दोषी कौन औरत या मर्द?

जब श्री राम ने सीता मैया को धोबी के कहने पर घर से बाहर निकल दिया, तब सीता रूप में चुप थी औरत। जब जीसस को प्रभु मान लिया गया, और मरियम को कुछ ईसाईयों ने पूजने लायक न समझा, तब मरियम रूप में चुप थी औरत। मुस्लिम समुदाय ने औरतों को पर्दे में रहने का हुक्म दे दिया, तब मुलिस्म महिला के रूप में चुप थी औरत। बस औरत का इतना ही कसूर है। अगर वो तब सहन न करती तो आज कोई विवाद न होता, और आजादी की बात न आती।

कल एक महोदय का लेख पढ़ा, जिसमें लिखा था कि महिलाओं का कम कपड़े पहनकर निकलना छेड़खानी को आमंत्रित करना है। जैसे ही लेख पढ़ा दिमाग खराब हो उठा। समझ नहीं आया कि आखिर लिखने वाला किस युग का युवा है। एक ही पल में औरत पर पाबंदी लगा रहा है, जैसे आज भी औरत इसकी दासी हो। ऐसे लोग हमेशा सिक्के का एक पहलू देखते हैं, और शुरू कर देते हैं सलाह देना।

बड़े बड़े कुछेक साधू संत महात्माओं ने अपने निकट महिलाओं को नहीं आने दिया, इसका मतलब ये मत समझो कि वो महान थे। इसलिए उन्होंने ऐसा किया, बल्कि सत्य तो ये है कि वो औरत का सामना कर ही न सकते थे, औरत को देखते ही उनका मन कहीं डोल न जाए, इसलिए वो औरत से दूर रहते थे। सन्यासी जंगल तप के लिए क्यों जाता है, वो औरत की छवि को दिमाग से निकालने के लिए, लेकिन वो ऐसा कर पाने में हमेशा असफल होता है। वो जब तक औरत से दूर है, तब तक वो ठीक है, लेकिन जब वो औरत के सामने आता है तो खुद को संभाल भी नहीं पाता। तुम औरत को दोष मत दो। तुम अपने भीतर काम के बीज को खत्म ही नहीं कर सकते, इसलिए औरत को देखते ही तिलमिलाना शुरू कर देते हो। और फिर सारा दोष औरत के सिर पर मढ़ा देना तो सब अच्छी तरह जानते हैं। वो बुरी कैसे हो सकती है, जिसने पीरों पैगम्बरों संत महात्माओं को जन्म दिया हो।

कम कपड़े पहनकर लड़कियाँ इसलिए नहीं निकलती कि आते जाते लड़के उन पर फब्तियां कसें, बल्कि वो इसलिए पहनती हैं कि आज उसका चलन है। असल में परिवर्तन जीवन का नियम है, और इस बदलाव को समय के साथ स्वीकार करना सीखना होगा। क्या आज भी हम कच्चे मकानों में रहते हैं? क्या आज भी हमारे घर दीयों की रौशनी से जगमगाते हैं? क्या आज भी हम चूल्हे पर बनी हुई रोटी खाते हैं? क्या आज भी मर्द पहले की तरह स्वदेशी कपड़े पहनते हैं? अगर सबका जवाब नहीं है तो औरत पर ये सब क्यों थोपा जाए। उसकी कोख से जनने वाले उसी पर पाबंदी क्यों लगाते हैं?

अगर कोई लड़की कम कपड़े पहनकर निकलती है और कोई लड़का कमेंट्स करता है तो उसके लिए लड़की नहीं बल्कि लड़का जिम्मेदार है। वो दोषी है। उसके भीतर का काम जाग उठा है। अगर मर्द खुद को दोषमुक्त करना चाहता है तो खुद को ऐसा कर ले, कि अगर औरत मर्दों की तरह कपड़े उतार कर भी घूमे तो उसको कोई फर्क न पड़े। एक और सवाल जब कभी बहन या भाभी बच्चे को दूध पिला रही होती है, क्या तब वैसा ख्याल दिमाग में आता है, जैसा कि वैसी ही अवस्था में बैठी किसी अन्य महिला को देखकर आता है।

अंत में कुछ सवाल करता हुआ मैं उस युवक की बात मान लेता हूं, अगर महिला पर्दे में भी रहेगी तो क्या पुरुष की नजरें, उसकी कमर के ठुमकों पर आकर नहीं अटकेगी? क्या उसकी उभरी हुई छाती पर जाकर नहीं अटकेंगी। अगर तुम्हारा उत्तर है कि "हाँ अटकेंगी" है, तो अब क्या इन दोनों चीजों को औरत के शरीर अलग कर देना चाहिए। बोलो क्या करें? दोष किसका है?

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर लिखते है आप. साक्षातकार में प्रश्नो का चयन आपने सटीक किया था. धन्यवाद.

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  2. आदिवासी महिलाएं बिल्‍कुल स्‍वच्‍छंदता से रहती है .. इससे भले ही उनपर हर प्रकार के कार्य का दबाब रहा हो .. पर कभी आदिवासी पुरूषों ने उनका किसी तरह शोषण नहीं किया .. क्‍यूंकि उनके समाज में वही चलता है .. उनमें से एक दो महिलाओं का शोषण होता भी है .. तो वो सभ्‍य कहे जानेवाले समाज के द्वारा ही होता है .. आज जब हमारी दुनिया में भी ऐसे ड्रेस चल रहे हैं .. तो इसे सामान्‍य तौर पर लिया जाना चाहिए .. इसमें पुरूषों को आपत्ति क्‍यूं ??

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  3. दोष तो नजरों का है और दोष सोच का है, बस!!

