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अक्तूबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

लंडन ड्रीम्स- द बेस्ट मूवीज

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विपुल अमृतलाल शाह मेरी उम्मीदों पर खरा उतरा, बाकी का तो पता नहीं, बेशक हाल में तालियों की गूंज सुनाई दे रही थी और ठहाकों की भी। आँखें, वक्त, नमस्ते लंडन, सिंह इज किंग के बाद विपुल शाह की लंडन ड्रीम्स को भी शानदार फिल्मों की सूची में शुमार होने से कोई नहीं रोक सकता, खासकर मेरी मनपसंद शानदार फिल्मों की सूची से। सिंह इज किंग भले ही अनीस बज्मी ने निर्देशित की हो, लेकिन विपुल शाह का योगदान भी उसमें कम नहीं था, क्योंकि एक अच्छा निर्माता एक निर्देशक को अपने ढंग से काम करने के लिए अवसर देता है। लंडन ड्रीम्स शुरू होती है अजय देवगन (अर्जुन) से, जो संघर्ष कर सफलता की शिखर पर है, लेकिन वो अपने सपनों के लिए अपनों को खोने से भी भय नहीं खाता। वो बचपन से माईकल जैक्सन बनना चाहता है, लेकिन उसके पिता को गीत संगीत से नफरत है। वो भगवान से दुआ करता है कि उसके रास्ते की सब रुकावटें दूर हो जाएं। अचानक उसके पिता की मौत हो जाती है और उसका चाचा ओमपुरी उसको लंडन ले जाता है, जो उसका ख्वाब है। वो एयरपोर्ट से ही अपने चाचा का साथ छोड़कर सपनों को पूरा करने के लिए निकल पड़ता है। संघर्ष करते करते वो अपने सपने की तरफ अग्रस

गुरदास मान वो दीया है जो तूफानों में....

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दूसरा माइकल जैक्सन, दूसरा अमिताभ बच्चन, दूसरा सचिन तेंदुलकर जैसे मिलना मुश्किल है, वैसे ही पंजाबी संगीतप्रेमियों को दूसरा गुरदास मान मिलना मुश्किल है। मुश्किल ही नहीं मुझे तो नामुमकिन लगता है। आने वाली 4 जनवरी 2010 को गुरदास मान 53 वर्ष के हो जाएंगे, लेकिन उनकी स्टेज पर्फामेंस (लाईव शो) आज भी युवा गुरदास मान जैसी है। वर्ष 1980 को पंजाबी संगीत जगत में कदम रखने वाले गुरदास मान ने पिछले तीन दशकों में पंजाबी संगीत को इतना कुछ दिया है, जिसकी कल्पना कर पाना भी मुश्किल है। गीतों में खुद को 'मरजाना मान' कहने वाले गुरदास मान ने अपनी आवाज और अपने लिखे हुए गीतों की बदौलत पंजाबी संगीत में वो रुतबा हासिल कर लिया है जो यमले जट्ट ने हासिल किया था। जट्ट यमला की तूंबी की तरह गुरदास की डफली भी संगीत में अपनी अनूठी छाप छोड़ चुकी है। उसके गाए हुए गीत लोकगीत बनते जा रहे हैं, यमले जट्ट के गाए गीतों की तरह। इन तीन दशकों में पता ही नहीं कितने गायक आएं और चले गए, मगर गुरदास मान समय के साथ साथ सफलता की शिखर की तरफ बढ़ता चला गया। इन दशकों में ड्यूट का आंधी आई, पॉप की आंधी आई, फिर ड्यूट की आंधी, लेकिन गुर

