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मई, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सोनाक्षी की दूसरी फिल्‍म और जन्‍मदिवस

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सोनाक्षी सिन्‍हा, एक ऐसा नाम है। एक ऐसा चेहरा है। जो आज किसी पहचान का मोहताज नहीं। दबंग से पहले भले ही मायानगरी में होने वाली पार्टी में लोग उसको शॉटगन की बेटी के रूप में पहचानते हो, मिलते हो। मगर आज उसकी अपनी एक पहचान बन चुकी है। पहली ही फिल्‍म सुपर डुपर हिट और नवोदित अभिनेत्री पुरस्‍कार भी झोली में आन गिरा। ऐसा नहीं कि ऐसा केवल सोनाक्षी के साथ ही हुआ, पहले भी बहुत सी अभिनेत्रियों के साथ हुआ। मगर सोनाक्षी की आंखों में जो कशिश है, चेहरे पर जो नूर है, वो उसको बिल्‍कुल अलग करता है। जहां दो जून को सोनाक्षी पच्‍चीस साल की हो जाएगीं, वहीं उनकी दूसरी फिल्‍म राउड़ी राठौड़ उनके जन्‍मदिवस से ठीक एक दिन पहले रिलीज हो रही है। इस फिल्‍म में उनके ऑपोजिट अक्षय कुमार हैं, जिसके सितारे बॉक्‍स ऑफिस पर ठीक बिजनस नहीं कर रहे। मगर दिलचस्‍प बात तो यह भी है कि इस फिल्‍म को प्रभु देवा निर्देशित कर रहे हैं, जिन्‍होंने वांटेड से सलमान खान की फ्लॉप सिरीज पर विराम लगाया था। इस फिल्‍म के प्रोमो और गीत बताते हैं कि फिल्‍म पूरी तरह दक्षिण से प्रभावित है, आज कल छोटे पर्दे पर दक्षिण फिल्‍मों के हिन्‍दी रूपांतरणो

मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता।

माता पिता के ख्‍वाबों का जिम्‍मा है मेरे महबूब के गुलाबों का जिम्‍मा है मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता। जॉब से छुट्टी नहीं मिलती विद पे ऐसे उलझे भैया क्‍या नाइट क्‍या डे मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता। भगत सिंह की है जरूरत बेहोशी को मगर यह सपूत देना मेरे पड़ोसी को मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता। क्रांति आएगी, लिखता हूं यह सोचकर वो भी भूल जाते हैं एक दफा पढ़कर मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता। अन्‍ना हो रामदेव हो लताड़े जाएंगे मैडलों के लिए बेगुनाह मारे जाएंगे मजबूर हूं, वरना मैं देश बदल देता।

हैप्‍पी अभिनंदन में सोनल रस्‍तोगी

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जुलाई 2009 की कड़कती दोपहर में ''कुछ कहानियां कुछ नज्‍में'' नामक ब्‍लॉग बनाकर गुड़गांव की सोनल रास्‍तोगी ने छोटी सी कविता 'नम आसमान' से ब्‍लॉग जगत में कदम रखा। तब शायद सोनल ने सोचा भी न होगा कि ब्‍लॉग दुनिया में उसकी रचनाओं को इतना प्‍यार मिलेगा। आज हजारों कमेंट्स, सैंकड़े अनुसरणकर्ता, सोनल की रचनाओं को मिल रहे स्‍नेह की गवाही भर रहे हैं। सोनल की हर कविता दिल को छूकर गुजर जाती है, चाहे वो सवाल पूछ रही हो, चाहे प्‍यार मुहब्‍बत के रंग में भीग रही हो, चाहे मर्द जात की सोच पर कटाक्ष कर रही हो। सोनल की कलम से निकली लघु कथाएं और कहानियां भी पाठकों को खूब भाती हैं। आज हैप्‍पी अभिनंदन में हमारे साथ उपस्‍िथत हुई हैं ''कुछ कहानियां कुछ नज्‍में'' की सोनल रस्‍तोगी, जो मेरे सवालों के जवाब देते हुए आप से होंगी रूबरू। तो आओ मिले ब्‍लॉग दुनिया की इस बेहतरीन व संजीदा ब्‍लॉगर शख्‍सियत से। कुलवंत हैप्‍पी- मैंने आपका ब्‍लॉग प्रोफाइल देखा। वहां मुझे कुछ नहीं मिला, तो फेसबुक पर पहुंच गया। वहां आपने कुछ लिखा है। मैं कौन हूँ ? इसका जवाब जब मिल जाएगा तब अगला सवाल

