अंक तालिका से परे जिन्दगी, जरा देखें
कुलवंत हैप्पी, गुड ईवनिंग समाचार पत्र कॉलम
इंदौर शहर के एक मार्ग किनारे लगे होर्डिंग पर लिखा पढ़ा था, जिन्दगी सफर है, दौड़ नहीं, धीरे चलो, लेकिन बढ़ती लालसाओं व प्रतिस्पर्धाओं ने जिन्दगी को सफर से दौड़ बनाकर रख दिया। हर कोई आगे निकलने की होड़ में जुटा हुआ है, इस होड़ ने रिश्तों को केवल औपचारिकता बनाकर रख दिया, मतलब रिश्ते हैं, इनको निभाना, चाहे कैसे भी निभाएं। रिश्तों के मेले में सबसे अहम रिश्ता होता है मां पिता व बच्चों का, लेकिन यह रिश्ता भी प्रतिस्पर्धावादी युग में केवल एक औपचारिकता बनकर रह गया है। अभिभावक बच्चों को अच्छे स्कूल में डालते हैं ताकि उनके बच्चे अच्छी शिक्षा ले सके, उनको अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए अच्छे पैसों की जरूरत होती है, जिसके लिए ब्लॉक की सूईयों की तरह मां बाप चलते हैं, और पैसा कमाते हैं। उनको रूकने का समय नहीं, वह सोचते हैं बच्चों को अच्छे स्कूल में डाल दिया, दो वक्त की रोटी दे दी, और उनकी जिम्मेदारी खत्म हो गई। अच्छे स्कूल में डालते ही बच्चों को अच्छे नतीजों लाने के लिए दबाव डाला जाता है, बिना बच्चे की समीक्षा किए। बच्चे भी अभिभावकों की तरह अच्छे अंकों के लिए अपनी दुनिया को किताबों तक सीमित कर लेते हैं। इस तरह चलते चलते बच्चों को जिन्दगी बोझ सी लगने लगती है, दूसरी तरफ बड़े होते बच्चों से मां बाप की उम्मीदें बढ़ने लगती है, यही उम्मीद बच्चों को और मुश्किल में डाल देती हैं। ऐसे में तनावग्रस्त बच्चों के पास तनाव से मुक्ति पाने के लिए एक ही रास्ता बचता है, जो गत रात्रि फरीदाबाद के सेक्टर सात में रहने वाली दसवीं कक्षा की छात्रा दिव्या ने चुना। एग्जाम का फीवर इतना तेज हो गया कि उसने मौत को गले लगा आसान समझा। अगर प्रत्येक साल के आंकड़े देखे जाए तो हमारी आंखें खुली की खुली रह जाएगी, क्योंकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक प्रत्येक दिन छह छात्र असफलता के डर से आत्महत्या करते हैं, जबकि 13 छात्र किसी अन्य बजाय से। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2009 के आंकड़ों के मुताबिक चंड़ीगढ़ में आत्महत्या के 2009 के आंकड़ों में से 24 फीसदी मामले छात्रों से जुड़े थे तो इलाहाबाद और कानपुर में यह आंकड़ा 23 फीसदी था. मेरठ में 2008 में सामने आए आत्महत्या के कुल मामलों में से 19.8 फीसदी छात्रों के ही बताए जाते हैं और लखनऊ में 2007 में यह आंकड़ा 22.6 फीसदी था. 2008 में जहां देश में 4.8 फीसदी छात्रों ने मौत को गले लगाया था, वहीं 2009 में इस कठोर कदम को उठाने वाले छात्रों का आंकड़ा 5.3 फीसदी था यानी 2008 में जहां 6,060 छात्रों ने आत्महत्या की थी, 2009-10 में यह आंकड़ा बढ़कर 6,716 हो गया। देश में प्रतिदिन 19 छात्र आत्महत्या करते हैं, जिनमें से छह यह कदम परीक्षा में असफलता के डर से उठाते हैं। और मां बाप व शिक्षकों के पास छोड़ जाते हैं केवल अफसोस। इस बाबत मनोविज्ञानियों का कहना है कि बच्चे अवसाद से भीतर ही भीतर जूझते रहते हैं एवं मां बाप के पास उनकी समस्याओं को सुनने का समय नहीं। क्या फायदा ऐसी शिक्षा का, जो व्यक्ति को जीवन जीने का सलीका नहीं सिखा सकती। अंकतालिका से परे, आपके बच्चे की जिन्दगी खड़ी है, उसको देखने की कोशिश करें। असल शिक्षा वही होती है, जो मानसिक तौर पर तंदरुस्त व एक अच्छा इंसान पैदा कर सके।
