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अप्रैल, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

'सचिन' की जगह 'आमिर' होता तो अच्‍छा लगता

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मैं सचिन की जगह आमिर का नाम किसी फिल्‍म के लिए नहीं बल्‍कि राज्‍य सभा सांसद के लिए सुझा रहा हूं। दोनों ही भारत की महान हस्‍तियों में शुमार हैं। दोनों ही अपने क्षेत्र में दिग्‍गज हैं। दोनों का कद काठ भी एक सरीखा है। मगर सोच में अंतर है, जहां आमिर खान सामाजिक मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखता है, वहीं सचिन तेंदुलकर क्रिकेट के मामलों में भी ज्‍यादा स्‍पष्‍ट राय नहीं दे पाते। सचिन को क्रिकेट के मैदान पर शांत स्‍वभाव से खेलना पसंद है, मगर आमिर खान को चुनौतियों से आमना सामना करना पसंद है, भले ही उसकी फिल्‍म को किसी स्‍टेट में बैन ही क्‍यूं न झेलना पड़े। न मैं आमिर का प्रसंशक नहीं हूं, और न सचिन का आलोचक। मगर कल जब अचानक राज्‍य सभा सांसद के लिए सचिन का नाम सामने आया तो हैरानी हुई, यह हैरानी मुझे ही नहीं, बल्‍कि बहुत से लोगों को हुई, केवल सचिन के दीवानों को छोड़कर। हैरानी तो इस बात से है कि उस सचिन ने इस प्रस्‍ताव को स्‍वीकार कैसे कर लिया, जो भारतीय क्रिकेट टीम की कप्‍तानी लेने से इसलिए इंकार करता रहा कि उसके खेल पर बुरा प्रभाव पड़ता है। सचिन का नाम सामने आते ही हेमा मालिनी का बयान आया, जो

गब्बर ने बदल दी हमारी सोच

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क्यों पसंद है निगेटिव चरित्र ? (लेखक अनिरुद्ध जोशी ''शतायु''  सकारात्मक सोच का आईना    ब्‍लॉग पर कभी कभार लिखते हैं, और  आप उनको नियमित वेबदुनिया डॉट कॉम  पर पढ़ सकते हैं, क्‍योंकि वह इस संस्‍थान में कार्यरत  हैं  ) प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक 'जज' होता है। जिस व्यक्ति के भीतर जज जितनी ताकत से है वह उतनी ताकत से अच्छे और बुरे के बीच विश्लेषण करेगा। निश्चित ही ऐसा व्यक्ति स्वयं में सुधार कर भी लेता है जो खुद के भीतर के जज को सम्मान देता है। अच्छाइयाँ इस तरह के लोग ही स्थापित करते हैं। लेकिन अफसोस की भारतीय फिल्मकारों के भीतर का जज मर चुका है। और उन्होंने भारतीय समाज के मन में बैठे जज को भी लगभग अधमरा कर दिया है। ऐसा क्यों हुआ? और, ऐसा क्यों है कि अब हम जज की अपेक्षा उन निगेटिव चरित्रों को पसंद करते हैं जिन्हें हम तो क्या 11 मुल्कों की पुलिस ढूँढ रही है या जिन पर सरकार ने पूरे 50 हजार का इनाम रखा है और जो अपने ही हमदर्द या सहयोगियों को जोर से चिल्लाकर बोलता है- सुअर के बच्चों! दरअसल हर आदमी के भीतर बैठा दिया गया है एक गब्बर और एक डॉन। एक गॉडफादर और एक

