वो निकलती थी...
वो निकला करती थी
पेड़ों की छाया में,
मैं भी मिला करता था
पेड़ों की छाया में,
अच्छा लगता था,
उसका बल खाकर चलना
पेड़ों की छाया में,
बुरा लगता था
विछड़ना और दिन डलना
पेड़ों की छाया में,
बहुत अच्छा लगता था,
खेतों, खलियानों को चीरते हुए मेरे गांव तलक उसका आना
पेड़ों की छाया में,
पहली मुलाकात सा लगता था,
कड़कती धूप में घर से निकलकर
उसके आगोश में जाना
पेड़ों की छाया में,
याद है मुझे आज भी
इस नहर में डुबकी लगाना
पेड़ों की छाया में,
पेड़ों की छाया में,
मैं भी मिला करता था
पेड़ों की छाया में,
अच्छा लगता था,
उसका बल खाकर चलना
पेड़ों की छाया में,
बुरा लगता था
विछड़ना और दिन डलना
पेड़ों की छाया में,
बहुत अच्छा लगता था,
खेतों, खलियानों को चीरते हुए मेरे गांव तलक उसका आना
पेड़ों की छाया में,
पहली मुलाकात सा लगता था,
कड़कती धूप में घर से निकलकर
उसके आगोश में जाना
पेड़ों की छाया में,
याद है मुझे आज भी
इस नहर में डुबकी लगाना
पेड़ों की छाया में,
कुलवन्त जी पेडों की छाया जैसी सुन्दर कविता के लिये बहुत बहुत बधाई । कुछ यादें हमेशा मन को सकून देती हैं आभार्
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति...पेड़ो की छाया में
जवाब देंहटाएंकविता भा गयी..पेड़ो की छाया में..
फिर बधाई भी हो जाए..पेड़ो की छाया में..
जमीन से जोड दिया आपने ........बहुत ही मनमोहक रचना......कई यादे जो जुडी है पेडो की छाया मे .........सुन्दर
जवाब देंहटाएंपेड की छाया सी ठंडक का अहसास .. बहुत बढिया !!
जवाब देंहटाएंलाजवाब करती रचना।
जवाब देंहटाएं{ Treasurer-S, T }
बहुत अच्छी रचना .. हैपी ब्लॉगिंग
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