न हिंदुस्तान बुरा, न पाकिस्तान बुरा

स्नानघर में सुबह जब नहाने के लिए गया, तो दिमाग में कुछ अजीब सी हलचल हुई। जब महसूस किया तो कुछ शब्द उभरकर जुबां पर आ गए। जिनको तुरंत मैंने आपके सामने परोसकर रख दिया। स्वादृष्टि होंगे या नहीं मैं नहीं जानता, लेकिन इन को प्रकट करने मन को सुकून सा मिल गया।

न हिंदुस्तान बुरा, न पाकिस्तान बुरा
यहां धर्म के ठेकेदार,
औ' वहां तालिबान बुरा
न यहां का, न वहां का
इंसान बुरा
बाबा नानक
यहां भी बसता
वहां भी बसता
नुसरत हो या रफी
यहां भी बजता है
वहां भी बजता है
इंसान वहां का भी
और यहां का भी
शांति चाहता है
नहीं मांगती किसी की आंखें तबाही-ए-मंजर
नहीं उठाना चाहता कोई हाथ में खूनी खंजर
कोई नहीं चाहता कि हो दिल-ए-जमीं बंजर
मिट्टी वहां भी वो ही है
मिट्टी यहां भी वो ही है
बांटी गई नहीं जमीं,
बस मां का जिगर लहू लहान हुआ है
तब जाकर एक हिंदुस्तान
और दूसरा पाकिस्तान हुआ है
तबाही यहां हो
चाहे वहां हो
दर्द तो बस एक मां को होता है
जो बट गई टुकड़ों में

टिप्पणियाँ

  1. आपकी रचना पढ़कर मुझे निदा फाजली साहब के शेर याद आ गए:

    इंसान में हैवान यहाँ भी है वहां भी
    अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहां भी

    हिन्दू भी मजे में हैं मुसलमां भी मजे में
    इंसान परेशां यहाँ भी है वहां भी

    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  2. न हिंदुस्तान बुरा, न पाकिस्तान बुरा
    यहां धर्म के ठेकेदार,
    औ' वहां तालिबान बुरा
    न यहां का, न वहां का
    इंसान बुरा...

    चलो अब मजहब कोई ऐसा बनाया जाये, जहाँ इंसान को सिर्फ इंसान बनाया जाये.

    आपकी कविता ने बहुत प्रभावित किया हमें. लिखते रहे.

    जवाब देंहटाएं

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