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जनवरी, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शिर्डी यात्रा के कुछ पल

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बस अपने निर्धारित समय पर सुबह साढ़े तीन बजे शिर्डी पहुंच गई, मैं पक्की नींद में जा चुका था, शिर्डी मंदिर से कुछ दूर पहले मेरे साथ की सीट पर बैठे एक अन्य मुसाफिर ने मुझे हाथ से हिलाते हुए कहा "शिर्डी आ गया"। शिर्डी का नाम सुनते ही आँखों से नींद ऐसे उड़ गई, जैसे सुबह होते ही परिंदे अपने घोंसलों से। मैंने आँखें पूरी तरह खोलते हुए चलती बस में से शीशे के बाहर देखा, श्री साईं बाबा के विशाल मंदिर का मुख्य दरवाजा। देखने बहुत शानदार, ऐसे दरवाजे मैंने फिल्मों में देखे थे। बस मंदिर से आगे बस स्टेंड की तरफ बढ़ रही थी, मैंने उस अनजान मुसाफिर से पूछा "यहाँ से बस स्टेंड कितनी दूरी पर है"। उसने कहा "बस स्टॉप भी आ गया"। मंदिर से बस स्टेंड कोई बहुत दूर न था, थोड़ी सी दूरी पर जाकर बस मुड़ गई और बस स्टॉप के भीतर चली गई। बस रुकते ही बाहर कुछ लोगों की भीड़ एकत्र हो गई, जैसे ही सवारियाँ बस से बाहर आई, वो उनके इर्दगिर्द घूमने लग गई, जैसे मीठे के ऊपर मक्खियाँ भिनभिनाती है। वो आटो वाले नहीं थे, वो तो प्रसाद की दुकानों वाले थे, जो आपको रहने के लिए किसी निजी संस्था के कमरे तक लेकर जाएंगे,

कुछ मिले तो साँस और मिले...

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ब मुश्‍किल टके हाथ आते हैं कुछ हज़ार और थोड़े सैकड़े क्‍या काफ़ी है ज़िंदगी ख़रीदने को जो नपती है कौड़ियों में. कौड़ियाँ भी इतनी नसीब नहीं, कि मुट्ठी भर ज़रूरतें मोल ले सकूँ कुछ उम्‍मीदें थीं ख्‍़वाब के मानिंद, वो ख्‍़वाब तो बस सपने हुए. कुछ मिले तो साँस और मिले ख्‍़वाबों को हासिल हो तफ़सील. अब मुश्‍किलों का सबब बन रही है गुज़र क्‍या ख़बर आगे कटेगी या नहीं. सिर्फ रात आँखों में कट रही है अभी, सवेरा होने में कई पैसों की देर है. (तफ़सील-विस्तार) अहम बात : युवा सोच युवा खयालात की श्रेणी अतिथि कोना में प्रकाशित इस रचना के मूल लेखक श्री "कनिष्क चौहान" जी हैं।

कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें

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अपना ये संवाद न टूटे हाथ से हाथ न छूटे ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें इसे भी पढ़ें : प्रेम की परिभाषा न हो तेरी बात खत्म न हो ये रात खत्म ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें इसे भी पढ़ें : खंडर का दर्द मिलने दे आँखों को आँखों से दे गर्म हवा मुझको साँसों से ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें इसे भी पढ़ें : एक देश के अन्दर, कई देश हैं! हाथ खेलना चाहें तेरे बालों से लाली होंठ माँगते तेरे गालों से ये सिलसिले यूँ ही चलते रहें कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें

दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति के नाम 'खुला पत्र'

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समय था 26 जनवरी 2010,  दो देशों के राष्ट्रपति दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रिक देश की राजधानी नई दिल्ली में एक साथ बैठे हुए थे। एक भारत की महिला राष्ट्रपति और दूसरा दक्षिण कोरिया का पुरुष राष्ट्रपति। इन दोनों में समानता थी कि दोनों राष्ट्रपति हैं, दोनों एक ही मंच पर हैं, और तो और दोनों की चिंता का मूल कारण भी एक ही चीज से जुड़ा हुआ है, लेकिन उस चिंता से निटपने के लिए यत्न बहुत अलग अलग हैं, सच में। इन्हें भी पढ़ें : पिता के साथ बिताए आखिरी तीन दिन..पिता की याद दक्षिण कोरिया की समस्या भी आबादी से जुड़ी है, और भारत की भी। भारत बढ़ती हुई आबादी को लेकर चिंतित है तो दक्षिण कोरिया अपनी सिमटती आबादी को लेकर। यहाँ भारत को डर है कि आबादी के मामले में वो अपने पड़ोसी देश चीन से आगे न निकल जाए, वहीं दक्षिण कोरिया को डर है कि वो अपने पड़ोसी देश जापान से भी आबादी के मामले में पीछे न रह जाए। अपनी समस्या से निपटने के लिए जहाँ भारत में पैसे दे देकर पुरुष नसबंदी करवाई जा रही है, वहीं दक्षिण कोरिया में दफ्तर जल्दी बंद कर घर जाने के ऑर्डर जारी किए गए हैं, और तो और, ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले दम्पतियों को पुरस्क