बे-लिबास बेबो, बुरे वक्त की निशानी

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"पैसा मारो मुंह पर, कुछ भी करूंगा" यह संवाद अरुण बख्सी छोटे पर्दे पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक 'जुगनी चली जलंधर' में बोलते हैं, ये वो ही अरुण बख्सी हैं जो कभी 'अजनबी' नाम के एक हिन्दी धारावाहिक में "बोल मिट्टी दे बावेया" गुनगुनाते हुए नजर आते थे। उस संवाद में भी एक खरा सत्य था और इस नए संवाद में भी बहुत सत्य है। किसी दूसरे पर यह संवाद फिट बैठे न बैठे, लेकिन कपूर खानदान की बेटी करीना कपूर पर तो बिल्कुल सही बैठता है। यकीनन न आता हो तो पिछले कुछ सालों पर निगाह मारो। शाहरुख के साथ डॉन में फिल्माया गया गीत हो, या अजनबी में अक्षय कुमार के साथ फिल्माए कुछ दृश्य। यशराज बैनर्स की सुपर फ्लॉप फिल्म टश्न में बिकनी पहनकर सबको हैरत में डाल देने वाली करीना ने इस पर आलोचना होते देख कहा था कि अब को बिकनी नहीं पहनेगी। देखो वादे की कितनी पक्की हैं, बिल्कुल सही, उन्होंने बिकनी पहनना भी छोड़ दिया। अब तो वो टॉपलेस हो गई हैं। कमबख्त इश्क में अक्षय के साथ कई किस सीनों से जब मन नहीं भरा तो कुर्बान में सैफ अली खान के साथ सब से लम्बा किस और फिल्म की चर्चा के लिए टॉपलेस

क्या है राहुल गांधी का उपनाम?

सुबह उठा तो सिर भारी भारी था, जैसे किसी ने सिर पर पत्थर रख दिया हो। सोचते सोचते रात को सो जाना भी कोई सिर पर रखे पत्थर से कम नहीं होता। रात ये सोचते सोचते सो गया क्यों न राहुल गांधी को खत लिखा जाए कि मैं कांग्रेस में शामिल होना चाहता हूं, मैं राजनीति में नहीं जननीति में आना चाहता हूं और मैं राजनेता नहीं जननेता बनना चाहता हूं। आती 27 तिथि को मैं 26 का हो जाऊंगा, इतने सालों में मैंने क्या किया कुछ नहीं, अब आने वाले सालों में कुछ करना चाहता हूं। ये सोचते सोचते सो गया या जागता रहा कुछ पता नहीं। सुबह उठा तो सिर भारी भारी था जैसे कि शुरूआत में बता चुका हूं। मैंने कम्प्यूटर के टेबल से पानी वाली मोटर की चाबी उठाई और मोटर छोड़ने के लिए नीचे चल गया, वहां पहुंचा तो दैनिक भास्कर पड़ा हुआ था, मेरा नवभारतटाईम्स के बाद दूसरा प्रिय अखबार। मोटर छोड़ने से पहले अखबार उठाया। मुझे खबरें पढ़ने का बिल्कुल शौक नहीं, इसलिए सीधा अखबार के उस पन्ने पर पहुंच जाता हूं, जहां बड़े बड़े लेखक अपनी कलम घसीटते हैं। आज जैसे ही वहां पहुंचा तो देखा कि रात को जो मन में सवाल उठ रहा था, उसका उत्तर तो यहां वेद प्रताप वैदिक ने लिख डाल

आखिर ये देश है किसका

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1. दूर है मंजिल, और नाजुक हालात हैं हम भी चल रहें ऐसे ही दिन रात हैं फिर आने का वायदा कर सब चले गए न भगत सिंह आया, न श्रीकृष्ण बस इंतजार में हम रेत बन ढले गए जहर का प्याला लबों तक आने दो और मुझे फिर से सुकरात होने दो झूठ का अंधेरा अगर डाल डाल तो रोशनी बन मुझे पात पात होने दो 2. कैसे हो..घर परिवार कैसा है तुम्हारा यार वो प्यार कैसा है भाई बहन की पढ़ाई कैसी है मां बाप की चिंता तन्हाई कैसी है तुम्हारा ऑफिस में काम कैसा चल रहा है ये जीवन तुम्हारा किस सांचे में ढल रहा है 3. महाभारत में पांडवों की अगुवाई करने वाले कृष्णा का या यौवन में हँस हँसकर फांसी चढ़ने वाले भगत का या फिर लाठी ले निकलने वाले महात्मा गांधी का आखिर ये देश है किसका श्री कृष्णा का लगता नहीं ये देश क्योंकि दुश्मन पर वार करने से कतराता है जैसे देख बिल्ली कबूतर आंखें बंद कर जाता है भगत सिंह का भी ये देश नहीं वो क्रांति का सूर्य था, यहां तो अक्रांति की लम्बी रात है ये देश गांधी का भी नहीं बाबरी हो, या 1984 लाशें ही लाशें बिखरी जमीं पर आती हैं नजर आखिर ये देश है किसका