बोफोर्स घोटाला, अमिताभ का बयान और मेरी प्रतिक्रिया

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बोफोर्स घोटाला, कब सामने आया, यकीनन जब मैं तीसरा बसंत देख रहा था, यानि 1987, इस घोटाले का पर्दाफाश अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र द हिंदु की संवाददाता चित्रा सुब्रह्मण्‍यम ने किया, मगर सीबीआई ने इस मामले में चार्जशीट उस समय दाखिल की, जब मैं पांच साल पूरे कर छठे की तरफ बढ़ रहा था। इसके बाद सरकारें बदली, स्‍थितियां परिस्‍थितियां बदली, मैं भी समय के साथ साथ बड़ा होता चला गया। लेकिन मुझे इस घोटाले की जानकारी उस समय मिली जब इस घोटाले के कथित दलाल ओत्तावियो क्‍वोत्रिकी की हिरासत के लिए सीबीआई जद्दोजहद कर रही थी, और मैं एक न्‍यूज वेबसाइट के लिए कीबोर्ड पर उंगलियां चला रहा था, तकरीबन तब मैं पच्‍चीस साल का हो चुका था, और यह घोटाला करीबन 22 साल का। आप सोच रहे होंगे कि घोटाले और मेरी उम्र में क्‍या तालुक है, तालुक है पाठक साहिब, क्‍यूंकि जब यह घोटाला हुआ तो राजीव गांधी का नाम उछलकर सामने आया, चूंकि वह उस समय प्रधानमंत्री बने थे, और राजीव गांधी प्रधानमंत्री कब बने, जब इंदिरा गांधी का मौत हुई, और जब इंदिरा की मौत हुई, तब मैं पांच दिन का था, एक वो ही ऐसी घटना है, जिसने मेरे जन्‍मदिन की पुष्‍टि

महिलाओं को चाहिए तराशे हुए वक्ष, मर्दों को चुस्‍त की चाहत

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हैरानी हो रही है कि ''युवा सोच युवा खयालात' ' यह क्‍या लिख रहा है, लेकिन जनाब यह मैं नहीं हिन्‍दी की बेहद लोकप्रिय पत्रिका इंडिया टूडे अपने नए अंक की कवर स्‍टोरी 'उभार का सनक' के साथ उक्‍त पंक्‍ित को लिख रही है, जो अंक उसने मई महीने के लिए प्रकाशित किया है। इसको लेकर बुद्धजीवियों व मीडिया खेमे में बहस छिड़ गई कि एक पत्रिका को क्‍या हो गया, वो ऐसा क्‍यूं कर रही है। मुझे लगता है कि इसका मूल कारण कंटेंट की कमी, और ऊपर से बढ़ता महंगाई का बोझ है। पत्रिका खरीदने से लोग कतराने लगे हैं, ऐसे में भला जॉब खोने का खतरा कोई कैसे मोल ले सकता है, जाहिर सी बात है कि अगर आमदनी नहीं होगी, तो जॉब सुरक्षित नहीं रहेगी, हो सकता है कि इस बार इंडिया टूडे ने अपनी गिरती बिक्री को बचाने के लिए इस तरह की भाषा व पोस्‍टर का प्रयोग किया हो। मगर दूसरी ओर देखें तो शायद इंडिया टूडे कुछ गलत भी नहीं कह रहा, आज सुंदर बनना किसे पसंद नहीं, युवा रहना किसकी चाहत नहीं, खुद को सबसे खूबसूरत व युवा दिखाने की होड़ ने लाइफस्‍टाइल दवा बाजार को संभावनाओं से भर दिया, व्‍यक्‍ित आज बीमारी से छूटकारा पान

विद्या बालन की 'द डर्टी पिक्‍चर'

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रविवार के समाचार पत्र में एक बड़ा सा विज्ञापन था, जिसमें द डर्टी पिक्‍चर का पोस्‍टर और टीवी पर फिल्‍म प्रसारित होने का समय छपा हुआ था, यकीनन लोगों ने समय पर टीवी शुरू किया होगा, मगर हुआ बिल्‍कुल उनकी उम्‍मीद से परे का, क्‍यूंकि टीवी पर उस समय कुछ और चल रहा था, ऐसा ही कुछ हुआ था, पेज थ्री के वक्‍त हमारे साथ। हम पांच लोग टिकट विंडो से टिकट लेकर तेज रफ्तार भागते हुए सिनेमाहाल में पहुंचे, जितनी तेजी से अंदर घुसे थे, उतनी तेजी से बाहर भी निकले, क्‍यूंकि सिनेमा हॉल के बाहर पोस्‍टर पेज थ्री का था, और अंदर फिल्‍म बी ग्रेड की चल रही थी। शायद द डर्टी पिक्‍चर देखने की उम्‍मीद लगाकर रविवार को 12 बजे टीवी ऑन करने वालों के साथ कुछ ऐसा ही हुआ होगा। यकीनन लोग घर से बाहर तो नहीं भागे होंगे, मगर निराशा होकर चैनल तो जरूर बदल दिया होगा। द डर्टी पिक्‍चर, इस लिए अपने निर्धारित समय पर प्रसारित नहीं हुई, क्‍यूंकि कोर्ट ने इसके प्रसारण रोक लगाते हुए इसको रात्रि ग्‍यारह बजे के बाद प्रसारित करने का आदेश दिया है। मगर मसला तो यह उठता है कि अगर 'द डर्टी पिक्‍चर' इतनी ही गंदी है, जितनी कि कोर्ट मान