हैप्पी अभिनंदन में 'हरकीरत हीर'

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हैप्पी अभिनंदन में आज आप जिस ब्लॉगर शख्सियत से मिलने जा रहे हैं, वो शख्सियत अचानक ब्लॉगवुड के आसमान से उस चाँद की तरह छुप गई, जो बादलों की आढ़ में आते ही हमारी आँखों से ओझल हो जाता है, और फिर वो ही चाँद बादलों को चीरते हुए रात को फिर से रोशनमयी बना देता है। उम्मीद करता हूँ, यहाँ पर भी कुछ ऐसा ही हो..जो चाँद आज हम से दूर जाकर कहीं छुप गया है, वो भी फिर से लौट आए। पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि ये शख्सियत भी इस दिन के इंतजार में थी कि कोई आए और उसके मन को टोटले, और फिर वो दिल खोलकर अपने मन की सभी बातें कहकर कहीं छुप जाए। ऐसा ही कुछ हुआ है इस बार, खुद ही जाने आगे की बात। कुलवंत हैप्पी : कौन सा वो एक दर्द है...जिसने आपको हरकीरत 'हक़ीर' से कवयित्री बना दिया? हरकीरत : हरकीरत हक़ीर से नहीं .....हरकीरत कलसी से कहिये .....!! इक बात कहूँ .....? आपने प्रश्न बेशक छोटा पूछा हो पर जवाब देने जाती हूँ तो सारी ज़िन्दगी सामने आ खड़ी होती है कुछ मेरी हैसियत और औकात दर्शाते शब्द यूँ आस पास रहे कि अपने आप को हकीर से ज्यादा समझ ही नहीं सकी ....' हकीर' का मतलब तो आप जानते ही होंगे ....ब

कौन हूँ मैं

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हिन्दु हूँ या मुस्लिम हूँ मत पूछो, कहाँ से आया, कौन हूँ मैं इसे भी पढ़ें : बस! एक गलती बस! इतना जानूँ मानवता धर्म मेरा है यही कर्म मेरा बहता दरिया, चलती पौन हूँ मत पूछो, कहाँ से आया, कौन हूँ मैं इसे भी पढ़ें : एक संवाद, जो बदल देगा जिन्दगी दुनिया एक रंगमंच तो कलाकार हूँ मैं धर्म रहित जात रहित एक किरदार हूँ मैं जात के नाम पर अक्सर होता मौन हूँ मैं मत पूछो, कहाँ से आया, कौन हूँ मैं इसे भी पढ़ें : फेसबुक  एवं ऑर्कुट के शेयर बटन जिन्दगी है एक सफर तो मुसाफिर हूँ मैं जो छुपता नहीं धर्म की आढ़ में वो काफिर हूँ मैं काट दूँ एकलव्य का अंगूठा न कोई द्रोण हूँ मैं मत पूछो, कहाँ से आया, कौन हूँ मैं इसे भी पढ़ें : नेताजी जयंती "तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आजादी दूंगा" नेताजी और जबलपुर शहर पौन-पवन,