मेंढ़क से मच्‍छलियों तक वाया कुछेक बुद्धजीवि

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अमेरिका और भारत के बीच एक डील होती है। अमेरिका को कुछ भारतीय मेंढ़क चाहिए। भारत देने के लिए तैयार है, क्‍यूंकि यहां हर बरसाती मौसम में बहुत सारे मेंढ़क पैदा हो जाते हैं। भारत एक टब को पानी से भरता है, और उसमें उतने ही मेंढ़क डालता है, जितने अमेरिका ने ऑर्डर किए होते हैं। भारतीय अधिकारी टब को उपर से कवर नहीं करते। जब वो टब अमेरिका पहुंचता है तो अमेरिका के अधिकारियों को फोन आता है, आपके द्वारा भेजा गया टब अनकवरेड था, ऐसे में अगर कुछ मेंढ़क कम पाएगे तो जिम्‍मेदारी आपकी होगी। इधर, भारतीय अधिकारी पूरे विश्‍वास के साथ कहता है, आप निश्‍िचंत होकर गिने, पूरे मिलेंगे, क्‍यूंकि यह भारतीय मेंढ़क हैं। एक दूसरे की टांग खींचने में बेहद माहिर हैं, ऐसे में किस की हिम्‍मत कि वो टब से बाहर निकले। आप बेफ्रिक रहें, यह पूरे होंगे। एक भी कम हुआ तो हम देनदार। जनाब यहां के मेंढ़क ही नहीं, कुछ बुद्धिजीवी प्राणी भी ऐसे हैं, जो किसी को आगे बढ़ते देखते ही उनकी टांग खींचना शुरू कर देते हैं। आज सुबह एक लेख पढ़ा, जो सत्‍यमेव जयते को ध्‍यान में रखकर लिखा गया। फेसबुक पर भी आमिर खान के एंटी मिशन चल रहा है। कभी उसकी

आमसूत्र कहता है; मिलन उतना ही मीठा होता है

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आमसूत्र कहता है कि लालच को जितना पकने दो, मिलन उतना ही मीठा होता है। सबर करो सबर करो, और बरसने दो अम्‍बर को। गहरे पर सुनहरे रंग तैरने दो, बहक यह महकने दो, क्‍यूंकि सबर का फल मीठा होता है, मीठे रसीले आमों से बना मैंगो स्‍लाइस, आपसे मिलने को बेसबर है। आम का मौसम है। बात आम की न होगी तो किसकी होगी। मगर अफसोस के आम की बात नहीं होती। संसद में भी बात होती है तो खास की। आम आदमी की बात कौन करता है। अब जब उंगलियां 22 साल पुरानी इमानदारी पर उठ रही हैं तो लाजमी है कि खास जज्‍बाती तो होगा ही, क्‍यूंकि आखिर वह भी तो आदमी है, भले ही आम नहीं। जी हां, पी चिदंबरम। जो कह रहे हैं शक मत करो, खंजर खोप दो। वो कहते हैं बार बार मत बहस करो। कसाब को गोली मार दो। आखिर इतने चिढ़चिढ़े कैसे हो गए चिदंबरम। चिदंबरम ऐसे बर्ताव कर रहे हैं, जैसे निरंतर काम पर जाने के बाद आम आदमी करने लगता है। वो ही घसीटी पिट राहें। वो ही गलियां। वो ही चेहरे। वो ही रूम। वो ही कानों में गूंजती आवाजें। लगता है चिदंबरम को हॉलीडे पैकेज देने का वक्‍त आ गया। शायद मेरा सुझाव वैसा ही जैसा, दिलीप कुमार को देवदास रिलीज होने के बाद कुछ डॉक्‍टरों

