मान रहा।

राजनीतिज्ञों का मानना है कि एफडीआई के आने से गुणवत्‍ता वाले उत्‍पाद मिलने की ज्‍यादा संभावना है। अगर विदेशी कंपनियों की कार्यप्रणाली पर हमें इतना भरोसा है तो क्‍यूं न हम राजनीति में भी एफडीआई व्‍यवस्‍था लाएं। वैसे भी सोनिया गांधी देश में इसका आगाज तो कर चुकी हैं, भले ही वो शादी कर इस देश में प्रवेश कर पाई। मगर हैं तो विदेशी।

अगर राजनीति में एफडीआई की व्‍यवस्‍था हो जाए, तो शायद हमारे देश के पास मनमोहन सिंह से भी बढ़िया प्रधान मंत्री आ जाए, राजनीति दलों को चलाने वाला उत्‍तम उत्‍पाद मतलब कोई पुरुष या महिला आ जाए। अगर राजनीति में एफडीआई का बंदोबस्‍त हो जाता है तो ऐसे में पूर्ण संभावना है कि पाकिस्‍तान के आसिफ जरदारी भी भारत में अपना विस्‍तार करना चाहेंगे, क्‍यूंकि उनके पास ''दस प्रतिशत कमिशन'' का बेहतरीन टैग है।

बसपा एवं सपा कह रही है कि उन्‍होंने बॉयकॉट कर के बहुत बड़ा कदम उठाया है जनता हित में, लेकिन उनकी गैर हाजिरी ने सत्‍ता पक्ष को मजबूत किया, जो मैच फिक्‍सिंग की निशानी है। अगर विरोध करना था तो वोटिंग के जरिए  क्‍यूं नहीं किया। सुनने में तो यह भी आया है कि कांग्रेस ने महाराष्‍ट्र में बाबा साहेब अम्‍बेडकर की स्‍मारक को हरी झंडी इसलिए दिखाई, क्‍यूंकि बसपा ने अंदर खाते कांग्रेस का समर्थन किया।

अगर यूं मैच फिक्‍सिंग कर लोक सभा में बिल पारित करने हैं, तो टीवी पर लाइव प्रसारण कर देश की जनता को उल्‍लू बनाना बंद किया जाए। आज से कुछ साल बाद कोई नेता किताब लिखेगा, उसमें इस मैच फिक्‍सिंग का खुलासा होगा, तब तक जनता इस मैच फिक्‍सिंग के केवल कयास लगाती रहेगी।

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