बस! एक गलती

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जाओ, मत रूको और जाओ मत, रूको। इस में सिर्फ और सिर्फ एक अल्पविराम का फर्क है, एक थोड़ा से पहले लग गया और एक थोड़ा सा बाद में, लेकिन इसने पूरे पूरे वाक्य का अर्थ ही बदल दिया। वैसे ही, जैसे आज एक इंग्लिग न्यूज पेपर में प्रकाशित हुए एक विज्ञापन ने। वो था विज्ञापन, लेकिन एक गलती से ख़बर बन गया। यहां इस विज्ञापन में हुई गलती दृश्य एवं प्रचार निदेशालय के अधिकारियों की लापरवाही को उजागर करती है, वहीं मुझे थोड़ा सा सुकून भी देती है, क्योंकि विज्ञापन का अर्थ होता है किसी भी चीज का प्रचार करना। चूक कहीं से भी हुई हो, चाहे सरकारी दफतरों के अधिकारियों से या फिर दैनिक समाचार पत्र के कर्मचारियों से। इस छोटी भूल ने इस भ्रूण हत्या विरोधी विज्ञापन को आज जन जन तक पहुंचा दिया। थोड़ी सी भूल हुई, विज्ञापन खुद ब खुद ख़बर बन गया, और ख़बर बन आम जन तक पहुंच गया। जो विज्ञापन का मकसद था। आम तौर पर दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाले केवल वो ही विज्ञापन पढ़े जाते हैं, जिनमें कोई फायदे की बात हो...जैसे एक पर एक फ्री, इतने की खरीदी पर इतने का सामान मुफ्त पाएं। सच में ऐसे विज्ञापन ही पढ़े जाते हैं। नवभारत टाइम्स

अब जिन्दगी से प्यार होने लगा

गाने का शौक तो बचपन से है, लेकिन कभी सार्वजनिक प्लेटफार्म पर नहीं गा पाया, तीन बार को छोड़ कर। कल रात गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल' जी ने मेरे भीतर के तारों को फिर छेड़ दिया, उनकी पास से  एक यंत्र मिल गया, जिसमें मैं अपनी आवाज रिकॉर्ड करके आप तक पहुंचाने में सक्षम हुआ। ............यहाँ सुने मेरी आवाज में................. नफरत थी जिन ख्यालों से नफरत थी जिन ख्यालों से दिल उन्हीं ख्यालों में खोने लगा तुमसे क्या मिले, अब जिन्दगी से प्यार होने लगा तुमसे क्या मिले, अब जिन्दगी से प्यार होने लगा काट दिया था, जिन उम्मीद के पौधों को काट दिया था, जिन उम्मीद के पौधों को मन वो ही बीज बोने लगा तुमसे क्या मिले, अब जिन्दगी से प्यार होने लगा तुमसे क्या मिले, अब जिन्दगी से प्यार होने लगा तुम सपनों में क्या आने लगे तुम सपनों में क्या आने लगे दिल सुकून की नींदर सोने लगा तुमसे क्या मिले, अब जिन्दगी से प्यार होने लगा तुमसे क्या मिले, अब जिन्दगी से प्यार होने लगा

फेसबुक एवं ऑर्कुट के शेयर बटन

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अब आप कोई भी पोस्ट किसी भी ब्लॉग से अपने ऑर्कुट एवं फेसबुक पर बने दोस्तों के साथ बहुत ही आसानी से शेअर कर सकते हैं, बस उसके लिए आपको। अपने बुकमार्कलेट में जोड़ने होंगे दो बटन। जो मैंने नीचे दिए हैं। इन जोड़ने का तरीका आसान है। जैसे ही लिंक खोलेंगे। आपको फेसबुक और ऑर्कुट के बने हुए दो आइकॉन नजर आएंगे। उनको खींचकर अपने इंटनेट ब्राउजर (मॉजिला फायरफोक्स) के एड्रेस बॉक्स के नीचे लगाएं। जैसे फोटो में नजर आ रहा है। फेसबुक बॉटन ऑर्कुट बटन अगर हम बात करेंगे इंटरनेट एक्सप्लॉर्र की तो उस इन बॉटनों को आप उसके लिंक ऑप्शन में लग सकते है। अगर लिंक ऑप्शन दिखाई न दे तो आप इंटरनेट एक्सप्लॉर्र के एड्रेसबार के उपर राईट क्लिक करके उसको ला सकते हैं, और उसके बाद नीचे से माउस क्लिकिंग द्वारा बटन खींच कर उसमें जोड़ दें। अगर आपके पोस्ट काम आ गई तो मेरे कार्य सफल हो जाएगा। मैं अकेला नहीं चलता

मैं अकेला नहीं चलता

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मैं अकेला नहीं चलता, साथ सवालों के काफिले चलते हैं। होती हैं ढेरों बातें मन में खुली आंखों में भी ख्वाब पलते हैं।  मन के आंगन में अक्सर उमंगों के सूर्या उदय हो ढलते हैं। करता हूं बातें जब खुद से कहकर पागल लोग निकलते हैं। वो क्या जाने दिल समद्र में कितने लहरों से ख्याल मचलते हैं। एक संवाद, जो बदल देगा जिन्दगी