रुपहले पर्दे का असली द एंग्री यंग मैन

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'ढ़ाई किलो का हाथ, जब उठता है तो आदमी उठता नहीं, उठ जाता है' इस संवाद को सुनते ही एक चेहरा एकदम से उभरकर आंखों के सामने आ जाता है। वो चेहरा असल जिन्‍दगी में बेहद शर्मिला व मासूम है, लेकिन रुपहले पर्दे पर वो हमेशा ही जिद्दी व गुस्‍सैल नजर आया, कभी क्रप्‍ट सिस्‍टम को लेकर तो कभी प्‍यार की दुश्‍मन दुनिया को लेकर। जी हां, मेरी निगाह में रुपहले पर्दे का असली द एंग्री यंग मैन कोई और नहीं बल्‍कि ही मैन धर्मेंद्र का बेटा सन्‍नी दिओल है, जो बहुत जल्‍द एक बार फिर रुपहले पर्दे पर मोहल्‍ला अस्‍सी से अपने दीवाने के रूबरू होने वाला है। प्रचार व मीडिया से दूर रहकर अपने काम को अंजाम देने वाले दिओल खानदान के इस चिराग ने दिओल परिवार का नाम ऊंचा ही किया है, कभी गिराया नहीं, अच्‍छे बुरे वक्‍त से गुजरते हुए सन्‍नी ने फिल्‍म जगत में करीबन तीन दशक पूरे कर लिए हैं। इतने लम्‍बे कैरियर में सन्‍नी को अब तक दो राष्ट्रीय पुरस्कार और फिल्‍मफेयर पुरस्कार मिल चुके हैं। मगर आज भी बॉलीवुड में उनका हमउम्र हीरो उतना कदवार नहीं है, जितना के सन्‍नी दिओल। गत साल 19 अक्‍टूबर को 55 साल पूरे कर चुके सन्‍नी ने

सिंघवी सीडी मामला निजता का नहीं, राष्‍ट्रीयता का

जब ''राष्‍ट्रीय सुरक्षा खतरे में'' को लेकर मीडिया ने कुछ चिट्ठियां लीक की तो कुछ मीडिया ग्रुप बोल रहे थे, देश की सुरक्षा से जुड़े मामलों में मीडिया को ऐसे समाचार प्रकाशित नहीं करने चाहिए। अब जब फिर कांग्रेस के प्रवक्‍ता व राज्‍य सभा सांसद अभिषेक मनु सिंघवी की रिकोर्डिंग का मामला सामने आया तो मीडिया ने अपने मुंह पर ताले मार दिए और कुछ ब्‍लॉगर लिख रहे हैं कि यह निजता का मामला है, इस तरह उछाला नहीं जाना चाहिए, लेकिन किसी ने यह क्‍यूं नहीं कहा कि यह मामला निजता का नहीं, राष्‍ट्रीयता का है, क्‍यूंकि सिंघवी कोई आम आदमी नहीं, बल्‍कि देश का प्रतिनिधित्‍व करने वाले समूह का हिस्‍सा है। हो सकता है कि सिंघवी के दीवाने उनको एक आम आदमी मानते हों, मगर मैं उनको एक बात याद दिलाना चाहूंगा कि सिंघवी जहां राज्‍य सभा सांसद हैं, वहीं दूसरी ओर वह कांग्रेस के प्रवक्‍ता भी हैं, जो देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है, जिनके कंधों पर देश को चलाने का भार है, जो कभी उसने समझा नहीं। एक बात और जो वीडियो में सौदेबाजी हो रही है, वह देश की न्‍याय व्‍यवस्‍था प्रणाली से जुड़ी हुई है, जिससे हम न्‍याय

बेटियों की परवाह करते हैं या चुनने का अधिकार छीनते हैं ?

