मन तो वो भी मैला करते थे

कल जब दो बातें एहसास की पर लोकेन्द्र विक्रम सिंह जी द्वारा लिखत काव्य ""कागज के जहाज अक्सर उछाला करतें हैं..."" पढ़ रहा था तो अचानक मेरे मन के आंगन में भाव्यों की कलियां खिलने लगी, जिनकी खुशबू मैं ब्लॉग जगत में बिखेरने जा रहा हूं।

धूप सेकने के बहाने, गर हम छत्त पे बैठा करते थे,
वो भी जान बुझकर यूं ही आंगन में टहला करते थे।
हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥

जब जाने अनजाने में नजरें मिला करती थी।
दिल में अहसास की कलियां खिला करती थी।।
बातों के लिए और कहां हुआ तब एयरटेला* करते थे।
हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥

जुबां काँपती, शरीर थर-थर्राता जब पास आते।
कुछ कहने की हिम्मत यारों तब कहां से लाते॥
पहले तो बस ऐसे ही हुआ मंजनू लैला करते थे।
हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥

गूंगी थी दोनों तरफ मोहब्बत फल न सकी।
मैं उसके और वो मेरे सांचों में ढल न सकी॥
पाक थे रिश्ते अफवाह बन हवा में न फैला करते थे।
हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही उम्दा अभिव्यक्ति । इस बेहतिन रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई..........

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  2. गूंगी थी दोनों तरफ मोहब्बत फल न सकी।
    मैं उसके और वो मेरे सांचों में ढल न सकी॥
    पाक थे रिश्ते अफवाह बन हवा में न फैला करते थे।
    हम ही नहीं जनाब, मन तो वो भी मैला करते थे॥



    bahut khoob janaab

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  3. वाह बहुत ही खुब ......कई बाते जो अतीत के गलियारे मे दफन हो गये थे आज गुदगुदा गयी ......बहुत बहुत शुक्रिया.....ऐसे ही लिखते रहे!

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  4. अरे वाह भय्या.......
    हम तो फीके पड़ गए.....
    बधाई......

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  5. बहुत खूब ......... तो आग दोनों तरफ लगी थी .... तब तो जलने का मजा ही कुछ और होगा....... सुन्दर रचना.....

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