लेकिन मेरी भैंस तो गई पानी में

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पत्रकार क्‍लीन दास सुबह सुबह अपना साइकिल लेकर ऑफिस की तरफ कूच करते हैं। जैसे ही वो ऑफिस के पास पहुंचते हैं, तो उनकी आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। दफ्तर के सामने लगी चाय की लारी वाला गन्‍ने का जूस बनाने की तैयारी कर रहा है। पत्रकार क्‍लीन दास टेंशन में। आखिर चाय वाले को ऐसी क्‍या सूझी कि उसने चाय की जगह, गन्‍ने का जूस बनाने की ठान ली। क्‍लीन दास घोर चिंता में, अब मेरा क्‍या होगा, मेरा तो चाय के बिना चलता ही नहीं। इतने में क्‍लीन दास के अंदर का जिज्ञासु पत्रकार जागा, और चाय वाले से जाकर पूछने लगा, जो अब जूस वाला बनने की तैयारी कर रहा है, तुम को क्‍या हो गया, एक दम से गन्‍ने का जूस बनाने लग गए। चाय वाला बोला, सर आज का न्‍यूज पेपर नहीं पढ़ा आपने। पत्रकार चौंका, आखिर ऐसा क्‍या छपा है अख़बार में, जो चाय वाला जूस वाला बनने की ठान बैठा। अंदर का डर भी जागा। कहीं कोई बड़ी ख़बर तो नहीं छूट गई। लगता है आज संपादक से डांट पड़ेगी। पत्रकार क्‍लीन दास डर को थोड़ा सा पीछे धकेलते हुए बोलता है, आखिर अख़बार में ऐसा क्‍या छपा है, जो तुम चाय का कारोबार छोड़कर गन्‍ने का जूस बनाने लग गए। क्‍या बात करते

सिर्फ नाम बदला है

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वो बारह साल की है। पढ़ने में अव्‍वल। पिता बेहद गरीब। मगर पिता को उम्‍मीद है कि उसकी बेटी पढ़ लिखकर कुछ बनेगी। अचानक एक दिन बारह साल की मासूम के पेट में दर्द उठता है। वो अपने मां बाप से सच नहीं बोल पाती, अंदर ही अंदर घुटन महसूस करने लगती है। आखिर अपने पेट की बात, अपनी सहेली को बताती है, और वो मासूम सहेली घर जाकर अपने माता पिता को। अगली सवेर उसके माता पिता कुछ अन्‍य पड़ोसियों को लेकर स्‍कूल पहुंचते हैं और स्‍कूल में मीटिंग बुलाई जाती है। बिना कुछ सोच समझे एक तरफा फैसला सुनाते बारह साल की मानसी को स्‍कूल से बाहर कर दिया जाता है। टूट चुका पिता अपनी बच्‍ची को लेकर डॉक्‍टर के यहां पहुंचता है, तो पता चलता है कि बच्‍ची मां नहीं बनने वाली, उसके पेट में नॉर्मल दर्द है। मगर डॉक्‍टर एक और बात कहता है, जो चौंका देती है, कि मानसी का कौमार्य भंग हो चुका है। गरीब पिता अपनी बच्‍ची को किसी दूसरे स्‍कूल में दाखिल करवाने के लिए लेकर जाता है, तो रास्‍ते में पता चलता है कि उसकी बेटी को पेट का दर्द देने वाला कोई और नहीं, उसी की जान पहचान का एक कार चालक है, जो खुद दो बच्‍चों का बाप है। अगली सुबह मानसी

जब नेता फंसे 'बड़े आराम से'