एक संवाद, जो बदल देगा जिन्दगी

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धूप की चिड़िया मेरे आँगन में खेल रही थी, और मेरी माँ की उंगलियाँ मेरे बालों में, जो सरसों के तेल से पूरी तरह भीगी हुई थी। इतने में एक व्यक्ति घर के भीतर घुस आया, वो देखने में माँगने वाला लगता था। उसने आते ही कहा "माता जी, कुछ खाने को मिलेगा"। घर कोई आए और भूख चला जाए हो नहीं सकता था। मेरी माँ ने मेरी बहन को कहा "जाओ रसोई से रोटी और सब्जी लाकर दो"। वो रोटी और एक कटोरी में सब्जी डालकर ले आई। उसने खाना खाने के बाद और जाने से पहले कहा "मैं हाथ भी देख लेता हूं"। मेरी माँ ने मेरा हाथ आगे करते हुए कहा "इस लड़के का हाथ देकर कुछ बताओ"। उसने कहा "वो हाथ दो, ये हाथ तो लड़कियाँ दिखाती हैं"। उसने हाथ की लकीरों को गौर से देखा, फिर मेरे माथे की तरफ देखा। दोनों काम पूरे करने के बाद बोला "तुम्हारा बच्चा बहुत बड़ा आदमी बनेगा" । वो ही शब्द कहे, जो हर माँ सुनना चाहती है । पढ़ें : बंद खिड़की के उस पार उस बात को आज 14 साल हो चले हैं, उस माँ का बेटा बड़ा आदमी तो नहीं बना, लेकिन चतुर चोर बन गया , जो अच्छी चीजों को बिना स्पर्श किए चुरा लेता है। जनाब!

बंद खिड़की के उस पार

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करने को कल जब कुछ न था मन भी अपना खुश न था जिस ओर कदम चले उसी तरफ हम चले रब जाने क्यों जा खोली खिड़की जो बरसों से बंद थी खुलते खिड़की इक हवा का झोंका आया संग अपने समेट वो सारी यादें लाया दफन थी जो बंद खिड़की के उस पार देखते छत्त उसकी भर आई आँखें आहों में बदल गई मेरी सब साँसें आँखों में रखा था जो अब तक बचाकर नीर अपने एक पल में बह गया जैसे नींद के टूटते सब सपने

बसंत पंचमी के बहाने कुछ बातें

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चारों ओर कोहरा ही कोहरा...एक कदम दूर खड़े व्यक्ति का चेहरा न पहचाना जाए इतना कोहरा। ठंड बाप रे बाप, रजाई और बंद कमरों में भी शरीर काँपता जाए। फिर भी सुबह के चार बजे हर दिशा से आवाजें आनी शुरू हो जाती..मानो सूर्य निकल आया हो और ठंड व कोहरा डरे हुए कुत्ते की तरह पूंछ टाँगों में लिए हुए भाग गया हो। कुछ ऐसा ही जोश होता है..बसंत पंचमी के दिन पंजाब में। बसंत पंचमी के मौके लोग बिस्तरों से निकल घने कोहरे और धुंध की परवाह किए बगैर सुबह चार बजे छत्तों पर आ जाते हैं, और अपनी गर्म साँसों से वातावरण को गर्म करते हैं। इस दृश्य को पिछले कई सालों से मिस कर रहा हूं, इस बार बसंत पर पंजाब जाने की तैयारी थी, लेकिन किस्मत में गुजरात की उतरायन लिखी थी, जो गत चौदह जनवरी को गुजरात में मनाकर आया। गुजरात में पहली बार कोई त्यौहार मनाया, जबकि गुजरात से रिश्ता जुड़े तो तीन साल हो गए दोस्तों और पत्नि के कारण। गुजरात में उतरायन पर खूब पतंगबाजी की, पतंगबाजी करते करते शाम तो ऐसा हाल हो गया था कि जैसे ही छत्त से उतर नीचे हाल में पड़े सोफे पर बैठा तो आँख लग गई, पता ही नहीं चला कब नींद आ गई। ऐसा आज से कुछ साल पहले होता थ