बेटियों की परवाह करते हैं या चुनने का अधिकार छीनते हैं? यह प्रश्‍न मुझे कई दिनों से तंग परेशान कर रहा है। सोचा आज अपनी बात रखते हुए क्‍यूं न दुनिया से पूछ लिया जाए। कुछ दिन पहले मेरी शॉप पर एक महिला ग्राहक अपने परिवार समेत आई, वो भी मेरी तरह कई दिनों से तंग परेशान थी, एक सवाल को लेकर, मैं हिन्‍दी और मेरी पत्‍नी अच्‍छी गुजराती कैसे बोलती है? आखिर उसने भी मेरी तरह हिम्‍मत करके सवाल पूछ ही लिया, उत्तर तो शायद वह पहले से ही जानती थी लव मैरिज। मगर पूछकर उस ने अपने संदेह को सत्‍य में तब्‍दील कर दिया। फिर वह झट से बोली, मैंने भी अपने बेटे को कह रखा है, जो लड़की पसंद हो मुझे बता देना, मैं शादी करवा दूंगी। चलो अच्‍छी बात है कि दुनिया अब ऐसा सोचने लगी है, लव मैरिज को अहमियत देने लगी है। मगर कुछ देर बाद वो महिला बोली, अगर तुम्‍हारे ध्‍यान में हमारी बिरादरी का लड़का हो तो बताना, मेरी बेटी के लिए। मुझे यह बात खटक गई, मैंने पूछा, बेटा जो भी लाए चलेगा, लेकिन लड़की के लिए आप ही ढूंढेंगे ? क्‍या बात है! उसने कहा, ऐसा नहीं, बच्‍ची की जिन्‍दगी का सवाल है, फिर मैंने पूछा क्‍या जो आपका लड़का लड़क

याहू चैट से फेसबुक तक

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एक समय था, जब इंटरनेट यूजर्स yahoo व Rediff मैसेजर द्वारा किसी chat room में घुसे रहते थे। इस दौर में साइबर कैफे खूब कमाई का धंधा था, लोग इंटरनेट पर चैट व गेम खेलने में व्‍यस्‍त रहने लगे थे। फिर लोगों ने साइबर कैफे को अलविदा कहते हुए कम्‍प्‍यूटर व इंटरनेट को घर के किसी कोने में रख लिया और की बोर्ड कूटना शुरू कर दिया। जैसे जैसे इंटरनेट यूजर्स की संख्‍या बढ़ने लगी, वैसे वैसे इंटरनेट पर कंटेंट की मात्रा में भी भारी इजाफा होने लगा। इंटरनेट यूजर्स की बढ़ती संख्‍या को देखते हुए Google ने orkut को जन्‍म दिया। orkut ने बहुत जल्‍द लोकप्रिय हासिल कर ली, क्‍योंकि बहुत आसान जो था, इसमें यूजर्स को खाता बनाना और उसको चलाना। मगर mozilla आने के बाद जो दुर्गति Internet Explorer हुई, वह दुर्गति facebook आने के बाद orkut की हुई। जो पाइप लाइन गूगल ने orkut द्वारा बिछाई थी, उस पर कब्‍जा facebook ने कर लिया। मुझे याद है, जब मैंने पहली बार कुछ साल पहले इस पर लॉगिन किया था, एक बड़े संवाददाता से बात करने की कोशिश की थी, मगर बुरी तरफ असफल भी रहा, इतना ही नहीं उसने तो मेरा खाता ब्‍लॉक भी कर दिया था। इसके

प्रेम कहानी से सुप्रीम कोर्ट के फैसले तक

एक लड़का व लड़की कहीं पैदल जा रहे थे। तभी लड़के की टांग पत्‍थर से टकराई और रक्‍त बहने लगा, लड़के ने मदद की आस लगाते हुए लड़की की तरफ देखा कि शायद वह अपना दुपट्टा फाड़ेगी और उसकी टांग पर बांधेगी। लड़की ने उसकी आंखों में देखते हुए तुरंत बोला, सोचना भी मत, डिजाइनर सूट है। यह कहानी जो अपने आप में बहुत कुछ कहती है, मेरे एक दोस्‍त ने आज सुबह फेसबुक पर सांझी की। इस कहानी को पढ़ने व केमेंट्स करने के बाद, कुछ और सर्च करने निकल पड़ा, तभी मेरी निगाह एक बड़ी खबर पर पड़ी, जिसका शीर्षक था, आज से शिक्षा हर बच्चे का मूल अधिकार। सच में कितना प्‍यारा शीर्षक है, वैसा ही जैसे उस लड़के का अपनी प्रेमिका से मदद की उम्‍मीद लगाना, जो उसके साथ हुआ वह तो हम कहानी में पढ़ चुके हैं, जो अब सुप्रीम अदालत के फैसले का साथ हमारे शैक्षणिक संस्‍थान चलाने वाले करेंगे वह भी कुछ ऐसा ही होगा। सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहतरीन फैसला सुनाया है, मगर इस फैसले का कितना पालन पोषण किया जाएगा, इसका कोई अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।  लेकिन एक उम्‍मीद जरूर है, आज प्रिंट मीडिया के कुछ जागरूक लोग इस पर परिचर्चा जरूर करेंगे एवं अगल