वो क्या जाने

सोचते हैं दोस्त जिन्दगी में, बड़ा कुछ पा लिया मैंने। वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ मशीनों में रहकर, आखिर मशीन सा हो गया हूं। मां बाप के होते भी एक यतीम सा हो गया हूं।। बचपन की तरह ये यौवन भी यूं ही बिता लिया मैंने। वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ खेतों की फसलों से खेलकर अब वो हवा नहीं आती। सूर्य किरण घुसकर कमरे में अब मुझे नहीं जगाती॥ मुर्गे की न-मौजूदगी में सिरहाने अलार्म लगा लिया मैंने वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥ छूट गई यारों की महफिलें, और वो बुजुर्गों की बातें कच्ची राहों पे सायों के साथ चलना, वो चांदनी रातें बंद कमरों में कैद अंधेरों की अब हमराही बना लिया मैंने वो क्या जाने इस दौड़ में कितना कुछ गंवा लिया मैंने॥

मेरे सपनों में नहीं आते गांधी

कुछ दिन पहले एक ब्लॉग पढ़ रहा था, मैं ब्लॉगर के लेखन की बेहद तारीफ करता हूं क्योंकि असल में ही उसने एक शानदार लेख लिखा। मैं उस हर लेख की प्रशंसा करता हूं जो मुझे लिखने के लिए उत्साहित करता है या मेरे जेहन में कुछ सवाल छोड़ जाता है। लेखक के सपने में गांधीजी आते हैं, सत्य तो ये है कि आजकल गांधी जी तो बहुत से लोगों के सपनों में आ रहे हैं, बस मुझे छोड़कर। शुरू से अंत तक गांधी जी मुस्कराते रहते हैं और लेखक खीझकर मुंह मोड़कर बैठ जाता है। जब अब युवा गुस्से होकर मुड़कर बैठ गया तो गांधी जी बोलना शुरू ही करते हैं कि उसका सपना टूटता है और लेख समाप्त हो जाता है। आखिर में लेखक पूछता है कि आखिर गांधी जी क्या कहना चाहते थे? मुझे लगता है कि इस देश को देखने के बाद गांधीजी के पास कहने को कुछ बचा ही नहीं होगा। हर सरकारी दफतर में तस्वीर रूप में, हरेक जेब में नोट रूप में, हर शहर में गली या मूर्ति के रूप में महात्मा गांधी मिल जाएंगे। इतना ही नहीं, पूरे विश्व में अहिंसा दिवस के रूप में फैल चुके हैं गांधी जी, कितना बड़ा आकार हो गया गांधी जी। कितनी खुशी की बात है कि कितना फैल गए हैं भारत के राष्ट्रपिता मोहनदास कर्

दीवाली की शुभकामनाएं

काव्य रूप में कुछ सुलगते सवाल

नाक तेरी तरह थी, लेकिन ठोडी थोड़ी सी लम्बी, मेरी तरह..मैं सिनोग्राफी की बात कर रहा था। अगर ऐसा हुआ तो मैं उसको दबा दबा उसका चेहरा गोल कर दूंगी..पत्नी बोली। फिर मैं चुप हो गया। उसको मुझे से दूर रखना, क्योंकि उसका पिता सनकी है, पागल है..कुछ देर के बाद मैं चुप्पी तोड़ते हुए बोला। मैं उसको उसके नाना के घर छोड़ आऊंगी..वहीं पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बन जाएगा..पत्नी थोड़े से रौ में आते हुई बोली। ठीक है तुम भी वहीं को जॉब बगैरा कर लेना, तुम बहुत समझदार हो..तुम को अब मेरी जरूरत नहीं। अब देश को मेरी जरूरत है, मैं चला जाऊंगा..अब मैं बोल रहा था। उसने बात काटते हुए कहा..कल क्यों अभी जाओ ना। मैंने कहा कि नहीं उसका चेहरा देखकर जाऊंगा। शायद मेरी ऊर्जा में इजाफा हो जाए। अब बातें खत्म हुई और मैं सो गया...मुझे नहीं पता कि मैं सोया या फिर रात भर जागता रहा। जब सुबह होश आई तो एक तरफ आलर्म बज रहा था और दूसरी तरह मेरे जेहन से कुछ शब्द निकलकर मेरी जुबां पर दौड़ रहे थे। मुझे लग रहा था कि मैं रात भर सोया नहीं और किसी ध्यान में था।..वो शब्द आपकी खिदमत में हाजिर हैं। आंखों में है समुद्र अगर, तो आंसू कोई ढलकता क्यों नहीं। भू