हैप्पी अभिनंदन में बीएस पाबला

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हैप्पी अभिनंदन में आप और मैं हर बार किसी न किसी नए ब्लॉगर से मिलते हैं और जानते हैं उनके दिल की बातें। इस बार हमारे बीच जो ब्लॉगर हस्ती है, वो किसी पहचान की मोहताज तो नहीं, लेकिन सम्मान की हकदार जरूर है। आज किसका जन्मदिन ( हिंदी ब्लॉगरों के जनमदिन   ) है और आज कौन सा ब्लॉगर साथी किस अखबार में छाया हुआ है आदि की जानकारी मुहैया करवाने वाली इस ब्लॉगर हस्ती को हम जिन्दगी के मेले , कल की दुनिया , बुखार ब्लॉग , इंटरनेट से आमदनी , पंजाब दी खुशबू आदि ब्लॉगों पर भी अलग अलग रूप में हुए देखते हैं। युवा सोच युवा खयालात की ओर से मेहनती ब्लॉगर 2009 पुरस्कार हासिल करने वाले ब्लॉग प्रिंट मीडिया पर ब्लॉग चर्चा के संचालक बीएस पाबला से हुई ई-मेल के मार्फत एक विशेष बातचीत के मुख्य अंश :- कुलवंत हैप्पी : आपके बहुत सारे ब्लॉग हैं, आप इनको नियमित अपडेट कैसे कर पाते हैं? क्या आपके पास जादू की छड़ी है? बीएस पाबला : जादू की छड़ी तो नहीं है, लेकिन जुनून और सनक अवश्य है। जिस तारीख में सोता हूँ, उसी तारीख में उठ भी जाता हूँ और दिन में सोने के लिए तो नहीं जाता बिस्तर पर! कुलवंत हैप्पी : आप कम्प्यूटर तकनीक में

कोकिला का कुछ करो

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'हम दोनों कितने कमीने हैं' उसने मेरी थाली से एक बर्फी का टुकड़ा उठाते हुए कहा।'वो तो ठीक है कि बेटा तुमको गुजराती आती है, वरना अब लोग चुस्त हो चुके हैं, खासकर आमिर खान की नई फिल्म 'थ्री इडियट्स' देखने के बाद" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा। 'उसमें ऐसा क्या है' उसने उस बर्फी के पीस को अपने मुँह के पास ले जाते हुए पूछा। 'उसमें दिखाया गया है कि कैसे शादी में कोई ऐरा गैरा घुसकर खाने का लुत्फ लेता है, तुमको पता है जब तुम थाली उठा रहे थे तो एक व्यक्ति अपनु को संदिग्ध निगाह से देख रहा था' मैंने चमच से चावल उठाते हुए कहा। 'मुझे पता चल गया था, इसलिए तो मैं गुजराती में बोला था तुमको' उसने पुरी से एक निवाला तोड़ते हुए कहा। 'हम दोनों के पीछे बैग टंगे हुए हैं, ऐसा लगता है कि हम किसी कॉलेज या ट्यूशन से आए हैं, इस हालत में देखकर शक तो होगा ही' मैंने उसको कहा। दोनों दरवाजे के बाहर बनी फर्श की पट्टी पर बैठे मुफ्त के खाने का लुत्फ ले रहे थे, जो जमीं से नौ इंच ऊंची थी। मुफ्त के खाने का लुत्फ लेने के बाद अब बारी थी, नाट्य मंचन देखने की। शनिवार की रात क

प्रेम की परिभाषा

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"अगर मैं तुम्हें फोन न कर सकूँ समय पर, या फिर समय पर फोन न उठा सकूँ, तो तुम बुरा मत मनाना, और कुछ भी मत सोचना। अगर सोचना हो तो बस इतना सोचना कि मैं किसी काम में व्यस्त हूँ।" फोन पर उसने महोदयजी के कुछ कहने से पहले ही सफाई देते हुए कह दिया। अब अगर गिला करने की इच्छा भी हो, तो गिला न कर सकोगे। इतना सुनते ही महोदयजी शुरू पड़ गए, 'तुमसे कई सालों तक बात न करूँ या हररोज करूँ, मुझे उसमें दूर दूर तक कोई फर्क दिखाई ही नहीं पड़ता। आज तुमसे ढेर सारी बातें कर रहा हूँ, आज भी तुम मेरे लिए वो ही हो, जो तुम पहले हुआ करती थी, जब  मेरे पास तेरा मोबाइल नम्बर भी न था।'

मेरा पतंगवा

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चले पवन छूए गगन मेरा पतंगवा (पतंगवा-पतंग)

हैप्पी अभिनंदन में अविनाश वाचस्पति

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 आज जिस ब्लॉगर से आप रूबरू होने जा रहे हैं, वो हस्ती फ़िल्म समारोह निदेशालय, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली में कार्यरत तो है, लेकिन हमारी और उनकी मुलाकात हमेशा तेताला , बगीची , अविनाश वाचस्पति , झकाझक टाइम्स , नुक्कड़ , पिताजी के अलावा भी कई जगहों पर हो जाती है। हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्मों 'गुलाबो', 'छोटी साली' और 'ज़र, जोरू और ज़मीन' में प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिंदी टेली फ़िल्म 'ज्योति संकल्प' में सहायक निर्देशक रह चुके अविनाशजी को काव्य से इतना लगाव है कि टिप्पणी रूप में भी काव्य ही लिखते हैं और कविता अपने विभिन्‍न रूपों यथा गीत, गाना के माध्‍यम से जन-जन को सदा से लुभाती रही है।