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बड़े आराम से। यह संवाद तो आप ने जरूर सुना होगा, अगर आप टीवी के दीवाने हैं। अगर, नहीं सुना तो मैं बता देता हूं, यह संवाद छोटे नवाब सैफ अली खान बोलते हैं, अमूल माचो के विज्ञापन में। अमूल माचो पहनकर सैफ मियां, एक हत्‍या की गुत्‍थी को ''बड़े आराम से'' सुलझा लेते हैं, क्‍यूंकि ''अमूल माचो'' इतनी पॉवरफुल बनियान है कि मरा हुआ आदमी खुद उठकर बोलता है कि उसका खून किसने किया। इस विज्ञापन को देखने के बाद सरकार को शक हुआ कि जो घोटाले बड़े आराम से सामने आए हैं, उसमें अमूल माचो का बड़ा हाथ है। घोटालों के सामने आते ही सरकार ने गुप्‍त बैठक का आयोजन कर नेताओं को सतर्क करते हुए कहा कि वह ''अपना लक पहनकर चलें'' मतलब लक्‍स कॉजी पहनें, वरना पकड़े जाने पर सरकार व पार्टी जिम्‍मेदार नहीं होगी। गुप्‍त बैठक से निकलकर नेता जैसे ही कार में बैठकर लक्‍स कॉजी लेने के लिए निकले तो रास्‍ते में ट्रैफिक पुलिस वाले ने नेता की गाड़ी को रोक लिया। नेता गुस्‍से में आ गए, आते भी क्‍यूं न जनाब। आखिर परिवहन मंत्री हैं, और उनके वाहन को बीच रास्‍ते रोक दिया जाए, बुरा तो लगेगा ही।

वॉट्स विक्‍की डॉनर रिटर्न

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मोबाइल के इनबॉक्‍स में नॉन वेज चुटकले। सिनेमा हॉल पर दो अर्थे शब्‍द हमको हंसाने लगे हैं। कॉलेज में पढ़ने वाले युवक युवतियों को विक्‍की डॉनर पसंद आ रहा है। उनको द डर्टी पिक्‍चर की स्‍लिक भी अच्‍छी लगती है। उनको दिल्‍ली बेली की गालियों में भी मजा आता है। वैसा ही मजा, जैसा धड़ा सट्टा लगाने वालों को बाबे की गालियों से, जिससे वह नम्‍बर बनाते हैं, और पैसा दांव पर लगाते हैं। सिनेमा अपने सौ साल पूरे कर रहा है। पॉर्न स्‍टार अब अभिनेत्री बनकर सामने आ रही है। अब अभिनेत्री को अंगप्रदर्शन से प्रहेज नहीं, क्‍यूंकि अभिनय तो बचा ही नहीं। दर्शकों को सीट पर बांधे रखने के लिए दो अर्थे शब्‍द ढूंढने पड़ रहे हैं। भले ही हम एसीडिटी से ग्रस्‍त हैं, मगर मसालेदार सब्‍जी के बिना खाना अधूरा लगता है। बाप बेटा दो अर्थे संवादों पर एक ही हाल में एक साथ बैठकर ठहाके लग रहे हैं। बाप बेटी ''जिस्‍म टू'' मिलकर नई पीढ़ी के लिए सेक्‍स मसाला परोस रहे हैं। ठरकी शब्‍द गीतों में बजने लगा है और हम इसकी धुन पर झूमने लगे हैं। बस हमारी प्रॉब्‍लम यह है कि हमको खुलकर कुछ भी नहीं करना। हमको ऊपर से विद्रोह करना है

वॉट्स विक्‍की डॉनर

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विक्‍की डॉनर  को लेकर तरह तरह की प्रक्रिया आई और आ भी रही हैं। फिल्‍म बॉक्‍स आफिस पर धमाल मचा रही है। फिल्‍म कमाल की है। फिल्‍म देखने लायक है। मैं फिल्‍म को लेकर उत्‍सुक था, लेकिन तब तक जब तक मुझे इसकी स्‍टोरी पता नहीं थी। मुझे पहले पोस्‍टर से लगा कि विक्‍की डॉनर, किसी दान पुण्‍य आधारित है। शायद एक रिस्‍की मामला लगा। जैसे सलमान की चिल्‍लर पार्टी। मगर धीरे धीरे रहस्‍य से पर्दा उठने लगा। हर तरफ आवाज आने लगी, विक्‍की डॉनर, सुपर्ब। बकमाल की मूवी। मैं पिछले दिनों सूरत गया। वहां मैंने पहली दफा इसका ट्रेलर देखा। ट्रेलर के अंदर गाली गालोच के अलावा कुछ नजर नहीं आया। दान पुण्‍य तो दूर की बात लगी। इस ट्रेलर के अंदर डॉ.चढ्ढा एक संवाद बोलता है, ''जनानियों के जब बच्‍चे नहीं होते थे, तो ऋषि मुनियों को बुला लिया जाता था, बाबा कहता था तथास्‍तु।'' एवं इशारे में बहुत कुछ कहता है डॉक्‍टर चढ्ढा। इसको देखने बाद सोचा। मीडिया में किसी बात की सराहना हो रही है। गलियों की। गलत दिशा देने के प्रयास की। दोस्‍ताना आई, जिसमें घर किराने पर लेने के लिए हम युवकों को 'गे' होने की ओर धकेलते हैं।

