कल करे सो आज क्यों नहीं
ज्यादातर स्कूली बच्चों को छुटिटयों के बाद स्कूल जाना सबसे ज्यादा डरावना लगता है, खासकर उन बच्चों के लिए जिन्होंने हॉलिडे होमवर्क कल करेंगे करते करते पूरी छुटिटयां मौज मस्ती में गुजारी हों। कुछ ऐसे ही बच्चों की तरह व्यक्ित भी कल करेंगे कल करेंगे कहते कहते अपनी जिन्दगी गंवा देता है, अंतिम सांस अफसोस के साथ छोड़ता है, काश! कुछ वक्त और मिल जाता। आज सुबह जब मैं अपने घर के प्रांगण में टहल रहा था तो उक्त विचार अचानक दिमाग में आ टपका। इस विचार से पहले मेरे मास्टर साहिब द्वारा सुनाई एक कहानी याद आई, जिसको मैंने मानव जीवन और स्कूली बच्चों से जोड़कर देखा, वो बिल्कुल स्टीक बैठती है, जब उन्होंने सुनाई तब वो सिर्फ कहानी थी मेरे लिए, लेकिन आज वह मार्गदार्शिका है। सर्दियों का मौसम था, मास्टर साहिब कुर्सी पर, और हम सब जमीन पर बिछे टाटों पर बैठे हुए थे। मास्टर साहिब ने सूर्य की ओर देखते हुए कहा, आज स्कूली किताबों से परे की बात करते हैं। हम को लगा, चलो आज का दिन तो मस्त गुजरने वाला है क्योंकि किताबी बात नहीं होने वाली। मास्टर साहिब ने बोलना शुरू किया, खेतों में एक बिना छत वाला कमरा था, वहां पर एक अमली (नशेड़ी) रहता था, और सर्दी के दिन थे। जब रात के समय उसको सर्दी लगती तो वह कहता, सूर्य उगते ही इस कमरे पर छत डाल दूंगा, ताकि अगली रात को सर्दी मेरी नींद में रुकावट न डाल सके, मगर सुबह होते ही उस अमली के शब्द बदल जाते, कितनी प्यारी धूप है, मजा आ गया और वह भूल जाता जो बात उसने रात को ठिठुरते हुए कही थी। इस तरह सिलसिला चलता रहा, अमली के संवाद मौसम के साथ बदलते रहे, और अंत में सर्दी खत्म होने से पहले अमली खत्म हो गया। इतने में आधी छुटटी घोषित करने वाली बेल बजी, बेल बजी नहीं कि स्कूल में हलचल से मच गई, मानो कैदियों को जेल से रिहा कर दिया गया हो। मास्टर साहिब कहानी का अर्थ समझा पाते कमबख्त वक्त ने वक्त ही नहीं दिया।
उनका एक शेयर भी मुझे बेहद याद आता है,
वक्त की वक्त से मुलाकात थी,
वक्त को मिल न मिला
यह भी वक्त की बात थी
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