कल+आज= सुनहरा भविष्य

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कुछ लोगों को आपने अतीत से नफरत होती है, क्योंकि वह सोचते हैं कि अतीत को देखने से उनको उनका बीता हुआ बुरा कल याद आ जाएगा, किंतु मेरी मानो तो अतीत को इंसान नहीं संवार सकता परंतु अतीत इंसान को सीख देकर उसके आने वाले कल को जरूर सुधार सकता है। आपने अकसर सुना या पढ़ा होगा कि उसने इस सफलता के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा, ये बहुत गलत बात होती है, लिखने वाले और सुनाने वाले को क्या पता उसने अपने हर लम्हे में अतीत को याद किया या नहीं, उसके मन में लिखते या सुनाते समय जो आया उसने लिख और सुनाया दिया, लेकिन खरा सच तो ये है कि सफल इंसान हमेशा आपने अतीत से कुछ न कुछ सीखते हुए सफलता की ओर कदम बढ़ता है। इस कहावत को मैंने तो जन्म न दिया कि 'दूध का जला, छाछ फूंक कर पीता है'। दूध का जला अतीत है, उसको पता चल गया कि दूध गर्म होगा तो मुँह फिर जलेगा। ये वाला अतीत उसका अनुभव हो गया, उसके लिए भविष्य में काम आ रहा है। अतीत में जो हुआ वो अनुभव ही होता, बस उससे कुछ सीखने की जरूरत है। जैसे कि हम जब एक बार पत्थर से ठोकर खाकर गिरते हैं तो दूसरी बार ध्यान से चलते हुए आगे बढ़ते है, हमें पता है कि जब हम गिरे थे तो वह

जिन्दादिली

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रोते हुए चेहरे बिकते नहीं दुनिया के बाज़ार में क्योंकि जिन्दादिली जीने का नाम है हो सके तो बचाओ दमन अपना बदनामी की आंच से चूंकि यहां बद से बुरा बदनाम है सोचो मत, मंजिल की तरफ बढ़ो चढ़ते की टांग खींचना तो, यहां लोगों का काम है हर कोई अपने घर में राजा किसी के पास अल्लाह, तो किसी के पास राम है

नई दुनिया में कुलवंत हैप्पी

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नई दुनिया में कुलवंत हैप्पी   टीम वर्क मीन्स मोर वी एंड लैस मी

रक्तरंजित लोकतंत्र मेरे देश का।

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बहुत छेद हैं तन पे, मन पे टुकड़ों में बिखरा कराह रहा है रक्तरंजित लोकतंत्र मेरे देश का। आओ युवाओं तुम्हें बुला रहा है। बे-आबरू हुई औरतों सा बे-लिबास है उदास है अपनी बेबसी पे अश्क बहा रहा है। रक्तरंजित लोकतंत्र मेरे देश का। आओ युवाओं तुम्हें बुला रहा है। देख रहा है रास्ता, कोई आए, ढके मेरे तन को लिए मन में चाह रक्तरंजित लोकतंत्र मेरे देश का। आओ युवाओं तुम्हें बुला रहा है। मत बनो पितामा युवाओ सच देखो, आगे आओ सोया अंदर युवा जगाओ  ऊँची उँची आवाज लगा रहा है रक्तरंजित लोकतंत्र मेरे देश का आओ युवाओं तुम्हें बुला रहा है।

