न्यू बठिंडा की तस्वीर प्रदर्शित करती घटनाएं, फिर चुप्पी क्‍यों

कुलवंत हैप्पी / गुडईवनिंग/ समाचार पत्र कॉलम
पिछले दिनों स्थानीय सिविल अस्पताल से खिडक़ी तोडक़र भागी युवती का तो कुछ अता पता नहीं, लेकिन फरार युवती पीछे कई तरह के सवाल छोड़ गई। वह युवती सहारा जनसेवा को बेसुध अवस्था में मिली थी एवं सहारा जनसेवा ने उसको इलाज हेतु सिविल अस्पताल दाखिल करवाया, तभी होश में आने के बाद युवती ने जो कुछ कहा, उसको नजरंदाज नहीं किया जा सकता, क्‍योंकि वह युवती उस क्षेत्र से संबंध रखती है, जहां शहर की ८० हजार से ज्यादा आबादी रहती है। युवती सिविल अस्पताल में उपचाराधीन पड़ी नशा दो नशा दो की रट लगा रही थी, जब मांग पूरी न हुई तो वहां से सहारा वर्करों को चकमा देकर भाग निकली। उसके बाद पता नहीं चला कि युवती आखिर गई कहां एवं प्रशासन भी कारवाई के लिए उसकी स्थिति सुधरने का इंतजार करता रहेगा। इस घटनाक्रञ्म से पूर्व स्थानीय रेलवे रोड़ स्थिति एक होटल से मृतावस्था में एक युवक मिला था, जो होटल में किसी अन्य जगह का पता देकर ठहरा हुआ था। उस युवक के पास से नशे की गोलियों के पते मिले थे, जो साफ साफ कह रहे थे कि नशे ने एक और जिन्दगी निगल ली। यह युवक भी लाइनों पार क्षेत्र से संबंधित था। इन दोनों घटनाओं के बीच कई घटनाएं घटित हुई, जो लाइनोंपार क्षेत्र में बढ़ती नशाखोरी को प्रदर्शित करती हैं। इतना ही नहीं, नशाखोरी के खिलाफ कुछ दिन पूर्व लाइनोंपार के एक क्षेत्र में महिलाओं ने रोष प्रदर्शन भी किया था एवं मौके पर पहुंचे पुलिस अधिकारियों ने नशा तस्करी के खिलाफ डटकर समर्थन देने का भरोसा दिया था, मगर भरोसा तो हमारे नेतागण भी देते हैं। इस क्षेत्र में नशे की आंधी किस तरह घरों के चिरागों को बुझा रही है, यह बात किसी से भी छुपी नहीं, मगर न जाने जिला प्रशासन व सरकार किस तूफान के आने का इंतजार कर रही है। लाइनोंपार क्षेत्र में आलम ऐसा है कि हर पांचवां व छठा युवक नशे की लत से अछूता नहीं। लाइनों पार क्षेत्र का ऐसा हाल हुआ क्‍यों? इस पर भी विचार करने की बेहद जरूरत है। नशे की लत से किसी को कैसे बचाया जा सकता है। मुझे लगता है कि बेहतर शिक्षा प्रदान कर या फिर बच्चों में खेल कूद के प्रति उत्सुकता पैदा कर, लेकिन यह बातें तभी पूरी हो सकती हैं, यदि अच्छी शिक्षा व खेल कूद के लिए कोई साधन उस क्षेत्र में हों। लाइनों पार का क्षेत्र दोनों ही चीजों से वंचित है। इस क्षेत्र में न तो बेहतर एजुकेशन के लिए कोई शैक्षणिक संस्थान है और ना ही खेल को प्रफूल्‍ल‍ित करने के लिए कोई खेल परिसर। इसके बाद बात आती सेहत सुविधाओं की, लाइनों पार क्षेत्र इस सुविधा से भी पूरी तरह वंचित है। ऐसे माहौल में एक अच्छा नागरिक पैदा करना लहरों के विपरीत तैरकर किनारों को पकडऩे जैसा मालूम पड़ता है। सवाल यह भी उठता है कि आखिर हम कब तक सरकारों को दोष देते रहेंगे व असुविधाओं का रोना रोते रहेंगे, कुछ जिमेदारियों का बीड़ा हमें खुद को भी तो उठाना होगा, तभी जाकर एक स्वच्छ समाज की कल्पना कर सकते हैं। दीया दीया जलाओ, और फिर मुडक़र देखें, अगर दीवाली सा माहौल न हो जाए तो कहना। बस जरूञ्रत है, एक दीया जलाने की, अंधकार तो डरपोक कुत्‍ते की तरह दूम टांगों के बीच दबाकर भाग जाएगा।

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