निर्मल बाबा, मीडिया और पब्‍लिक, आखिर दोषी कौन?

फेसबुक पर कुमार आलोक   लिखते हैं, मेदनीनगर झारखंड में ईंट भट्ठा का रोजगार किया ...नही चला ..गढ़वा में कपडे़ की दूकान खोली ..वो भी फ्लाप ..बहरागोडा इलाके में माइंस का ठेका लिया औंधे मुंह गिरे ...पब्लिक को मूर्ख बनाने का आइडिया ढूंढा .. तो सुपरहिट ..ये है निर्मल बाबा का संघर्ष गाथा। मगर सवाल यह उठता है कि पूरे मामले में आखिर दोषी कौन है वो निर्मल बाबा, जो लोगों को ठगने का प्‍लान बनाकर बाजार में उतरा, या मीडिया, जिसने पैसे फेंको तमाशा देखो की तर्ज पर उसको अपने चैनलों में जगह दी या फिर वो पब्‍िलक जो टीवी पर प्रसारित प्रोग्राम को देखने के बाद बाबा के झांसे में आई। निर्मल बाबा पर उस समय उंगलियां उठ रही हैं, जब वह चैनलों व अपनी बातों की बदौलत करोड़पति बनता जा रहा है। अब निर्मल बाबा से उस मीडिया को प्रोब्‍लम होने लगी है, जो विज्ञापन के रूप में बाबा से लाखों रुपए बटोर रहा है। आज बाबा पर उंगलियां उठाने वाला मीडिया स्‍वयं के मालिकों से क्‍यूं नहीं पूछता, जिन्‍होंने बाबा को घर घर तक पहुंचाया, जिन्‍होंने निर्मल बाबा का अवतार पैदा किया, जो काम निर्मल बाबा को करने में सालों लग जाते या कहू

भारत सईद व पचास करोड़ पर ठोके दावा

सब जानते हैं कि अमेरिका शातर है, वो अपनी हर चाल सोच समझकर चलता है, अब साइद हाफिज को लेकर चली उनकी चाल को गौर से देखें, यह चाल अमेरिका ने कब चली, जब पाकिस्‍तानी राष्‍ट्रपति आसिफ अली जरदारी हिन्‍दुस्‍तान आने वाले थे। अमेरिका ने जैसे ही कहा,  सईद हाफिज मोहम्‍मद को पकड़वाने वाले को 50 करोड़ रुपए का नाम मिलेगा, तो सईद की दहाड़ते सुनते ही अमेरिका ने पल्‍टी मारते हुए कहा कि यह इनाम उसके खिलाफ साबूत पेश करने वाले को मिलेगा। जैसे ही आसिफ ने भारत आने की बात स्‍वीकार की, वैसे ही हिन्‍दुस्‍तानी मीडिया को पंचायत बिठाने का मौका मिल गया। टीवी स्‍क्रीन पर मुददे खड़े किए जाने लगे, अमेरिका की नीयत पर शक किया जाने लगा, यहीं नहीं भारत के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह हाफिज को लेकर मुंह खोलेंगे कि नहीं को लेकर भी अटकलें शुरू हो गई, और यह चर्चाएं तब भी खत्‍म नहीं हुई, जब आसिफ अपने घर पाकिस्‍तान लौट चुके थे। अटकलों का बाजार गर्म था, पंचायत छोटी स्‍क्रीन पर निरंतर बिठाई जा रही थी, और बहस शुरू थी कि क्‍या पाकिस्‍तान भारत के साथ अपने रिश्‍ते मजबूत करना चाहता है, अगर हां तो क्‍या वह हाफिज को भारत के हवाले क