टीम वर्क मीन्स मोर वी एंड लैस मी

आज बात करते हैं एक और चोरी की, जो मैंने एक इंदौर के टीआई स्थित गिफ्ट शॉप में से की। बात है उस दिन की, जब मैं और मेरी छमक छल्लो घूमने के लिए घर से निकले और चलते चलते स्थानीय टीआई पहुंच गए, टीआई मतलब इंदौर का सबसे बड़ा मॉल। मेरी छमक छल्लो की नजर वहां एक गिफ्ट शॉप पर पड़ी, मेरी चोरी करने की कोई मंशा नहीं थी और नाहीं कोई गिफ्ट शिफ्ट खरीदने की, बस उसके साथ ऐसे ही चल दिया। जैसे हम दुकान के अंदर गए तो वहां पर बहुत सारे सुन्दर सुन्दर गिफ्ट पड़े हुए थे, जिनको देखकर हर इंसान की आंखें भ्रमित हो जाती और दिल ललचा जाता है। मैं भी अन्य लोगों की तरह हर गिफ्ट को बड़ी गंभीरता से देख रहा था परंतु इसी दौरान मेरी नज़र एक बड़े कॉफी पीने वाले कप पर गई, मैंने उस कप को नहीं चुराया बल्कि उसके ऊपर लिखी एक पंक्ति को चुरा लिया। वो पंक्ति 'टीम वर्क मीन्स मोर वी एंड लैस मी' ये थी। दुकान में गिफ्ट देख रही मेरी छमक छल्लो को मैंने पास बुलाया और कहा कि इस पंक्ति को पढ़कर सुनना, उसने पढ़ा और मुस्करा दिया क्योंकि वह जानती है कि मैं जानबुझकर उसको इस तरह के अच्छे संदेशवाहक वाक्य को पढ़ने को कहता हूं। दरअसल, मैंने भी जानब

दोषी कौन औरत या मर्द?

जब श्री राम ने सीता मैया को धोबी के कहने पर घर से बाहर निकल दिया, तब सीता रूप में चुप थी औरत। जब जीसस को प्रभु मान लिया गया, और मरियम को कुछ ईसाईयों ने पूजने लायक न समझा, तब मरियम रूप में चुप थी औरत। मुस्लिम समुदाय ने औरतों को पर्दे में रहने का हुक्म दे दिया, तब मुलिस्म महिला के रूप में चुप थी औरत। बस औरत का इतना ही कसूर है। अगर वो तब सहन न करती तो आज कोई विवाद न होता, और आजादी की बात न आती। कल एक महोदय का लेख पढ़ा, जिसमें लिखा था कि महिलाओं का कम कपड़े पहनकर निकलना छेड़खानी को आमंत्रित करना है । जैसे ही लेख पढ़ा दिमाग खराब हो उठा। समझ नहीं आया कि आखिर लिखने वाला किस युग का युवा है। एक ही पल में औरत पर पाबंदी लगा रहा है, जैसे आज भी औरत इसकी दासी हो। ऐसे लोग हमेशा सिक्के का एक पहलू देखते हैं, और शुरू कर देते हैं सलाह देना। बड़े बड़े कुछेक साधू संत महात्माओं ने अपने निकट महिलाओं को नहीं आने दिया, इसका मतलब ये मत समझो कि वो महान थे। इसलिए उन्होंने ऐसा किया, बल्कि सत्य तो ये है कि वो औरत का सामना कर ही न सकते थे, औरत को देखते ही उनका मन कहीं डोल न जाए, इसलिए वो औरत से दूर रहते थे। सन्यासी जं

क्या हो पाएगा मेरा देश साक्षर ऐसे में?

हिन्दुस्तान में गाँवों को देश की रूह कहा जाता है, लेकिन उस रूह की तरफ कोई देखने के लिए तैयार नहीं। देश की उस रूह में रहने वाले किसान सरकार की अनदेखियों का शिकार होकर आत्महत्याएं कर रहे हैं और बच्चे अपने अधूरे ख्वाबों के साथ अपनी जिन्दगी का सफर खत्म कर देते हैं। देश के पूर्व राष्ट्रपति श्री कलाम 2020 तक सुनहरे भारत का सपना देखते हैं, वैसे ही जैसे कि 1986 के बाद से क्रिकेट प्रेमी विश्वकप जीतने का सपना देख रहे हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि भारत विश्व के नक्शे पर अपनी अनोखी पहचान बना रहा है, इसमें शक भी कैसा? चीन के बाद जनसंख्या में भारत का नाम ही आता है। जहां जनसंख्या होगी, वहां बाजार तो होगा ही और कोई बनिया अपने ग्राहक को बुरा भलां कैसे कहेगा? श्री सिंह जी विश्व के नक्शे से नजर हटाते हुए आप भारत के नक्शे पर नजर डालिए, उस नक्शे के भीतर जाते हुए देश की रूह पर नजर दौड़ाईए, जहां देश के लिए अनाज पैदा करने वाला व्यक्ति एक वक्त भूखा सोता है। जहां पर बच्चों में प्रतिभाएं तो हैं, लेकिन उनको निखारने के लिए सुविधाएं नहीं। जहां गरीबी का अजगर उनके सपनों को आए दिन निगल जाता है। क

