मेरे सपनों में नहीं आते गांधी

कुछ दिन पहले एक ब्लॉग पढ़ रहा था, मैं ब्लॉगर के लेखन की बेहद तारीफ करता हूं क्योंकि असल में ही उसने एक शानदार लेख लिखा। मैं उस हर लेख की प्रशंसा करता हूं जो मुझे लिखने के लिए उत्साहित करता है या मेरे जेहन में कुछ सवाल छोड़ जाता है। लेखक के सपने में गांधीजी आते हैं, सत्य तो ये है कि आजकल गांधी जी तो बहुत से लोगों के सपनों में आ रहे हैं, बस मुझे छोड़कर। शुरू से अंत तक गांधी जी मुस्कराते रहते हैं और लेखक खीझकर मुंह मोड़कर बैठ जाता है। जब अब युवा गुस्से होकर मुड़कर बैठ गया तो गांधी जी बोलना शुरू ही करते हैं कि उसका सपना टूटता है और लेख समाप्त हो जाता है। आखिर में लेखक पूछता है कि आखिर गांधी जी क्या कहना चाहते थे? मुझे लगता है कि इस देश को देखने के बाद गांधीजी के पास कहने को कुछ बचा ही नहीं होगा।

हर सरकारी दफतर में तस्वीर रूप में, हरेक जेब में नोट रूप में, हर शहर में गली या मूर्ति के रूप में महात्मा गांधी मिल जाएंगे। इतना ही नहीं, पूरे विश्व में अहिंसा दिवस के रूप में फैल चुके हैं गांधी जी, कितना बड़ा आकार हो गया गांधी जी। कितनी खुशी की बात है कि कितना फैल गए हैं भारत के राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी, लेकिन कितनी शर्म की बात है कि अहिंसा का कोई नामोनिशान नहीं मिल रहा। जिसके लिए महात्मा गांधी को याद किया जाता है, उनका आदर सम्मान से नाम लिया जाता है।

जब चीन भारत को निगलने की बात करता है, जब पाकिस्तान अपने वायदों से मुकरता है, तो शायद हर भारतीय कह उठता है कि कुचल डालो चीनी एवं पाकिस्तान के नाग इस फन को। तब हर भारतीय क्यों नहीं कहता कि शांति रखो, धैर्य रखो, हमारा राष्ट्रपिता अहिंसावादी था। हम हिंसावादी कैसे हो सकते हैं? हमको तो अहिंसा के पथ पर चलना चाहिए। एक थप्पड़ पड़े तो दूसरा करना चाहिए। गांधी जी ने तो पूरा देश लाठी और चरखे से आजाद करवा दिया था, लेकिन कितनी शर्म की बात है कि उस आजादी को कायम रखने के लिए इस साल आर्थिक तंगी के बावजूद रक्षा खर्च अप्रत्याशित तौर पर 34.4 प्रतिशत बढ़ाकर 1,41,703 करोड़ रुपये कर दिया है।

शायद गांधीजी उस लेखक के लेख में इस लिए मुस्करा रहे थे कि उनको अपने बेटों पर नाज नहीं शर्म आ रही थी, उन बेटों पर जो अपने राष्ट्रपिता को स्वदेशी लिबासों में देखकर गर्व से सिर ऊंचा करते हैं, लेकिन उसी बापू के लिए वो एक विदेशी पुरस्कार की लालसा रखते हैं। जिसने अंग्रेजों को दौड़ाने के लिए स्वदेशी वस्तुओं को स्वीकार लिया था, उसके लिए के एक विदेशी पुरस्कार चाहिए। है ना कितनी शर्म की बात।

कभी कभी सोचता हूं कि गांधी जी का नाम विदेशी पुरस्कार के लिए पांच बार को भेजा गया, और स्वदेशी वस्तुओं से प्यार करने वाले हमारे महात्मा जी ने भेजने वाले को रोका भी नहीं।

क्यों?
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टिप्पणियाँ

  1. मैं ऐसे ही सज्‍जन की तलाश में रहा हूं सदा
    जिनके सपनों में गांधी जी न आए हों और न आने की आशा हो
    क्‍योंकि वे अपने खुद के सपनों में क्‍यों आयेंगे
    अब पता लगा कि सच्‍चे गांधी तो आप ही कहलाये जायेंगे।

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  2. बेनामी10/18/2009 3:52 pm

    सारगर्भित विचारोत्तेजक लेख

    बी एस पाबला

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  3. बहुत ही उत्तम आलेख !
    आपके क्यों का ज़वाब यही है कि, गाँधी का नाम वह सिक्का है, जो हर जगह चल जाता है ।
    यह खरे और खोटे दोनों को समान भाव से देखता है । बकरे को हलाल करते समय कलमा पढ़ते हैं, जनता को हलाल करने के लिये गाँधी का नाम ही काफ़ी है ।
    आर यू हैप्पी नाऊ, कुलवँत जी ?

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  4. सोचने को मजबूर करता विचारोतेजक लेख

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  5. मै सोच रहा हूँ गान्धीजी के सपनों मे क्या आता होगा ?

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  6. एक बच्चे से गांधी की प्रासंगिकता पर निबंध लिखने को कहा गया...बच्चे ने लिखा...गांधी जी का इतना महत्व है कि हर साल दो अक्टूबर और 30 जनवरी को टीवी पर उनकी समाधि टीवी पर देखने को मिलती है...और शायद बच्चे का गांधी जी को लेकर लिखा ये वाक्य ही आज का सबसे ब़ड़ा सच है...

    जय हिंद...

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  7. बहुत कुछ सोचने पर पजबूर करता है ये आलेख और तुम्हारी युवा सोच शुभकामनायें।

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  8. सचमुच विचार करने योग्‍य आलेख !!

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