आखिर हट गई सोच से रोक


गुजरात हाईकोर्ट ने जो फैसला जसवंत की किताब को लेकर सुनाया, वो बहुत सारे लेखकों के लिए एक खुशी की बात है, विशेषकर जसवंत सिंह के लिए। अगर गुजरात सरकार द्वारा लगाया गया प्रतिबंध न हटता तो हमको मिले अभिवक्ति के अधिकार का उल्लंघन होता। अपनी बात कहने का लोकतंत्र जब हमें मौका देता है तो उस पर रोक क्यों लगाई जाए? इतना ही नहीं गुजरात सरकार ने तो मूर्खतापूर्ण काम किया था, किताब को पढ़ने के बाद अगर प्रतिबंध लगता तो समझ में आता, लेकिन किताब को बिना पढ़े प्रतिबंध। आखिर कहां की समझदारी है? किताब रिलीज हुई, मीडिया ने बात का बतंगड़ बना दिया, उधर शिमला से हुक्म जारी होते ही इधर गुजरात सरकार ने किताब पर बैन लगा दिया गया वो भी बिना पढ़े।

जिन्होंने किताब पढ़ी सबने एक बात कही कि किताब में नया कुछ नहीं था, चाहे अरुण शौरी हो, या फिर हिन्दी में जिन्ना पर पहली किताब लिखने वाला श्री बरनवाल हो। प्रसिद्ध लेखक वेदप्रताप वैदिक तो यहां तक कहते हैं कि किताब में केवल पटेल का नाम सिर्फ छ: बार आया, और किसी भी जगह पटेल को नीचा नहीं दिखाया गया। जिस बात का रोना रोकर गुजरात सरकार ने किताब पर बैन लगाया था।

अरुण शौरी ने इंडियन एक्सप्रेस में स्वयंलिखित प्रकाशित एक लेख में लिखा था कि जब इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र ने गुजरात के गृह विभाग से बात की तो उन्होंने कहा कि हमने तो किताब पढ़ी ही नहीं, बस किताब पर बैन लगाया है। कितनी शर्म की बात है कि आप किसी किताब को बिना पढ़े प्रतिबंधित कर देते हो। किताब भी एक सोच है, जिस पर प्रतिबंधित लगाना अभिव्यक्ति अधिकार की अवहेलना है। जसवंत ने तो किताब में वो बातें ही लिखी हैं जो इससे पहले कई लेखकों ने अपनी पुस्तकों में लिखी हैं, ऐसा ही कहना है तमाम किताब पढ़ने वालों का।

लेकिन जिन्ना की किताब पर उठे बवाल के बाद जो कुछ अखबारों में पढ़ने को मिला, वो तो बहुत अद्भुत था, उन्होंने भी जिन्ना को सही करार दे दिया। जी हां, पिछले दिनों जब में दैनिक भास्कर में लिखे कुछ लेख पढ़ रहा था तो मुझे वहां एक सही जिन्ना दिखाई पड़ रहा था, अगर जिन्ना बुरा होता तो गोखले और सरोजनी नायडू जैसी महान हस्तियां जिन्ना को हिन्दु मुस्लिम नेता की संज्ञा न देती। आखिर समय में जिन्ना ने तो वो किया, जो महात्मा गांधी बहुत पहले कर चुके थे, जनभावना का नेता बनना। गांधी की तरह जिन्ना भी मुस्लिम जन भावना का नेता बन गया। और बना लिया अलग देश। लेकिन जो उसने पहले देश के लिए किया। उसको नजरंदाज करना भी तो गलत बात होगा।

सवाल तो ये है कि आखिर हिन्दु मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक नेता, एक भाईचारे का क्यों बन गया। आखिर उसने उदारवादी स्वाभाव में क्यों बदलाव किया। कुछ तो कारण रहें होंगे। फिल्मों में बहुत से नायक खलनायक वाला रास्ता चुन लेते हैं, लेकिन उनके पीछे कुछ तो वजह होती है न। वेश्यावृत्ति करने वाली महिलाएं भी शौक से हर किसी के साथ हमबिस्तर नहीं होती, कुछ तो मजबूरी होती है। ऐसा ही कुछ जिन्ना के साथ हुआ। इसमें कोई दो राय नहीं कि जिन्ना में कुछ तो था, जो आरएसएस की पैदायश एलके आडवानी, गैरसंघी भाजपा नेता को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुआ। तमाम सवाल हैं? जिनका उत्तर ढूंढने के लिए एक पक्षी सोच को बदलना होगा।

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