इंदौर शहर के एक मार्ग किनारे लगे होर्डिंग पर लिखा पढ़ा था, जिन्दगी सफर है, दौड़ नहीं, धीरे चलो, लेकिन बढ़ती लालसाओं व प्रतिस्पर्धाओं ने जिन्दगी को सफर से दौड़ बनाकर रख दिया। हर कोई आगे निकलने की होड़ में जुटा हुआ है, इस होड़ ने रिश्तों को केवल औपचारिकता बनाकर रख दिया, मतलब रिश्ते हैं, इनको निभाना, चाहे कैसे भी निभाएं। रिश्तों के मेले में सबसे अहम रिश्ता होता है मां पिता व बच्चों का, लेकिन यह रिश्ता भी प्रतिस्पर्धावादी युग में केवल एक औपचारिकता बनकर रह गया है। अभिभावक बच्चों को अच्छे स्कूल में डालते हैं ताकि उनके बच्चे अच्छी शिक्षा ले सके, उनको अच्छे स्कूल में पढ़ाने के लिए अच्छे पैसों की जरूरत होती है, जिसके लिए ब्लॉक की सूईयों की तरह मां बाप चलते हैं, और पैसा कमाते हैं। उनको रूकने का समय नहीं, वह सोचते हैं बच्चों को अच्छे स्कूल में डाल दिया, दो वक्त की रोटी दे दी, और उनकी जिम्मेदारी खत्म हो गई। अच्छे स्कूल में डालते ही बच्चों को अच्छे नतीजों लाने के लिए दबाव डाला जाता है, बिना बच्चे की समीक्षा किए। बच्चे भी अभिभावकों की तरह अच्छे अंकों के लिए अपनी दुनिया को किताबों तक सीमित कर लेते हैं। इस तरह चलते चलते बच्चों को जिन्दगी बोझ सी लगने लगती है, दूसरी तरफ बड़े होते बच्चों से मां बाप की उम्मीदें बढ़ने लगती है, यही उम्मीद बच्चों को और मुश्किल में डाल देती हैं। ऐसे में तनावग्रस्त बच्चों के पास तनाव से मुक्ति पाने के लिए एक ही रास्ता बचता है, जो गत रात्रि फरीदाबाद के सेक्टर सात में रहने वाली दसवीं कक्षा की छात्रा दिव्या ने चुना। एग्जाम का फीवर इतना तेज हो गया कि उसने मौत को गले लगा आसान समझा। अगर प्रत्येक साल के आंकड़े देखे जाए तो हमारी आंखें खुली की खुली रह जाएगी, क्योंकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक प्रत्येक दिन छह छात्र असफलता के डर से आत्महत्या करते हैं, जबकि 13 छात्र किसी अन्य बजाय से। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2009 के आंकड़ों के मुताबिक चंड़ीगढ़ में आत्महत्या के 2009 के आंकड़ों में से 24 फीसदी मामले छात्रों से जुड़े थे तो इलाहाबाद और कानपुर में यह आंकड़ा 23 फीसदी था. मेरठ में 2008 में सामने आए आत्महत्या के कुल मामलों में से 19.8 फीसदी छात्रों के ही बताए जाते हैं और लखनऊ में 2007 में यह आंकड़ा 22.6 फीसदी था. 2008 में जहां देश में 4.8 फीसदी छात्रों ने मौत को गले लगाया था, वहीं 2009 में इस कठोर कदम को उठाने वाले छात्रों का आंकड़ा 5.3 फीसदी था यानी 2008 में जहां 6,060 छात्रों ने आत्महत्या की थी, 2009-10 में यह आंकड़ा बढ़कर 6,716 हो गया। देश में प्रतिदिन 19 छात्र आत्महत्या करते हैं, जिनमें से छह यह कदम परीक्षा में असफलता के डर से उठाते हैं। और मां बाप व शिक्षकों के पास छोड़ जाते हैं केवल अफसोस। इस बाबत मनोविज्ञानियों का कहना है कि बच्चे अवसाद से भीतर ही भीतर जूझते रहते हैं एवं मां बाप के पास उनकी समस्याओं को सुनने का समय नहीं। क्या फायदा ऐसी शिक्षा का, जो व्यक्ति को जीवन जीने का सलीका नहीं सिखा सकती। अंकतालिका से परे, आपके बच्चे की जिन्दगी खड़ी है, उसको देखने की कोशिश करें। असल शिक्षा वही होती है, जो मानसिक तौर पर तंदरुस्त व एक अच्छा इंसान पैदा कर सके।
jarooree soochanaa parak aalekh
जवाब देंहटाएंKitna achcha likha aapne...
जवाब देंहटाएंविचारणीय हैं यह सब आंकड़े ...किस तरह हमरी भवी पीढ़ी अपेक्षाओं के बोझ तले दम तोड़ रही है..... सार्थक आलेख
जवाब देंहटाएंबदकिस्मती हमारी सोंच की....शुभकामनायें आपको !
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