पंजाबी है जुबाँ मेरी, शेयर-ओ-शायरी

पंजाबी है जुबाँ मेरी, शेयर-ओ-शायरी (1) पंजाबी है जुबाँ मेरी, लेकिन हिन्दी भी बोलता हूँ। बनाता हूँ शरबत-ए-काव्य जब ऊर्दू की शक्कर घोलता हूँ॥ (2) मैं वो बीच समुद्र एक तूफाँ ढूँढता हूँ। हूँ जन्मजात पागल तभी इंसाँ ढूँढता हूँ॥ (3) गूँगा, बहरा व अन्धा है कानून मेरे देश का। फिर भी चाहिए इंसाफ देख जुनून मेरे देश का। (4) खिलते हुए गुलाबों से प्यार है तुमको काँटों से भरी जिन्दगी में तुम आकर क्या करोगी। देता नहीं जमाना तुमको आजादी जब फिर इन आँखों में सुनहरे ख्वाब सजा क्या करोगी।

'हैप्पी अभिनंदन' में समीर लाल "समीर"

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जिस शख्सियत से आप आज रूबरू होने जा रहे हैं, वो शख्सियत उन लोगों के लिए किसी प्रेरणास्रोत से कम न होगी, जो लकीर के फकीर हुए फिरते हैं। भगवान ने हर व्यक्ति को किसी न किसी कला से नवाजा है, लेकिन लकीर के फकीर हुए लोग उस हुनर एवं कला को बाहर निकालने के चक्कर में जिन्दगी का असली स्वाद खो बैठते हैं। दुनिया में हमेशा ही दो तरह के लोग पाए जाते हैं, एक तो जिनकी बात मैंने ऊपर की, और दूसरे समीर लाल 'समीर' जैसे, जो शौक के कारण अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी बर्बाद नहीं करते, और रोजमर्रा की जिन्दगी को पटड़ी पर लाने के बाद शौक को नया आयाम देते हैं। आपको यकीन न हो शायद कि अपनी लेखनी के कारण तरकश सम्मान 2006, बेस्ट इंडिकाब्लॉग (हिन्दी) 2006, वाशिंगटन हिन्दी समिति की ओर साहित्य गौरव, शिवना सारस्वत सम्मान, पुरस्कार ब्लॉग ऑफ दी मन्थ फाऊंडेशन नवम्बर 2009, ताऊ डॉट कॉम के पहेली पुरस्कार एवं युवा सोच युवा खयालात द्वारा  स्थापित वर्ष 2009 हरमन प्यारा ब्लॉगर पुरस्कार पा चुके समीर लाल 'समीर' असल जिन्दगी में भारत से चार्टड एकाउन्टेन्ट, अमरीका से सी एम ए (CMA), अमरीका से प्रोजेक्ट मैनेजमेन्ट प्रोफेशनल

सर्वोत्तम ब्लॉगर्स 2009 पुरस्कार

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लाजमी है कि आज ज्यादातर दीवारों से पुराने कलेंडरों की जगह नए कलेंडर आ गए होंगे। मोबाइल, कम्प्यूटर में तो कलेंडर बदलने की जरूरत ही नहीं पड़ती वहां तो आटोमैटिक ही बदल जाता है। साल बदलने के साथ ही कलेंडर बदल जाता है, लेकिन शायद कुछ लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी नहीं बदलती, जैसे कि आज मैंने देखा कि ऑफिस में कुछ लोग पहले की तरह ही कीबोर्ड के बटनों को अपनी ऊंगलियों से दबा रहे थे, उनमें नया कुछ न था। इसके अलावा रोड़ किनारे लगी फल, सब्जी एवं अन्य वस्तुओं की लारियों पर खड़े विक्रेता पहले जैसे ही थे, उनमें मुझे तो कोई बदलाव नजर नहीं आया। मुझे लगता है कि हमें याद रहता है कि नया साल आएगा, और कुछ नया लाएगा, लेकिन हम भूल जाते हैं कि 365 दिनों को मिलाकर एक साल बनता है, जो एक दिन के बिना असम्भव है। जैसे कि हम किसी मंजिल तक पहुंचने के लिए एक साथ हजारों कदम नहीं उठाते, बस केवल एक कदम उठाते हैं, कदम दर कदम उठाते जाते हैं और पहुंचते हैं मंजिल के पास। मुझे लगता है कि नए साल की समय सीमा किसी ने सोच विचार कर बनाई होगी, ताकि हम इतने दिन गुजरने के बाद सोच सकें कि आखिर हमने इतने दिनों में आखिर क्या खो दिया और क