कौन दिशा में ले चला रे पत्रकारिता
कौने दिशा में चला रे 'बटोहिया'...इस गीत को मैंने और आपने बहुत बार सुना होगा, लेकिन आजकल जब अख़बारों एवं खबरिया चैनलों को देखता हूं तो इस गीत को याद करता हूं। आप सोच रहे होंगे कि बात तो कुछ पल्ले नहीं पड़ी। इसका पत्रकारिता से क्या लेना देना है? पर आजकल की पत्रकारिता ही ऐसी हो गई कि कहना पड़ता है कौन दिशा में ले चला रे पत्रकारिता। पत्रकारिता का अर्थ सूचना देना होता है, न कि सनसनी फैलाना।
मगर आज तो हर कोई सनसनी फैलाने पर लगा हुआ है, सूचना की तो कोई बात ही नहीं। पहले तालिबान था और अब स्वाइन फ्लू। टीवी वाले बिना रुकावट निरंतर दिन में कई दफा एक ही बात का प्रचार कर उसको हौवा बना देते हैं । ऐसे में कोई भी कह उठेगा ‘कौन दिशा में ले चला रे पत्रकारिता’, इसमें दोष न्यूज एंकर का नहीं, वो तो मालिक के हाथ की कठपुतली है, उसको तो वो करना है जो मालिक को नफा दे, तभी तो उसकी पगार आएगी। सही में बोलें तो पापी पेट का सवाल है।
पत्रकारिता का क्षेत्र अब उन लोगों के लिए नहीं जो आदर्श पत्रकारिता करना चाहते हैं, क्योंकि उनकी यहां चलती है कहां, यहां तो स्थिति फौज वाली है। बस यस सर, बोलो नो का कोई काम नहीं है। स्वाइन फ्लू से पहले खबरी चैनलों पर तालिबान का भूत सवार था,लेकिन जैसे ही पता चला कि लोगों को डराने के लिए इससे भी बड़ा भूत आ गया तो उन्होंने तालिबान मुखिया की मौत की खबर को भी ज्यादा महत्ता नहीं दी। जो तालिबान की बिलों में जाकर पत्रकारिता करने का दावा करते थे, उन्होंने इस बार बस संदेहवाहक का काम किया। कभी कहा, मारा गया बेतुल्ला मेहसूद, तो कभी कहा जिंदा है मेहसूद। क्या ये पत्रकारिता है। इसमें खुद की खोज कहां है, कौन सी बिल में जाकर छुप गए खोजी पत्रकार?
पत्रकारिता खुद की खोज पर आधारित हो, किसी के बयानों पर नहीं। पत्रकारिता का अस्तित्व तभी जिंदा रहेगा, अगर पत्रकारिता करने वाले जागरूक होंगे। प्रिंट मीडिया से लेकर इलैक्ट्रोनिक मीडिया तक कार्पोरेट जगत में प्रवेश कर गया और कार्पोरेट जगत में अपने फायदे के आगे किसी और बात पर कभी ध्यान नहीं दिया जाता। देश को तो आजाद हुए 60 साल से ज्यादा का समय हो गया, लेकिन इन 60 सालों में आजाद कलम गुलामी की तरफ बढ़ी है। आज ब्लॉगिंग दिन रात अमरबेल की भांति क्यों बढ़ रही है, इसका यहां कलम, ख्याल सब आजाद हैं।
मगर आज तो हर कोई सनसनी फैलाने पर लगा हुआ है, सूचना की तो कोई बात ही नहीं। पहले तालिबान था और अब स्वाइन फ्लू। टीवी वाले बिना रुकावट निरंतर दिन में कई दफा एक ही बात का प्रचार कर उसको हौवा बना देते हैं । ऐसे में कोई भी कह उठेगा ‘कौन दिशा में ले चला रे पत्रकारिता’, इसमें दोष न्यूज एंकर का नहीं, वो तो मालिक के हाथ की कठपुतली है, उसको तो वो करना है जो मालिक को नफा दे, तभी तो उसकी पगार आएगी। सही में बोलें तो पापी पेट का सवाल है।
पत्रकारिता का क्षेत्र अब उन लोगों के लिए नहीं जो आदर्श पत्रकारिता करना चाहते हैं, क्योंकि उनकी यहां चलती है कहां, यहां तो स्थिति फौज वाली है। बस यस सर, बोलो नो का कोई काम नहीं है। स्वाइन फ्लू से पहले खबरी चैनलों पर तालिबान का भूत सवार था,लेकिन जैसे ही पता चला कि लोगों को डराने के लिए इससे भी बड़ा भूत आ गया तो उन्होंने तालिबान मुखिया की मौत की खबर को भी ज्यादा महत्ता नहीं दी। जो तालिबान की बिलों में जाकर पत्रकारिता करने का दावा करते थे, उन्होंने इस बार बस संदेहवाहक का काम किया। कभी कहा, मारा गया बेतुल्ला मेहसूद, तो कभी कहा जिंदा है मेहसूद। क्या ये पत्रकारिता है। इसमें खुद की खोज कहां है, कौन सी बिल में जाकर छुप गए खोजी पत्रकार?
पत्रकारिता खुद की खोज पर आधारित हो, किसी के बयानों पर नहीं। पत्रकारिता का अस्तित्व तभी जिंदा रहेगा, अगर पत्रकारिता करने वाले जागरूक होंगे। प्रिंट मीडिया से लेकर इलैक्ट्रोनिक मीडिया तक कार्पोरेट जगत में प्रवेश कर गया और कार्पोरेट जगत में अपने फायदे के आगे किसी और बात पर कभी ध्यान नहीं दिया जाता। देश को तो आजाद हुए 60 साल से ज्यादा का समय हो गया, लेकिन इन 60 सालों में आजाद कलम गुलामी की तरफ बढ़ी है। आज ब्लॉगिंग दिन रात अमरबेल की भांति क्यों बढ़ रही है, इसका यहां कलम, ख्याल सब आजाद हैं।
हैप्पी जी! कौने दिशा में चला रे 'बटोहिया'... है। बटोही मतलब पथिक, राही।
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