सिनेमे को समझो, केवल देखो मत

इस साल भी बहुत सारी फिल्में रिलीज हुई, हर साल की तरह. लेकिन साल की फिल्मों में एक बात आम देखने को मिली, वो थी आम आदमी की ताकत, जिसके पीछे था तेज दिमाग, जिसके बल पर आम आदमी भी किसी बड़ी ताकत को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकता है. इस साल रिलीज हुई एकता कपूर की फिल्म 'सी कंपनी' ने बेशक बॉक्स आफिस पर सफलता नहीं अर्जितकी, लेकिन फिल्म का थीम बहुत बढ़िया था, घर में होने वाली अनदेखी से तंग आकर कुछ लोग मजाक मजाक में 'सी कंपनी' बना बैठते हैं, 'सी कंपनी' की दहश्त शहर में इस कदर फैलती है कि बड़े बड़े गुंडे और सरकारें भी उनके सामने घुटने टेकने लगती हैं, वो लोग बस फोन पर ही धमकी देते हैं, सब काम हो जाते हैं, वो लोग आम जनता के हित में काम करते हैं. फिल्म कहती है कि अगर बुरे काम के लिए 'डी कंपनी' का फोन आ सकता है तो अच्छे काम करवाने के लिए 'सी कंपनी' क्यों नहीं बन सकती.'सी कंपनी' को छोड़कर अगर हम इस साल सबसे ज्यादा समीक्षकों के बीच वाह वाह बटोरने वाली फिल्म 'ए वेनसडे' की बात करें तो वो फिल्म भी एक आम आदमी की ताकत को रुपहले पर्दे पर उतारती है. लेकिन इस फिल्म के नायक को मैं आम आदमी नहीं बल्कि जागरूक नागरिक की उपाधि देता हूं. फिल्म में एक व्यक्ति कम्यूटर और मोबाइल फोन का सहारा लेकर पूरे सिस्टम को हिलाकर रख देता है. पुलिस भी कठपुतली बनकर नाचती है. पुलिस उसके इशारे पर चार आतंकवादियों को रिहा करती है, जिसमें तीन को वो उड़ा है और एक को पुलिस उड़ा देती है. इस फिल्म में दिखाया गया है, जिस व्यक्ति की पुलिस थाने में दो कौड़ी की औकत नहीं होती, वो आदमी जब आतंक फैलाने की धमकी देता है तो पुलिस उसको जी-जी कहती है. मौत के आगे कौन न नाचे भाई. इस फिल्म को देखने के बाद ज्यादातर फिल्म समीक्षकों ने नायक को आम आदमी कहा, लेकिन मैं इस को आम आदमी नहीं, बल्कि एक जागरूक नागरिक की उपाधि देता हूं, एक आम नागरिक आज भी अपने घर से बाहर निकलकर दूर की बात सोच ही नहीं सकता, फिल्म में भी शायद निर्देशक ने इस बात को ध्यान में रखा, तभी तो नायक बोलता है, आई एम स्टुपिड कॉमन मैन. इसके बाद एक और फिल्म रिलीज हुई, जो बेशक एक निजी दुश्मनी पर थी, लेकिन उसमें एक नौजवान अपने दिमाग से एक अरबपति को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया. यह फिल्म संजय गड़वी की किडनैप है, जिसको ज्यादातर फिल्म समीक्षकों ने सिरे से नाकार दिया जबकि फिल्म की कहानी अद्भुत है, हां संजय ने एक जगह गलती कर दी, वो कलाकार के चयन में, अगर हम कलाकारों की उम्र को नजरंदाज करते हुए फिल्म देखें तो पता चलता है कि आज के युवा क्या नहीं कर सकते, आज आतंकवादी हर जगह विसफोट करने से पहले मेल भेजकर सबको चौंका देते, इसमें चौंकने वाली कोई बात नहीं, क्योंकि आज की युवा पीढ़ी में एक से बढ़कर एक हीरे हैं, लेकिन जो आतंकवादियों के हत्थे चढ़कर अपनी शक्ति का गलत प्रयोग करते हैं. इसका भी एक कारण है, देश में होनहार युवकों की कदर भी तो नहीं होती, कितने ही डिग्री होल्डर नौजवान सड़कों पर नौकरी की तलाश में दिन रात भटकते फिरते रहते हैं, उसमें से कुछ तो जीवनलीला समाप्त कर लेते हैं, या कुछ अपनी डिग्री को एक तरफ रखकर अपने परिवार का पेट पालने के लिए जो काम मिलता कर लेते हैं, काम तो वो करते हैं, लेकिन उनके मन में जो तमन्नाएं होती हैं, जो अकांशाएं होती हैं, वो कभी नहीं मरती, ऐसे में शरारती अनसरां उनका फायदा उठाते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि फिल्में समाज का आइना हैं, लेकिन फिर दूसरी तरफ इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि फिल्म की कहानी भी समाज में पैदा होती है, वो समाज का कल होता है, जो आने वाले कल को संवारने के लिए मददगार हो सकता है. लेकिन आज की तेज जिन्दगी में किसके पास समय है कि वो इन बातों को देखे, वो तो सोचता है कि रविवार है, फिल्म देखकर बस दिमाग तारोताजा कर लें...यहां पर मेरा आपको सुझाव है कि सिनेमे को समझो, केवल देखो मत..

टिप्पणियाँ

  1. बहुत जबरदस्त लेख.. शत-प्रतिशत सहमती है आपसे.. मैं ज्यादा सिनेमा नहीं देखता मगर जो देखता हूं उसे अपने भीतर जीता हूं..

    ये शब्द पुष्टिकरण वाला हिस्सा हटा दें तो कमेंट लिखने में आसानी हो..

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