ओबामा को प्राईज नहीं, जिम्मा मिला

अमेरिका राष्ट्रपति बराक ओबामा उस समय हैरत में पड़ गए, जब नोबेल शांति पुरस्कार के लिए उनका नाम घोषित कर दिया गया। ज्यादातर लोग खुश होते हैं, जब उनको सम्मानित किया जाता है, लेकिन ओबामा परेशान थे। शायद उन्होंने सोचा नहीं था कि उनकी राह और मुश्किल हो जाएगी, उनके कंधों पर अमेरिका के अलावा विश्व में शांति कायम करने का जिम्मा भी आ जाएगा। अगर ओबामा को पहले पता चल जाता कि नोबेल शांति पुरस्कार देने के लिए उनके नाम पर विचार किया जा रहा है तो शायद विचार को वो उसी वक्त ही खत्म कर देते, और ये पुरस्कार हर बार की तरह किसी ऐसे व्यक्ति के हाथों में चला जाता, जो काम कर थक चुका था, जो आगे करने की इच्छा नहीं रखता। बस वो थका हुआ, इस पुरस्कार को लेकर खुशी खुशी इस दुनिया से चल बसता। मगर अबकी बार ऐसा कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि कमेटी ने पासा ही कुछ ऐसा फेंका है कि अब पुरस्कार की कीमत चुकानी होगी। अब वो करना होगा जो पुरस्कार की कसौटी पर खरा उतरता है। जब ओबामा को पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो हर जगह खलबली सी मच गई, इसको पुरस्कार क्यों दिया जा रहा है। आखिर इसने क्या किया है? ये कैसी पागलभांति है? लेकिन लोग क्यों

बाजारवाद में ढलता सदी का महानायक

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इसमें कोई शक नहीं कि रुपहले पर्दे पर अपने रौबदार एवं दमदार किरदारों के लिए हमेशा ही वाहवाही बटोरने वाला सदी का महानायक अमिताभ बच्चन अब बाजारवाद में ढलता जा रहा है, या कहूं वो पूरी तरह इसमें रमा चुका है। ऐसा लगता है कि या तो बाजार को अमिताभ की लत लग गई या फिर अमिताभ को बाजार की। एक समय था जब अमिताभ की जुबां से निकले हुए शब्द लोगों के दिल-ओ-दिमाग में सीधे उतर जाते थे, उस वक्त के उतरे हुए शब्द आज भी उनकी जुबां पर बिल्कुल पहले की तरह तारोताजा हैं। उस समय कि दी यंग एंग्री मैन की छवि को आज का बिग बी टक्कर नहीं दे सकता। सत्य तो ये है कि आज का बिग बी तो उसके सामने बिल्कुल बौना नजर आता है। सदी के इस महानायक का हाल एक शराबी जैसा हो गया है, जिसको देखकर कभी समझ नहीं आती कि शराब को वो पी रहा है या फिर शराब उसको पी रही है। आज बाजार अमिताभ को खा रहा है या अमिताभ बाजार को समझ नहीं आ रहा है, बस सिलसिला दिन प्रति दिन चल रहा है। असल बात तो यह है कि बीस तीस साल पुराना लम्बू और आज के बिग बी या अमिताभ बच्चन में बहुत बड़ा अंतर आ चुका है। जहां बीस तीस साल पहले लम्बू बड़े पर्दे पर गरीबों दबे कुचले लोगों की

शेयर-ओ-शायरी

आज ज्यादातर ब्लॉगरों के ब्लॉगों पर धर्म युद्ध चल रहा है। जिनको पढ़ने के बाद मन में कुछ शेयर उभरकर आए। जो आपकी नजर करने जा रहा हूं। वैसे उन ब्लॉगों पर भी छोड़ आया। मेरा धर्म बड़ा और तेरा छोटा, जब तक कमबख्त बहस चलती रहेगी। जलते रहेंगे मासूम परवाने, जब तक शमां नफरत की जलती रहेगी॥ धर्म के नाम पे तुम दुकानदारी यूं ही चलाते रहो। दंगे फसादों में इंसां को पुतलों की तरह यूं जलाते रहो॥

