एक सोच पर प्रतिबंध कहां तक उचित ?

अब पाकिस्तान में घमासान मचने को तैयार है, क्योंकि इमरान खान की लिखी गई जीवनी में कुछ ऐसी बातें सामने आई हैं, जो भुट्टो परिवार को आहत कर सकती हैं। समझ नहीं आ रही कि हर कोई सच का सामना क्यों करना चाहता है, वो भी उस सच का जिसे किसी का भी घर उजड़ सकता है। हर कोई सुकरात बनने की फिराक में। पिछले सोमवार को रिलीज हुई जसवंत सिंह की किताब ने अपनी रिलीज के बाद ही राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी, अगर देखा जाए तो जसवंत सिंह ने उस कहावत को सच करने की कोशिश की है, जो हम सब आम सुनते हैं कि एक हाथ से ताली नहीं बजती। ये बिल्कुल सच है कि कभी भी एक हाथ से ताली नहीं बजती, और उस तत्थ को भी उन्होंने सही साबित करने की कोशिश की है कि अगर हम किसी दूसरे की तरफ एक उंगली उठाते हैं तो शायद तीन उंगुलियां हमारी तरफ होती हैं।

जसवंत सिंह ऐसा पहला शख्स नहीं जिसने जिन्ना के बारे में कुछ कहा हो, इससे पहले भाजपा के सीनियर नेता लालकृष्ण आडवानी भीं जिन्ना की वकालत कर चुके हैं। आडवानी ने तो अपने पद से त्याग पत्र देकर पार्टी को चुप करवा दिया था, लेकिन जसवंत सिंह की बारी तो पार्टी के कायदे कानून ही बदल गए। जिन्ना को लेकर बवाल उस वक्त भी उठा था और आज भी उठा है। जिन्ना को लेकर भाजपा में बिखराव हुआ है, जब ये बात भी कबरों में आराम फरमान रहे जिन्ना तक पहुंचेगी तो वो भी सोच में पड़ जाएंगे कि जीते जी तो हिंदुस्तान के विभाजन का आरोप था और मरने के बाद भी मुझे पर विभाजन का आरोप क्यों ?

एक तरफ तो कहा जाता है कि हिन्दुस्तान में जुबां आजाद है, आपको बोलने और लिखने की आजादी है। अगर हिन्दुस्तान में इस चीज की आजादी है तो गुजरात सरकार द्वारा जसवंत सिंह की किताब पर लगाया गया प्रतिबंध तो इस नियम का उल्लंघन कर रहा है। ऐसे तो लोकतंत्र की धज्जियां उड़ रही हैं, इस लेकर बुद्धिजीवी, साहित्यकार, लेखक चुप क्यों है? आज अगर गाज जसवंत सिंह की किताब पर गिरी है तो कल को किसी और की किताब पर गिरेगी, फिर तो हिन्दुस्तान के खाते में भी तस्लीमा नसरीन और सलमान रसूदी जैसे लेखकों की संख्या बढ़ जाएगी।

कल जेटली का बयान आया कि पार्टी को किताब पर नहीं, उसमें छापे मुद्दे पर आपत्ति है, जबकि दूसरी तरफ जसवंत सिंह का कहना है कि किताब पिछले कई सालों की शोध पर आधारित है। शोध पर आधारित या नहीं, लेकिन ये किताब एक व्यक्ति की सोच है और उस सोच पर रोक लगा देना कहां तक उचित है। आज समाचार पत्रों के पोर्टलों से ज्यादा ब्लॉग पढ़े जाते हैं, क्योंकि यहां पर लिखने वाली कलम आजाद है। ब्लॉग पर व्यक्त की सोच से हर कोई तो सहमत नहीं होता, लेकिन उस पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाता। ऐसे में जसवंत सिंह की किताब पर प्रतिबंध लगाना बहुत गलत है।

गुजरात सरकार द्वारा लगाया किताब पर बैन तो सरकार की संकरी सोच का सबूत है। गुजरात सरकार ने कहा है कि इससे वल्लभभाई पटेल की छवि को चोट पहुंचेगी, इस किताब में तो नेहरू का भी जिक्र है क्या उसकी छवि को चोट नहीं पहुंचेगी ? लेकिन गुजरात की वोट बटोरने के लिए नेहरू नहीं पटेल का नाम चाहिए। सो गुजरात ने किया। जसवंत को बाहर करना भी वोट बैंक का हिस्सा है, लेकिन भाजपा एक पुरानी हो चुकी चारपाई की खस्ता डोर की तरह एक एक कर टूट रही है। पहले यशवंत सिन्हा, फिर कल्याण सिंह और अब जसवंत सिंह का जाना, वहीं नवजोत सिंह सिद्धू भी नाराज हैं, तो वसुंधरा राजे कहां भाजपा से खुश है। भाजपा के टूटने का कारण है कि वो अतीत से बाहर आना ही नहीं चाहती, वो तो कल में ही जीना चाहती है। आज की जनरेशन अतीत की आवोहवा में सांस भरना चाहती है, कुछ करना चाहती है।

टिप्पणियाँ

  1. सचमुच में बहुत ही प्रभावशाली लेखन है... वाह…!!! वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी, बधाई स्वीकारें।

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  2. बेनामी8/25/2009 7:45 pm

    i want to publish it sadinama
    from kolkata
    jjitanshu
    9232184589

    जवाब देंहटाएं
  3. अभी अभी सूचना मिली है कि यह लेख सदीनामा, कोलकाता में प्रकाशित हुआ है। कुलवंत हैप्‍पी को बधाई।

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