और खुद को जाना

भीड़ से निकल,
शोर-गुल से दूर हो,
जिम्मेदारियों को अलहदा कर खुद से
रात को चुपके से,
नींद के ताबूत में अपने आपको रख
हर रात की तरह
गहरी नींद में सोई
आँखों के बंद दरवाजे पर
ठक ठक हुई,
स्वप्न बन आया कोई
पकड़ हाथ मेरा 

मुझे उठाकर ले गया साथ अपने
वहाँ, देखती थी रोज जिसके सपने
मेरे सूखे, मुरझाए ओंठों पर घिस डाला
तोड़कर गुलाब उसने
गालों पर लगा दिया हल्का सा
स्पर्श का गुलाल उसने
चुपके से खोल दिए बाल उसने
फिर गुम हो गया,
मैं झूमने को तैयार थी
बाँहें हवा में लहराने को बे-करार थी
शायद सुनी हवाओं ने दिल की बात
या फिर वो हवा बन बहने लगा
पता नहीं
मीठी मीठी पवन चलने लगी
जुल्फें उड़ने लगी
बाँहें खुद ब खुद तनने लगी,
मन का बगीचा खिल उठा,
बाहर के बगीचे की तरह
आनंद के भँवर आने लगे
गीत गुनगुनाने लगे
पैर थिरकने लगे, मैं पगलाने लगी
तितलियों के संग उड़ते,
मस्त हवाओं, झूमते पौधों के साथ
झूमते हुए गुनगुनाने लगी
हर तरफ आनंद ही आनंद
जिसकी तलाश थी पल पल
भूल गई, कौन हूँ, किसी दुनिया से आई हूँ,
बस ऐसा लगा, कुदरत ने इसके लिए बनाई हूँ,
जो हूँ, वो ही बनना था मुझे, देर से समझ पाई हूँ,
कौन था? क्या चाहता था?
पता नहीं।
अगर पता था, तो बस इतना, कोई था
जो मुझे मुझे से मिलाने आया था
मेरे सोए मन को जगाने आया था
दुनियावी चमक ने अंधी कर दिया था,
मेरी दृष्टि छीन ली थी,
मेरा चैन छीन लिया था,
मुझे नकारा कर दिया था,
मेरे भीतर जहर भर दिया था,
दर्द से कराह उठी थी,
बेचैन हो गई थी,
अर्थी पर लेटने से पहले ही मर गई थी,
लेकिन फिर जिन्दा हो गई
अपने आपसे मुलाकात हूबहू हो गई
मैंने उस खुद को जाना,
जिसको के लिए भटक रहा है जमाना
जो भीतर था, बाहर न था
वो कोई और न था
बस मैं ही मैं थी।
वो शख्स नहीं, आईना था
जिसमें मैंने देखा खुद को
और खुद को जाना था

भार
कुलवंत हैप्पी

टिप्पणियाँ

  1. जो भीतर था, बाहर न था
    वो कोई और न था
    बस मैं ही मैं थी।
    वो शख्स नहीं, आईना था
    जिसमें मैंने देखा खुद को
    और खुद को जाना था
    वाह आज तो सुबह सुबह अपनी अत्मा से बातें कर रहे हो। जिसने खुद को जान लिया उसके लिये और क्या रह गया जानने को। हम दुनियावी रंग मे रंग कर अपनी पहचान भूल जाते हैं। अच्छी कविता है । शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  2. जो भीतर था, बाहर न था
    वो कोई और न था
    बस मैं ही मैं थी।
    वो शख्स नहीं, आईना था
    जिसमें मैंने देखा खुद को
    और खुद को जाना था



    -बहुत गहरे उतरे भाई प्रातःकालिन सभा में...

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  3. बहुत बेहतरीन रचना ........भावों रूपी समंदर जैसे गहरी ये रचना .....बहुत बहुत धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढिया रचना है.

    जवाब देंहटाएं
  5. bahut sunder abhivykti..................
    apane me jhankne ka samay hee nahee nikalta hai aaj vykti...........shayad lagata hai doudtee duniya me peeche na rah jae...........
    duhaaee hai achetan man kee.................

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत बेहतरीन रचना ........भावों रूपी समंदर जैसे गहरी ये रचना .....बहुत बहुत धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  7. मन के अंदर पैठे भावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं....ये आईना होता तो सबके पास है पर वक्त नहीं है कि कभी स्वयं से स्वयं की पहचान कराई जाये....खूबसूरत रचना.

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  8. ज़िन्दगी की हकीक़त बयान कर दी है……………………॥आत्मावलोकन की दि्शा मे बेहद प्रशंसनीय ।

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  9. अच्छा हुआ आपने अंत में बता दिया " वो शख्स नहीं, आईना था "....वर्ना ऐसी मुहब्बत पर लम्बी टिपण्णी मिलती .....!!

    अच्छी नज़्म .....!!

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  10. bahut sundar abhivyakti...khud ko pahchan liya to sab kuch mil gya...fir aur kuch nahi bachta janane ko...bahut achcha!!

    जवाब देंहटाएं
  11. जो भीतर था, बाहर न था
    वो कोई और न था
    बस मैं ही मैं थी।
    वो शख्स नहीं, आईना था
    जिसमें मैंने देखा खुद को
    और खुद को जाना था
    आत्म मंथन पर बेहद प्रभावशाली पंक्तियाँ हैं.

    जवाब देंहटाएं

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