'XXX' से घातक है 'PPP'

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'ट्रिपल एक्स' ने देश के युवाओं को बिगाड़कर रख दिया, खासकर गांव वाले अशिक्षित वर्ग के युवाओं, जो भूल जाते हैं कि रियल और रील जिन्दगी में क्या फर्क है। उनको दोनों ही एक जैसी नजर आती हैं खासकर ट्रिपल एक्स रील और रियल लाईफ। मगर मेरे देश को बर्बाद करने में ट्रिपल एक्स से ज्यादा योगदान 'ट्रिपल पी' का है, जिस दिन इस ट्रिपल पी में सुधार हो गया, उस दिन देश अन्य देशों के लिए प्रेरणास्रोत बनकर उभरेगा। आप सोच रहें होंगे कि ट्रिपल एक्स तो समझ में आ रहा है, लेकिन ये मूर्ख ट्रिपल पी कहां से लेकर आए। मगर सच कहता हूं ट्रिपल एक्स में तो नहीं ट्रिपल पी में तो मैं भी आता हूं और आप भी। हां, अगर आप ट्रिपल एक्स का पूरा नाम ढूंढने जाओगे तो नहीं मिलेगा, मगर मेरे ट्रिपल पी का पूरा नाम है पुलिस पब्लिक और प्रेस। जिस दिन इन तीनों ने अपनी जिम्मेदारियां ईमानदारी से निभानी शुरू कर दी, उस दिन भारत को बदलने से कोई नहीं रोक सकेगा, भारत का ही नहीं हर देश का भविष्य ट्रिपल पी पर ही टिका है। जनसेवा के लिए बनी पुलिस अगर असल में ही जनसेवा करने लगे, और जनता की आवाज बुलंद करने के लिए बनी प्रेस उसकी आवाज क

तब तक पैदा होंगे जिन्ना

कोई माने या ना माने, लेकिन मेरा तो यही माना है कि किसी को जिन्ना करार देने में और खुद को गांधी कहने में केवल दो मिनट लगते हैं। अगर यकीन न आता हो तो बाल ठाकरे का वो लेख देखा जा सकता है जो पिछले दिनों सामना में प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने अपने ही भतीजे को जिन्ना का नाम दे दिया। इस लेख के प्रकाशित होने के बाद राज ठाकरे एक बार फिर से चर्चा में आ गया, वो कहां कम था, उसने भी पोल खोल दी कि संपादकीय कौन लिखता है सब जानते हैं। लेकिन राज ठाकरे को जिन्ना कहकर खुद को गांधी साबित करना कहां तक ठीक है। शायद 6वीं कक्षा तक पढ़ाई करने के बाद रंगों की दुनिया में रहने वाले बाल ठाकरे भूल गए कि उन्होंने भी जवानी के जोश में वो ही किया था, जो आज राज ठाकरे कर रहा है, वो कार्टूनों का सहारा नहीं ले रहा, ये बात दूसरी है। जिन कार्टूनों से बाल ठाकरे अपना घर चलाते थे, अब उन्होंने उन्हीं कार्टूनों से एक राजनेता बनने की तरफ कदम बढ़ा लिया, अपने हुनर को हथियार बना लिया। जिस मुम्बई के स्कूल ने उनको फीस न भरने के चलते निकाल दिया था, उन्होंने जवानी पार करते करते उस मुम्बई पर अपनी पकड़ बना ली। एक कार्टूनिस्ट शिव सेना के गठ

पंजाबी जानने वालों के लिए धमाका न्यूज

मैं पंजाब का रहने वाला हूं और पंजाबी माँ बोली को कैसे भूल सकता हूं। इस लिए मैंने बहुत पहले ब्लॉग तो शुरू कर लिया था,लेकिन सरगर्म अब हुआ हूं। मैंने उस पर ऑनलाइन नावल पंजाबी में इश्क दे वरके भाव इश्क के पन्ने शुरू किया है। पढ़ने के लिए एक बार जरूर आओ। अच्छा लगे तो टिप्पणी छोड़ जाना, बुरा लगे तो वो भी लिख जाना। मुझे दोनों चीजें पसंद हैं।