माँ


ईश्वर नहीं देखा और देखने की इच्छा भी न रही, माँ देखने बाद। सच में अगर किसी ने गौर से माँ को देखा हो, वो ताउम्र किसी भगवान के इंतजार में बर्बाद नहीं करता। अफसोस है कि ईश्वर के चक्कर में मनुष्य माँ को याद नहीं करता। जहां भी माँ शब्द आ गया, कसम खुद की, खुदा की नहीं, जो देखा नहीं उसकी कसम खाना बेफजूला लगता है मुझे, वो हर पंक्ति अमर हो गई। माँ के बारे में मशहूर शायर मनुव्वर राणा कुछ इस तरह लिखते हैं।

इस तरह मेरे गुनाहों को
वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है
तो रो देती है।

घेर लेने को मुझे जब भी बलाएँ आ गयीं
ढाल बनकर सामने माँ की दुआएँ आ गयीं

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है

मैंने कल शब "रात" चाहतों की सब किताबें फाड़ दी
सिर्फ इक कागज पर लिक्खा लफ्ज-ए-मां रहने दिया।

मुझे माँ शब्द से इतना प्यार है कि कुछ महीने पहले मैं एक किताबों की दुकान पर गया कुछ किताबों पर सरसरी निगाह मारने के लिए, लेकिन नजर दौड़ाते मेरी नजर पुरानी सी बारिश के कारण शायद नमी लगने से खराब हो चुकी एक किताब पर पड़ी, जो कई किताबों के तले दबी हुई थी, जिसका नाम एक शब्द में था वो शब्द था माँ, जो मुझे सबसे प्यारा है। आजकल तो मेरा स्नानघर में मंत्र जाप भी माँ शब्द है। इस किताब को मैंने उस वक्त सिर्फ इस लिए खरीद लिया क्योंकि इस पर माँ लिखा हुआ था। मगर जब घर जाकर मैं इसके विस्तार में उतारा तो असल में ही रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की ने मेरी साक्षात्कार एक माँ से करवा दी। इस माँ में मुझे बस माँ ही नजर आई, और कुछ नहीं। वो माँ जो बेटे का दर्द देखते ही तिलमिला उठती है, वो माँ देखी, जिसका बेटे को अच्छाई के रास्ते पर चलते देख गर्व से सीना फूल उठता है। वो माँ देखी, जो अपने बेटे के लिए हर बला अपने सर लेने के लिए तत्पर्य है, जैसे कि ऊपर मनुव्वर राणा ने एक शेयर में अर्ज किया है। इतनी गुजारिश आपसे तुम मंदिर न जाओ भले, तुम मस्जिद और गिरजाघर न जाओ भले, बस दिन में एक बार ही सही माँ को प्रेम से देख लिया करो।

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