मुलाकात :- रिचर्ड ब्रॉनसन; जब खरगोश खा गए पेड़

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 कल रात करीबन दो घंटों तक रिचर्ड ब्रानसन से बातचीत की। बेहद रोचक व्‍यक्‍ित हैं रिचर्ड ब्रानसन। दुनिया उनको एक बिजनसमैन के रूप में जानती है या फिर यूके के सबसे अमीर चौथे व्‍यक्‍ित के रूप में। वर्जिन ग्रुप के मालिक हैं रिचर्ड ब्रानसन। कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे कहां राजा भोज कहां गंगू तेली। मतलब कहां रिचर्ड ब्रानसन और कहां मैं। यह बात भी सच है, उसको हिन्‍दी नहीं आती और मुझे फराटेदार इंग्‍लिश। फिर भी हैरत की बात यह है कि मैंने उनको दो घंटों तक पूर्ण रूप से सुना और उनको समझा। वो मेरे सामने थे, उनकी आवाज मेरे कानों के पर्दो से गुजरती हुई मेरे मन और दिमाग पर अपना असर छोड़ रही थी। मैं सोच रहा था, इतना बड़ा बिजनसमैन। और हरकतें ऐसी करता है जैसे वो अभी अभी युवा हुआ हो। मैं फिर कहता हूं बेहद रोचक व्‍यक्‍ित। दिलचस्‍प व्‍यक्‍ितत्‍व का मालिक है रिचर्ड ब्रानसन। डिसलेक्‍िसया की बीमारी से ग्रस्‍त व पढ़ाई में बिल्‍कुल निकम्‍मा, लेकिन असल जिन्‍दगी में दुनिया के नम्‍बर वन बिजनसमैनों की श्रेणी में शुमार है, रिचर्ड ब्रॉनसन। रिचर्ड ब्रानसन कहते हैं कि अख़बार वाले उससे और उसके वर्जिन कंपनी के साथियों क

"सत्यमेव जयते" को लेकर फेसबुक पर प्रतिक्रियाओं का दौर

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‎ Ajit Anjum स्टार प्लस पर सत्यमेव जयते देख रहा हूं ....जिंदगी लाइव की ऋचा अनिरुद्ध की याद आ रही है ....कंसेप्ट के लेवल पर बहुत कुछ मिलता जुलता ...एंकर , गेस्ट से लेकर दर्शकों को रोते देख रहा हूं ...इमोशनल और शॉकिंग मोमेंट ....कोख में बेटियों के कत्ल की दास्तां .... आमिर चाहते तो वो भी दस का दम वाला पॉपुलर फार्मेट चुन सकते थे ...चाहते तो गेम शो कर सकते थे ...लेकिन आमिर ने ऐसा शो करने का फैसला किया है ..इसलिए वो बधाई के पात्र हैं ...अब ये शो हिट हो या न हो ( तथाकथित रेटिंग के पैमाने पर ) मैं अपनी राय नहीं बदलूंगा ......सत्यमेव जयते बहुतों को अच्छा लगा होगा ...बहुतों तो चलताऊ ...बहुतों को ऐवैं ....कुछ साथियों ने मेरे स्टेटस के जवाब में ये भी लिखा है कि इसे रेटिंग नहीं मिलेगी ...... न मिले ..लेकिन क्या उसके आधार पर आप मान लेंगे कि ऐसे शो की जरुरत नहीं ...तो फिर क्या सिर्फ लोग दस का दम या नच बलिए या नाच गाने वाला ही शो देखना चाहते हैं ...अगर यही सच है कि तो फिर क्यों कहते हैं कि कोई चैनल गंभीर मुद्दों को उठाने वाला शो नहीं बनाता ....मैं तो स्टार इंडिया के सीईओ उदय शंकर को भी इसके लि