मंदिर हों तो अक्षरधाम जैसे

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रविवार का दिन, सबसे मुश्‍िकल दिन मेरे लिए, पूरा दिन आखिर करूं तो क्‍या करूं, कोई दोस्‍त आस पास रहता नहीं, अगर रहता भी होगा तो उसके घर भी एक पत्‍नी होगी, जो उससे समय मांगेगी, ऐसे में मेरा उसके पास जाना भी कोई उचित नहीं था, मेरी पत्‍िन तो मायके गई हुई थी, बच्‍ची से मिलने, मैं रोज रोज सुसराल नहीं जा सकता। ऐसे में सुबह जल्‍दी जल्‍दी तैयार हुआ, और दुकान के लिए चल दिया, सोचा ब्‍लॉग जगत के लिए कुछ लिखूंगा, मगर दुकान पहुंचा तो पता चला इंटरनेट समयावधि पूरी होने के चक्‍कर में बंद पड़ा, दुकान का शटर नीचे किया, और खाने निकल गया, खाने के बाद सोचा घर जाऊं, सारा दिन टीवी देखूं, एंकर के चेहरों के बदलते हावभाव देखूं, या ऐसी टीवी चर्चा का हिस्‍सा बनूं, जिसमें मैं अपने विचार नहीं प्रकट कर सकता, ऐसे में सोचा क्‍यूं न अक्षरधाम घूम आउं, एक साल हो गया गांधीनगर में रहते हुए, लेकिन अक्षरधाम के मुख्‍य द्वार के सिवाय मैंने अक्षरधाम का कुछ नहीं देखा। आज मन हुआ, निकल दिया, तो सोचा आज सही वक्‍त है, वरना फिर कभी जाना नहीं होगा, जैसे अक्षरधाम के मुख्‍य द्वार पर पहुंचा तो पता चला कि अंदरमोबाइल लेकर जाना सख्‍त

हैप्‍पी अभिनंदन में रविश कुमार

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हैप्‍पी अभिनंदन   में इस बार आपको एनडीटीवी के रिपोर्टर से एंकर तक हर किरदार में ढल जाने वाले गम्‍भीर व मजाकिया मिजाज के  रवीश कुमार  से मिलवाने की कोशिश कर रहा हूं, इस बार हैप्‍पी अभिनंदन में सवाल जवाब नहीं होंगे, केवल विशलेषण आधारित है, क्‍योंकि एक साल से ऊपर का समय हो चला है, अभी तक रवीश कुमार, जो नई सड़क पर कस्‍बा बनाकर बैठें हैं, की ओर से मेरे सवालों का जवाब नहीं आया, शायद वहां व्‍यस्‍तता होगी। हो सकता है कि उनके कस्‍बे तक मेरे सवाल न पहुंच पाए हों, या फिर उनके द्वारा भेजा जवाबी पत्र मुझ तक न आ पाया हो। फिर मन ने कहा, क्‍या हुआ अगर जवाबी पत्र नहीं मिला, क्‍यूं न रवीश कुमार से पाठकों व ब्‍लॉगर साथियों की मुलाकात एक विशलेषण द्वारा करवाई जाए। रविश कुमार, ब्‍लॉग सेलीब्रिटी नहीं बल्‍कि एक सेलीब्रिटी ब्‍लॉगर हैं, जिनके ब्‍लॉग पर लोग आते हैं, क्‍यूंकि सेलीब्रिटियों से संबंध बनाने का अपना ही मजा है। मगर रवीश कुमार ने साबित किया है कि वह केवल सेलीब्रिटी ब्‍लॉगर नहीं हैं, बल्‍कि एक सार्थक ब्‍लॉगिंग भी करते हैं। मैं पहली बार उनके ब्‍लॉग पर एक साथी के कहने पर पहुंचा था, जो उम्र में