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  4. आपको बातो से इत्तेफाक रखता हूँ , और शायद यही कारण हैं कि क्यों नग्नता हमारे समाज में बढ़ती जा रही है , इसका न सिर्फ कथित प्रगतीवादी महिलाएं जिम्मेदारं है बल्कि आप जैसे कथित सोच वाले मर्द भी जिम्मेदार हैं ।कौन है जो अपने इन्द्रियों पर काबु कर पाया है । लड़कीया कम कपड़े पहन कर आमंत्रण देती है आ साड़ मुझे मार । अगर कम कपड़े या उत्तेजीत करने वाले कपड़े पहने जायेंगे तो इसका क्या परिणाम होगा ये सबको मालुम है , और ये हम पश्चिम मे देख भी चुके है , तब पर भी हम बदलाव के चक्कर में पीशते जा रहे हैं । हमारे यहाँ हमेशा से तन ढकने वाले कपड़े पहनने को कहा जाता है क्योंकि इसमे ही नारी की लज्जा और इज्जत होती है । स्त्रीयों को शास्त्रमार्यादा और लोकमर्यादा की रक्षा पर भी विशेष ध्यान रखना चाहिए शास्त्रो में कहा गया है ऐसा कोई कार्य ना करें जिससे शास्त्रो की अवहेलना हो। वस्त्र इस ढंग से पहनने चाहिए जिससे नाभि और स्तन विशेषरुप से ढके रहे । ऐसे कपड़े कभी नहीं पहनने चाहिए जिससे अग्डं दूसरो को दिखे और लज्जा हानी हो । महिलाओं को लज्जा का विशेष ध्यान देंना चाहिए । बृहद्धर्मपुराण का वचन है ---

    गृहेषु तनया भूषा भूषा संसत्सु पण्डिताः ।
    सुबुद्धिः पुंसु भूषा स्याता् स्त्रीषु भूषा सलज्जता ।। (पूर्वखण्ड ४-३०)

    "गृहस्त के घर भूषण बालक है , सभाओ में पण्डित भूषण है , मनुष्योमें भूषण श्रेष्ट बुद्धि है और स्त्रीयो में भूषण लज्जा है "।।

    शायद इससे कुछ स्पष्ट हो गया हो कि न सिर्फ छेडखानी रोकने में लाभदयाक होता है पूरे तन ढकने वाले कपड़े बल्कि लज्जा और इज्जत भी बचती है ।

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  5. मिथिलेष दुबे जी! क्या शर्म हया केवल औरतों के लिए बनी है। ये किसने बनाई, सिर्फ मर्दों ने। क्यों? हर चीज मर्द ही लागू क्यों करता है। वो खुद को सलमान खान बन शर्ट उतार फेंकता है। मर्द को बे हया, बेशर्म है? मर्द के पास खोने के लिए कुछ क्यों नहीं। जब भी लूटी महिला की इज्जत लूटी, मर्द की क्यों नहीं? क्या हमारी मर्दों की कोई इज्जत नहीं? इंद्रियों पर काबू हम नहीं रख सकते और दोष औरत को क्यों दिया जाता है? हम टीशर्ट पहनते हैं, औरत ने पहन ली तो गुनाह हो गया।

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  6. मैं संगीता जी से सहमत हूँ साथ ही कुछ प-ाँक्तियां कहना चाहती हूँ
    मेरा आत्मसम्मान ये है
    कि मैं पृथ्वि मे
    विलीन हो गयी
    मेरा गौरव मेरा त्याग मेरी व्यथा
    राम की मर्यादा मे समो गयी
    पर मेरी त्रास्दी, मेरी वेदना है
    कि मैं फिर भी
    तुलसी दुआरा
    ताडिन की अधिकारी हो गयी
    पुरु की कमज़ोरी का खामिआज़ा भी औरत को ही भरना पडता है। ये बात जब पुरु की समझ मे आ जायेगी तभी औरत सही मायने मे सम्मान पायेगी । बहुत अच्छा आलेख है आशीर्वाद्

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  7. @कुलवंत भाई जी

    आप ने जो सवाल मुझसे पुछे है , मेरे नजरो में ऐसे सवालो के कोई मायने नहीं , और सवाल तर्क हीन है । ऐसा मत सोचीए गा कि मेरे पास जवाब नहीं है , लेकिन अगर मैं जबाव देने पर आऊंगा तो फिर से वही बात आयेगी कि मुझे ऐसे शब्दो का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।

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  8. इसलिए जवाब देने लायक सवाल पुछिए । तर्क हीन सवालो से कुछ नहीं होने वाला ।

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  9. बहुत अच्छा लेख। कुछ लोग आत्मदंभ व पुरुषदंभ में इतना अधिक डूबे हुए हैं कि उन्हें डूबे ही रहने देना चाहिए। वही उनके चरित्र व नाम के अनुकूल है। वैसे अधिकतर सांडों की क्या नियति होती है यह कोई भी ग्रामीण जानता है। यदि यही नियति चाहिए तो..........देखते जाइए कभी न कभी कानून यह नियति भी दे ही देगा।
    घुघूती बासूती

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  10. इसीलिए हमारा भी मानना है कि समाज में ज्यादा जागृती पुरुषों में आनी जरुरी है ...उनके विकाह्रों में परिवर्तन आवश्यक है ...जब तक वे अपने आपको नहीं बदलते ...लाख नारीवादी आन्दोलन चलते रहे , नारियों केउठान में कोई ज्यादा फर्क नहीं आने का है ...क्यूंकि सिर्फ कानून और जोरजबर्दस्ती के बल पर समाज को नहीं बदला जा सकता ...!!

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  11. मैं संगीता जी से सहमत हूँ

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