ये भी कोई जिंदगी है

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आज ब्‍लॉगस्‍पॉट का अगला ब्‍लॉग बटन दबाया तो हरमिंदर के  वृद्धग्राम    पहुंच गया। जहां हरमिंदर व काकी दोनों बतियाते हुए वृद्धों व बुढ़ापे के बारे में कई मार्मिक पहलूओं से अवगत करवा रहे थे। गांव की छानबीन करने से पता चला कि अतिथि तो यहां निरंतर पहुंच रहे हैं, मगर पिछले कई महीनों से हरमिंदर सिंह यहां नहीं आए, जबकि इस गांव के चर्चे अख़बारों व वेबसाइटों पर हो चुके हैं। आपके समक्ष वृद्धग्राम से लिया एक लेख रखते हुए अलविदा लेता हूं। कुलवंत हैप्‍पी, युवा सोच युवा खयालात। हरमिंदर की कलम से  जमीन पर सोने वालों की भी भला कोई जिंदगी होती है। हजारों दुख होते हैं उन्हें, मगर बयां किस से करें? हजारों तकलीफों से जूझते हैं और जिंदगी की पटरी पर उनकी गाड़ी कभी सरपट नहीं दौड़ती, हिचकौले खाती है, कभी टकराती है, कभी गिर जाती है। एक दिन ऐसा आता है जब जिंदगी हार जाती है। ऐसे लोगों में बच्चे, जवान और बूढ़े सभी होते हैं जिन्हें पता नहीं कि वे किस लिये जी रहे हैं। बस जीते हैं। कई बूढ़े अपने सफेद बालों को यह सोचकर शायद न कभी बहाते हों कि अब जिंदगी में क्या रखा है, दिन तो पूरे हो ही गये। उन्हें जिंदगी का

नटराजन का ख्‍वाब; पिंजरे की बुलबुल

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एक के बाद एक घोटाला उछलकर बाहर आ रहा है। कांग्रेस की छवि दिन ब दिन महात्‍मा गांधी की तरह धूमिल होती जा रही है। कांग्रेस के नेता पूरी तरह बुखला चुके हैं, वो अपने निकम्‍मे नेताओं को सुधारने की बजाय पूरी शक्‍ति मीडिया को ''पिंजरे की बुलबुल'' बनाने पर खर्च कर रहे हैं, जो लोकतंत्र के बिल्‍कुल उल्‍ट है। शायद कांग्रेस के नेता पानी के बहा को नहीं जानते, वो सोचते हैं कि पानी के बहा को बड़े बड़े बांध बनाकर रोका जा सकता है, लेकिन वो नहीं जानते कि पानी अपना रास्‍ता खुद बनाता है, पानी जीवन है तो विनाश भी है। अगर आप मीडिया के मुंह पर ताला जड़ेंगे तो लोग अपनी बात कहने के लिए दूसरे साधनों को चुनेंगे। अंग्रेजों के वक्‍त इतना बड़ा और इतना तेज तर्रार मीडिया भी तो नहीं था, मगर फिर भी जनमत तैयार करने में मीडिया ने अहम योगदान अदा किया था। कांग्रेसी नेता की पोल किसी अधिकारिक मीडिया ने तो नहीं खोली, जिस पर मीनाक्षी नटराजन बिल लाकर नकेल कसना चाहती हैं। शायद मीनाक्षी नटराजन राहुल बाबा की दोस्‍ती में इतना व्‍यस्‍त रहती हैं कि उनको वो लाइन भी याद नहीं होगी, जो लोग आम बोलते हैं, '