टिप बॉक्‍स का कमाल

खाना खाने के बाद टिप देना स्‍टेटस बन चुका है, अगर आप ने खाना खाने के बाद टिप न दी तो शायद आपको महसूस होगा कि आज मैंने बड़े होटल में खाना नहीं खाया, वैसे टिप देना बुरी बात नहीं, इससे सर्विस देने वाले का मनोबल बढ़ता है। मगर आज तक आपने टिप केवल उस व्‍यक्‍ित को दी, जो आपके पास अंत में बिल लेकर आता है, शायद बिल देने वाला वह व्‍यक्‍ित नहीं होता, जो आपको खाने के दौरान सर्विस दे रहा होता है। पिछले दिनों मैं जेबीएम कंपनी के मुख्‍यालय अपने काम से गया हुआ था, वहां पर शाम को एमडी अशोक मंगुकिया जी बोले, आज आपको एक बेहतरीन जगह पर खाना खिलाने के लिए लेकर जाता हूं, वहां की सर्विस व खाना दोनों की बेहतरीन हैं। उनकी बात से मुझे इंदौर सरवटे बस स्‍टेंड स्‍िथत गुरुकृपा होटल की याद आ गई, जिसकी सर्विस और खाना असल में तारीफ लायक है। सूरत के आरटीओ कार्यालय के निकट स्‍िथत सासुमा गुजराती रेस्‍टोरेंट में पहुंचते ही एमडी ने वेटर को खाना लाने के लिए इशारा किया, वह खाना लेने चला गया, लेकिन मैं खाने का स्‍वाद नहीं ले सकता था, क्‍योंकि मेरा उस दिन उपवास था, ऐसे में मैं इधर उधर, नजर दौड़ा रहा था, इतने में मेरी निग

आखिर छवि किसी की धूमिल हो रही है

आखिर छवि किसी की धूमिल हो रही है समझ से परे है, भारत सरकार की, इंडियन एक्‍सप्रेस की या सेनाध्‍यक्ष वीके सिंह की। कल रात प्राइम टाइम में इंडियन एक्‍सप्रेस के चीफ इन एडिटर शेखर गुप्‍ता ने एक बात जोरदार कही, जो शायद सभी मीडिया वालों के लिए गौर करने लायक है। श्री गुप्‍ता ने कहा कि इंडियन एक्‍सप्रेस ने जो प्रकाशित किया, अगर वह गलत है तो मीडिया को सामने लाकर रखना चाहिए, अगर इंडियन एक्‍सप्रेस में प्रकाशित बात सही है तो मीडिया वालों को उसका फलोअप करना चाहिए। इससे एक बात तो तय होती है कि इंडियन एक्‍सप्रेस को अपने पत्रकारों पर पूर्ण विश्‍वास है, जो होना भी चाहिए। फिर अभी अभी फेसबुक पर कुमार आलोक का स्‍टेटस अपडेट पढ़ा, जिसमें लिखा था, खबर है कि यूपीए में सरकार के एक बडे मंत्री के इशारे पर जनरल वीके सिंह की छवि धूमिल करने के लिए कल एक्सप्रेस में खबर छपरवाई गयी। मंत्री के रिश्तेदार बडे बडे आर्मस डीलर हैं। कुमार आलोक दूरदर्शन न्‍यूज में सीनियर पत्रकार हैं, ऐसे में उनकी बात को भी नकारा नहीं जा सकता। मगर सवाल यह उठता है कि इस पूरे घटनाक्रम में आखिर किसी की छवि धूमिल हो रही है, उस समाचार पत्र की जो अपन

अपराधग्रस्‍त जीवन या सम्‍मानजनक जीवन

जिन्‍दगी में ज्‍यादा लोग अपराधबोध के कारण आगे नहीं बढ़ पाते, जाने आने में उनसे कोई गलती हो जाती है, और ताउम्र उसका पल्‍लू न छोड़ते हुए खुद को कोसते रहते हैं, जो उनके अतीत को ही नहीं वर्तमान व भविष्‍य को भी बिगाड़कर रख देता है, क्‍योंकि जो वर्तमान है, वह अगले पल में अतीत में विलीन हो जाएगा, और भविष्‍य जो एक पल आगे था, वह वर्तमान में विलीन हो जाएगा। जिन्‍दगी को खूबसूरत बनाने के लिए चाणक्‍य कहते हैं, 'तुमसे कोई गलत कार्य हो गया, उसकी चिंता छोड़ो, सीख लेकर वर्तमान को सही तरीके से जिओ, और भविष्‍य संवारो।' ऐसा करने से केवल वर्तमान ही नहीं, आपका भविष्‍य और अतीत दोनों संवरते चले जाएंगे। किसी ने कहा है कि गलतियों के बारे में सोच सोचकर खुद को खत्‍म कर लेना बहुत बड़ी भूल है, और गलतियों से सीखकर भविष्‍य को संवार लेना, बहुत बड़ी समझदारी। मगर हम जिस समाज में पले बढ़े हैं, वहां पर किताबी पढ़ाई हम को जीवन जीने के तरीके सिखाने में बेहद निकम्‍मी पड़ जाती है, हम किताबें सिर्फ इसलिए पढ़ते हैं, ताकि अच्‍छे अंकों से पास हो जाएं एवं एक अच्‍छी नौकरी कर सकें। मैं पूछता हूं क्‍या मानव जीवन केवल आ

आज चौथी तारीख है, कुछ जल्‍द हो जाए

सर जी, आज चौथी तारीख है, कुछ जल्‍द हो जाए। क्‍यूं जी? क्‍या आज पत्‍नि को डिनर पर लेकर जाना है? नहीं तो, क्‍या बच्‍चों को इम्‍िहतानों की तैयारी करवानी है? नहीं तो, क्‍या आज मां या बाप को डॉक्‍टर के यहां चेकअप के लिए लेकर जाना है? नहीं जी, तो आखिर फिर आज ऐसा क्‍या करना है, जिसके लिए जल्‍दी छूटी चाहिए, जी आज आइपीएल शुरू होने वाला है, बहुत अच्‍छा, आइपीएल देखने के लिए जल्‍दी जाना है, खूब मियां, आज से देश व्‍यस्‍त हो जाएगा, और भूल जाएगा, काले धन के मुद़दे को, भूल जाएगा सेनाध्‍यक्ष की चिट़ठी से हुए खुलासे को, भूल जाएगा देश में बढ़ती कीमतों को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शनों को। चलो ठीक है, जल्‍दी चले जाओ। इस ट्रैफिक को भी आज ही रास्‍ता रोकना था, इतने में साथ खड़ा व्‍यक्‍ित कहता है, यार यह तो रोज की समस्‍या है, शायद आज तुम ही पहले आ गए, यहां तो ट्रैफिक की यही स्‍थिति है, वैसे घर जाने से पहले ही आइपीएल शुरू हो जाएगा, क्‍या तुम भी आइपीएल देखोगे, क्‍या मजाक करते हो, हिन्‍दुस्‍तान में रहते हो, और क्रिकेट नहीं देखते तो क्‍या जीना है, यही तो एक काम है, जो सब चीजों को भुला देता है पत्‍िन के पीठ दर

अगर जंग जीतनी है तो.....बन जाओ सुनहरे मोतियों की माला।

छोटी छोटी चीजें जीवन की दिशा बदल सकती हैं, लेकिन उन छोटी छोटी चीजों पर अमल होना चाहिए, इस रविवार मैं अपने ससुराल में था, यहां घर के मुख्‍य द्वार पर कुछ इंग्‍लिश्‍ा की पंक्‍ितयां लिखी हुई हैं, जिनका मतलब शायद मेरे हिसाब से यह निकलता है, अगर हम एक साथ आ जाते हैं, तो यह शुरूआत है, अगर हम एक साथ बने रहते हैं तो यह उन्‍नति है, अगर हम एक साथ मिलकर कार्य करते हैं तो सफलता निश्‍िचत है। इस पंक्‍ित को पढ़ने के बाद लगा, क्‍या यह पंक्‍ित हमारे आज के उन नेताओं ने नहीं पढ़ी, जो काले धन को लेकर, लोकपाल बिल को दिल्‍ली में अनशन कर रहे हैं, अगर पढ़ी होती तो शायद बाबा रामदेव, अन्‍ना हजारे अलग अलग टीम बनाकर एक ही मिशन के लिए न लड़ते, बात चाहे लोकपाल बिल की हो या कालेधन को बाहर से लाने की, बात तो सरकार से जुड़ी हुई है। बचपन में एक कहानी कई दफा लिखी, क्‍योंकि उसको लिखने पर मुझे अंक मिलते थे, वो कहानी इम्‍ितहानों में से पास करवाने में अहम रोल अदा करती थी। एकता से जुड़ी वह कहानी, जिसमें एक किसान के चार पुत्र होते हैं, और किसान उनको पहले एक लकड़ी तोड़ने के लिए देता है और वह तोड़ देते हैं, फिर वह उनको लकड़िय